BeyondHeadlines News Desk
लखनऊ : बटला हाउस फ़र्ज़ी एनकाउंटर की दसवीं बरसी पर ‘मानवाधिकार, लोकतांत्रिक अधिकार, सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वालों पर बढ़ते हमलों के ख़िलाफ़’ आज लखनऊ के यूपी प्रेस क्लब में सामाजिक संगठन रिहाई मंच द्वारा एक सम्मेलन का आयोजन किया गया.
सम्मेलन को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार भारत भूषण ने कहा कि सरकार हर आवाज़ को ख़ामोश करना चाहती है, ऐसा नहीं है बल्कि वह कुछ आवाज़ों की गूंज को और बढ़ाना चाहती है.
उन्होंने कहा कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करने वालों, हथियारबंद गौ-रक्षकों, हिंदू-मुस्लिम शादियों को ‘लव जिहाद’ कहने और अंर्तजातीय विवाह को रोकने वालों, सड़क पर नमाज़ पढ़ने से रोकने और जागरण एवं कांवड़ियों द्वारा हाईवे जाम कर देने वालों, पाकिस्तान भेजने वालों और लड़कियों को जीन्स पहनने और मोबाइल इस्तेमाल करने से रोकने वालों की आवाज़ बंद नहीं करना चाहते और यह सभी को मालूम है कि वह कौन लोग हैं. उसके विपरीत सरकार की जन-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वालों, हाशिए पर खड़े दलित, आदिवासी समाज के हक़-हक़ूक़ की बात करने वाले सामाजिक संगठनों, वकीलों और सरकार के ग़लत कारनामों और नीतियों के ख़िलाफ़ लिखने और बोलने वाले पत्रकारों की ज़बान पर वे ताला लगाना चाहते हैं. भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद जून और अगस्त के महीने में सिविल सोसाइटी के पांच कार्यकर्ताओं की हिरासत के बाद यह और प्रासंगिक हो जाता है.
भारत भूषण ने कहा कि इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल लगाने से पहले इसी सिविल सोसाइटी के पीछे ‘विदेशी हाथ’ होने की बात कही थी. मनमोहन सिंह काल में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के पीछे भी विदेशी खिलाड़ियों के होने की बात कही गई थी. विदेशी सहायता पाने वाले गैर-सरकारी संगठनों की सूक्ष्म जांच और एफ़सीआरए के क़ानून को और कठोर बनाया गया. पी. चिदम्बरम के गृहमंत्री रहते हुए यूएपीए को और कठोर बनाया और मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात करने वाले प्रावधान जोड़े गए. जन अधिकारों की बात करने वालों को जेल में ठूंसा गया. फिर भी आज स्थिति अलग है, नरेंद्र मोदी जैसा असामान्य व्यक्ति प्रधानमंत्री है. इस सरकार को अपनी विफलताओं के लिए किसी पर आरोप लगाने की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक है.
उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता और आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ी है. दलितों, आदिवासियों पर जातीय हमलों में इज़ाफ़ा हुआ है. छुपी हुई साम्प्रदायिकता को हिंदुत्व के नाम पर अब वैधानिकता मिल गई है.
उन्होंने कहा कि मीडिया ने असहमति की आवाज़ दबाने में भूमिका निभाई है. रहन-सहन, खान-पान, पहनावे के आधार पर घृणा के अपराध के बढ़ने, धर्म और जाति की बुनियाद पर दूसरों को नीच समझने जैसे विघटनकारी विचारों के प्रसार के लिए मीडिया का वह हिस्सा भी ज़िम्मेदार है जिसे ‘गोदी मीडिया’ के नाम से जाना जाने लगा है. साम्प्रदायिक और जातीय हिंसा, माॅब लिंचिंग और यहां तक कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के मामले में भी मीडिया के एक वर्ग की भूमिका निम्न स्तरीय और पक्षपातपूर्ण रही है.
दस्तक पत्रिका की सम्पादक एवं मानवाधिकार नेत्री सीमा आज़ाद ने कहा कि यूं तो देश कॉरपोरेटी फासीवाद की ओर बढ़ ही रहा था, लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में आने के बाद इसने मनुवादी फासीवाद को भी शामिल कर लिया है. भीमा कोरेगांव में हिन्दुन्वादी संगठनों द्वारा कराई गई हिंसा के सूत्राधारों सांभा जी भिड़े और एकबोटे को सत्ता का संरक्षण और आशीर्वाद प्राप्त है और वंचित समाज के अधिकारों की बात करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और वकीलों की गिरफ्तारी उसी फासीवादी-मनुवादी एजेंडे को थोपने का प्रयास है.
उन्होंने कहा कि पिछले साल सहारनपुर जातीय हिंसा के नाम पर दलित समाज पर सत्ता पोषित तत्वों द्वारा सुनियोजित हमला और उसके बाद चंद्रशेखर समेत दलितों की गिरफ्तारी व रासुका लगाना सत्ता के उसी फासीवाद को दर्शाता है.
उन्होंने बलपूर्वक कहा कि यह समूह समाज के सभी वर्गों को समानता का अधिकार देने को वर्ण व्यवस्था पर हमला मानता है और उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता.
