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Reading: मध्य प्रदेश चुनाव : शिवराज के आगे कमज़ोर पड़ती कांग्रेस?
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BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > मध्य प्रदेश चुनाव : शिवराज के आगे कमज़ोर पड़ती कांग्रेस?
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मध्य प्रदेश चुनाव : शिवराज के आगे कमज़ोर पड़ती कांग्रेस?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 10, 2018 1 View
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14 Min Read
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By Javed Anis

मध्य प्रदेश में पिछले तीन महीने की सरगर्मियों को देखें तो कांग्रेस भाजपा के मुक़ाबले चुनावी तैयारियों में पीछे नज़र आ रही है. कांग्रेस अभी भी आपसी गुटबाज़ी में उलझी हुई है. उसका पूरा फोकस आपसी मतभेद ख़त्म करने और कार्यकर्ताओं को मनाने पर ही अटका हुआ है.

वहीं दूसरी तरफ़ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के ज़रिए सीधे मतदाताओं के बीच पहुंच कर ना केवल अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिना रहे हैं, बल्कि नई घोषणाएं किए जा रहे हैं. उनकी यात्रा में अच्छी-ख़ासी भीड़ भी जुड़ रही है. कांग्रेस शिवराज के इस यात्रा का जवाब नहीं दे पा रही है. इसके जवाब में जीतू पटवारी के अगुवाई में निकाली गई “जन जागरण यात्रा” अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही है. खुद कांग्रेसी कह रहे हैं कि शिवराज की ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के मुक़ाबले कांग्रेस के प्रयास नाकाफ़ी है.

इस बीच भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बार भी उसका चेहरा शिवराज होंगे. जबकि चेहरे को लेकर कांग्रेस की उलझन अभी भी बनी हुई है. शिवराज के मुक़ाबले कौन होगा पार्टी के पास अभी भी इसका कोई जवाब नहीं है.

सत्ताधारी भाजपा आक्रामक है. सत्ता विरोधी लहर को कम करने के लिए भाजपा अपने पंद्रह साल के शासन की तुलना दिग्विजय सिंह के काल से कर रही है. वहीं कांग्रेस कंफ्यूज नज़र आ रही है. ऐसा लगता है उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो सत्ता में है या विपक्ष में. वो अपनी पुरानी कमियों, ग़लतियों को चाह कर भी सुधार नहीं पा रही है और ना ही चुनाव के लिए कोई कामन थीम तय कर पा रही है.

कांग्रेस के लिए अगले तीन महीने बहुत क़ीमती साबित होने वाले हैं. इस दौरान अगर कांग्रेस अपने आपको एकजुट करके मुक़ाबले में पेश नहीं कर पाई तो शिवराज सिंह का इतिहास रचना तय है. भाजपा चौथी बार सत्ता में होगी और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या गुटबाजी और भीतरघात अभी भी बनी हुई है. कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता के प्रदेशाध्यक्ष बनने के बावजूद भी गुटबाजी बनी हुई है, बिना एकजुटता और बिना कामन थीम के क्षत्रप अपने अपने तरीक़े से चुनावी तैयारी करते हुए नज़र आ रहे हैं. शायद इसीलिए अभी तक पार्टी संगठन स्तर पर ही तैयारियां करती हुई नज़र आई है जिसकी वजह से मामला बैठक और सम्मेलनों तक ही अटका हुआ है.


मध्य प्रदेश में पहले के मुक़ाबले इस बार कांग्रेस बेहतर स्थिति में दिखाई पड़ रही है इसी वजह से कांग्रेसी चुनाव जीता हुआ मान रहे हैं, लेकिन ये ग़लतफ़हमी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ सकती है. सत्ताधारी पार्टी होने के बावजूद ज़मीनी स्तर पर भाजपा ज्यादा सक्रिय नज़र आ रही है, इस स्थिति को देखते हुए राहुल गांधी ने बैठक करने के बजाए जनता के बीच जाने पर ज्यादा ज़ोर देने को कहा है.

रही कही कसर कांग्रेस पार्टी के मुखपत्र माने जाने वाले अख़बार नेशनल हेराल्ड ने पूरी कर दी है, जिसने अपने वेबसाइट पर एक अनजाना सा चुनाव पूर्व सर्वे प्रकाशित किया है, जिसमें मध्य प्रदेश में भाजपा को एक बार फिर बहुमत मिलता हुआ दिखाया गया है.

क़रीब तीन महीने पहले अनुभवी नेता कमलनाथ को पीसीसी अध्यक्ष और युवा नेता ज्योतिराव सिंधिया को चुनाव प्रचार अभियान समिति की कमान सौंपी गई थी, जिसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि अंदरूनी गुटबाजी पर लगाम कसेगा और राज्य में पार्टी की जीत की संभावनाएं मज़बूत होंगी. लेकिन अभी तक ये उम्मीद पूरी होती नज़र नहीं आई है और कांग्रेस अपने ख़िलाफ़ बनी धारणाओं को ख़त्म करने में नाकाम साबित हुई है.

इस दौरान कमलनाथ का फोकस संगठन पर रहा है. लेकिन इसी चक्कर में मैदान खाली छोड़ दिया गया है. सूबेदार के तौर पर कमलनाथ का अभी तक प्रदेश का दौरा शुरू भी नहीं हुआ है. उन्होंने खुद को अभी संगठन की बैठकों तक ही सीमित किया हुआ है. प्रदेश भर में सत्ता विरोधी आक्रोश का प्रदर्शन जारी है, लेकिन इसमें कांग्रेस पार्टी कहीं नज़र नहीं आ रही है.

कमलनाथ ने बसपा के गठबंधन को लेकर काफ़ी ज़ोर लगाया है, लेकिन बात अभी तक बनी नहीं है. उल्टे बसपा के साथ गठबंधन पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देने की वजह से बसपा के भाव बढ़ गए हैं और वो अपनी शर्तों पर मोल-भाव की स्थिति में आ गई है.

अब बसपा की तरफ़ से कहा जा रहा है कि “यदि मध्य प्रदेश में सम्मानजनक सीटें मिलेंगी तभी हम गठबंधन को तैयार होंगे.” इस तरह से कमलनाथ के उतावलेपन का विपरीत असर पड़ा है और सीटों के बंटवारे को लेकर पेंच अड़ा हुआ है.

इधर आपसी खींचतान है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही है. संगठन में बदलाव के बावजूद नेताओं के बीच तालमेल नहीं बन पाया है. भाजपा का मुक़ाबला करने के बजाए पार्टी अपने अंदरूनी झगड़े से ही जूझ रही है और पार्टी के क़रीब आधे दर्जन नेता पहले की तरह ही अपनी-अपनी राजनीति करने में व्यस्त हैं और राष्ट्रीय नेतृत्व अपने में ही मस्त है, जिसकी वजह से विधानसभा चुनावों से ठीक पहले लावारिस नज़र आ रही है. सबसे बड़ा पेंच तो पार्टी की तरफ़ से चेहरे पर ही फंसा हुआ है.

जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के सामने शिवराज सिंह चौहान के सामने कांग्रेस का कोई एक चेहरा नहीं है. इस मामले में फिलहाल यही बदलाव हुआ है कि पहले के मुक़ाबले अब दो ही चेहरे सामने हैं —कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया का, जिनके समर्थक इन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताकर सोशल मीडिया पर खूब पोस्टरबाज़ी कर रहे हैं. अगर चेहरे को लेकर यह बवाल आगे भी जारी रहा तो पार्टी की रही सही संभावनाएं भी ख़त्म हो जाएंगी.

इस बीच जिन्हें तालमेल बनाने की ज़िम्मेदारी देकर मध्य प्रदेश भेजा गया था वो खुद ही बवाल मचाए हुए हैं. मध्य प्रदेश कांग्रेस में पहले से ही इतना प्रपंच ऊपर से दीपक बावरिया को प्रभारी बनाकर भेज दिया गया जो रायता समेटने के बजाए इसे फैलाने में अपना योगदान दे रहे हैं.

बावरिया लगातार अपने विवादित बयानों के माध्यम से नए संकट खड़ा करते रहे हैं. उनका ताज़ा कारनामा रीवा में दिया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अगर मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी तो ज्योतिरादित्य सिंधिया या कमलनाथ में से कोई एक मुख्यमंत्री बनेंगे.’ ये बात विंध्य के नेता अजय सिंह के समर्थकों को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने बावरिया के साथ सरेआम दुर्व्यवहार कर डाला. इससे पहले उन्होंने उप-मुख्यमंत्री के तौर पर सुरेंद्र चौधरी के नाम की घोषणा करके पार्टी में घमासान मचा दिया था.

दरअसल, मध्य प्रदेश कांग्रेस उन राज्यों में शामिल है जहां उसके पास हमेशा से ही कई बड़े नेता रहे हैं. मौजूदा दौर में भी मंज़र यही है कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य राव सिंधिया जैसे नेताओं के सामने बावरिया का क़द छोटा है. सितंबर 2017 को जब उन्हें प्रदेश प्रभारी के रुप में मध्य प्रदेश भेजा गया था तो स्थिति दूसरी थी. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के समय उन्हें तवज्जो भी मिल रही थी, लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है. कमलनाथ और सिंधिया उन्हें ज्यादा भाव नहीं दे रहे हैं. ऐसे में अनाप-शनाप बयान देकर वो अपनी महत्ता साबित करने में लगे रहते हैं.

मध्य प्रदेश में पिछले 15 सालों से भाजपा का शासन है और ऐसा लगता है वो आसानी से मैदान छोड़ने को तैयार नहीं हैं. व्यापम जैसे घोटालों और मंदसौर गोलीकांड के बाद किसानों के गुस्से के बाद से माहौल बदलता हुआ नज़र आ रहा था. बढ़ते एंटी इनकमबेंसी से शिवराज सरकार परेशानी में नज़र आ रही थी, लेकिन पिछले चंद महीनों के दौरान भाजपा के लिए माहौल में सुधार देखने को मिल रहा है.

इधर राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा तमाम किन्तु-परन्तु के बाद आख़िरकार शिवराज सिंह चौहान के नाम को एक बार फिर मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर घोषित किया जा चुका है. साथ ही उन्होंने पर्याप्त छूट भी दे दी गई है. जिसके बाद से शिवराज ने खुद को पूरी तरह से चुनावी तैयारियों में झोंक दिया है. फिलहाल अपने जन आशीर्वाद यात्रा के द्वारा वे पूरे मध्य प्रदेश को नाप रहे हैं, जिसमें किसी विपक्षी की तरह कांग्रेस को निशाने पर ले रहे हैं और अपनी धुआंधार घोषणाओं के ज़रिए हर वर्ग को साधने में लगे हुए हैं.

कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा का आलाकमान भी मध्य प्रदेश को लेकर ज्यादा गंभीर नज़र आ रहा है. राहुल गांधी के मुक़ाबले अमित शाह और नरेन्द्र मोदी का मध्य प्रदेश में कई दौरे और सभाएं हो चुके हैं. जबकि अभी तक राहुल गांधी की एकमात्र मंदसौर में ही सभा हुई है. विधानसभा चुनावों के देखते हुए अमित शाह मध्य प्रदेश में ही कैंप करने का फैसला किया है, जहां से वे तीनों राज्यों पर नज़र रखेंगे ही. साथ ही उनका इरादा 25 सितंबर तक प्रदेश के सभी संभागों में जाने का है, जहां वे बूथ एवं पन्ना प्रमुखों से सीधे तौर पर जुड़ेंगे.

पार्टी की तरफ़ से एकबार फिर भावी मुख्यमंत्री के तौर घोषित किए जाने के और जन आशीर्वाद यात्रा को मिल रहे रिस्पोंस को देखकर शिवराज सिंह का आत्मविश्वास और जोश देखते ही बन रहा है. सत्ता में वापस लौटने के लिए वे पूरी ताक़त लगा रहे हैं और कांग्रेस को राजाओं-कारोबारीयों की पार्टी बताते हुए खुद को मध्य प्रदेश का मामा घोषित कर रहे हैं.

पिछले दिनों जब कमलनाथ ने उनकी बेलगाम घोषणाओं का मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि “शिवराज मदारी की तरह कर रहे हैं घोषणाएं कर रहे हैं…” तो शिवराज का जवाब था, “हां, मैं मदारी हूं… मैं ऐसा मदारी हूं, जो डबरू बजाता है तो बिजली बिल ज़ीरो हो जाता है, मैं मदारी हूं, जो गरीबों के लिए घर बनाता है, बच्चों की फीस भरता है…”

मध्य प्रदेश में सत्ता विरोधी से इंकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन पिछले तीन महीनों के दौरान कांग्रेस इसे भुनाने का मौक़ा गवांती हुई नज़र आई है, जबकि उसके मुक़ाबले सत्ताधारी भाजपा ने एंटी इनकंबेंसी को कम करने के लिए ज्यादा काम किया गया है.

बहरहाल, मध्य प्रदेश में चुनावी तैयारियों के पहले राउंड में भाजपा बढ़त बनाने में कामयाब रही है, जबकि इस दौरान कांग्रेस मौक़ा खोते हुए नज़र आई है.

अगले तीन महीनों में दूसरा राउंड होना है जिसमें राष्ट्रीय धुरंधर भी ताल ठोकते हुए नज़र आएंगे. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भाजपा के लिए सत्ता की थाली सजी हो, भले ही जन आशीर्वाद यात्रा में भीड़ उमड़ रही हो, लेकिन ये ज़रूरी नहीं है कि ये वोट में भी तब्दील हो, चुनाव के हिसाब से अभी समय है जिसमें उम्मीदवारों, मुद्दों, वायदों और नारों को तय किया जाना बाक़ी है.

कांग्रेस के पास समय कम है और वो अभी भी बिखरी हुई नज़र आ रही है. भाजपा के सामने चुनौती पेश करने से पहले उसे खुद को ही संभालना है. कांग्रेस के लिए सत्ता की कुंजी उसकी एकजुटता में निहित है, लेकिन ये आसान नहीं है. आने वाले महीनों में टिकटों को लेकर भी आपसी घमासान होना तय है.

सभी क्षत्रप अपने-अपने चहेतों को टिकट दिलाना चाहेंगे, जिससे उनकी दावेदारी मज़बूत हो सके. ऐसे में पार्टी कितना एकजुट हो सकेगी उस पर सवालिया निशान है. पार्टी की तरफ़ से चेहरे का सवाल भी बना ही हुआ है. आने वाले दिनों में ये देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी किन नई रणनीतियों के साथ सामने आती है. फिलहाल मैदान में “मदारी” मामा ही नज़र आ रहे हैं.

(जावेद अनीस भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. उनसे javed4media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

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