उन्होंने पिछली कांग्रेस सरकारों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों को जेलों में डालना और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में उनकी हत्या करना पहले की सरकारों में भी होता रहा है. कई बार नीतिगत स्तर पर भी हुआ है जिसे इस मनुवादी-फासीवादी सरकार ने और तेज़ किया है. बटला हाउस फ़र्ज़ी मुठभेड़ उसका उदाहरण है.
रिहाई मंच अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा कि दस साल पहले जो संघर्ष बटला हाउस फ़र्ज़ी मुठभेड़ के बाद सड़कों पर खड़ा हुआ वह आज इस मनुवादी फासिस्ट व्यवस्था के ख़िलाफ़ सहारनपुर से लेकर भीमा कोरेगांव तक आवाज़ बुलंद कर रहा है. इस संघर्ष में सबसे अहम है कि युवा नेतृत्व तय कर रहा है कि उसका भारत मोदी का नहीं, डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के संविधान वाला भारत होगा. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और नजीब का अब तक पता न चलना साफ़ करता है कि ये नहीं चाहते कि वंचित समाज उच्च शिक्षा लेकर उनकी सड़ी-गली व्यवस्था के ख़िलाफ़ मुखर हो.
उन्होंने कहा कि एक तरफ़ माॅब लिंचिंग करने वालों को केन्द्रीय मंत्री माला पहनाते हैं और दूसरी तरफ़ दलित, पिछड़ों और मुसलमानों की मुठभेड़ के नाम पर हत्या की जा रही है और पीड़ितों पर ही रासुका लगाकर उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा घोषित किया जा रहा है.
मुहम्मद शुऐब ने कहा कि मार्च 2007 में लखनऊ में सैफुल्लाह फ़र्ज़ी मुठभेड़ के बाद आईएस के नाम पर कानपुर समेत प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से गिरफ्तारियां की गईं. हाल में कानपुर से आतंकवाद के नाम पर हुई गिरफ्तारी का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि एक तरफ़ रोहिंगिया मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल बनाया जा रहा है तो वहीं बांग्लादेशी के नाम पर पिछले साल से गिरफ्तारियां जारी है. इसी तरह 2007 में भी बांग्लादेशी के नाम पर गिरफ्तारियां की गई थी जिसके ख़िलाफ़ लड़कर उस झूठ को बेनक़ाब किया गया.
नागरिक परिषद के संयोजक रामकृष्ण ने कहा कि कालबुर्गी, पंसारे, दाभोलकर, लंकेश की हत्या के बाद जिस तरीक़े से वंचितों की आवाज़ उठाने वाले गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, पी.वरवर राव, वर्रनन गोंसाल्विस को गिरफ्तार किया गया उससे इंसाफ़ की आवाज़ नहीं दबने वाली. लोकतंत्र, संविधान और साझी विरासत-साझी शहादत को बचाने की निर्णायक लड़ाई नए इतिहास का निर्माण करेगी.
रिहाई मंच नेता मसीहुद्दीन संजरी ने कहा कि बटला हाउस के बाद सूत्रों के ज़रिए आने वाली अपुष्ट सूचनाओं और अपने बच्चों के बारे में सोच-सोचकर अधिकतर परिजन गहरे सदमे में पहुंच गए और दिल की बीमारी के शिकार हो गए. साजिद छोटा के पिता डॉक्टर अंसारुल हस्सान बेटे की मौत की ख़बर के बाद बुत बन गए तो वहीं मां ने बिस्तर पकड़ लिया. आख़िरकार डॉक्टर साहब दुनिया का अलविदा कह गए. आरिफ़ बदर के पिता बदरुद्दीन चल बसे तो वहीं उसकी मां का दिमाग़ी संतुलन बिगड़ गया. आरिज खान के पिता ज़फ़र आलम, सलमान के दादा शमीम, अबू राशिद के पिता एख़लाक़ अहमद अपने बेटों के ग़म में चल बसे.
इसे त्रासदी बताते हुए कहते हैं कि अबू राशिद के भाई अबू तालिब को पिछले दिनों दिल का दौरा पड़ा. साजिद बड़ा के बारे में अफगानिस्तान, इराक़ और सीरिया में तीन बार मारे जाने की ख़बरें सूत्रों के हवाले से आती रही हैं. जुलाई 2015 में सीरिया में उसके मारे जाने की ख़बर काफ़ी चर्चा में रही. लेकिन 26 जनवरी 2018 को दिल्ली स्पेशल सेल ने जिन सम्भावित आतंकियों के ख़िलाफ़ एलर्ट जारी किया था, उस सूची में आश्चर्यजनक रूप से साजिद बड़ा का नाम भी शामिल था. आतिफ़ अमीन और साजिद छोटा की बटला हाउस फ़र्ज़ी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी.
बटला हाउस के बाद अब तक आज़मगढ़ के 15 नौजवानों को इंडियन मुजाहिदीन का आतंकी कहकर गिरफ्तार किया जा चुका है जिनके नाम मोहम्मद सैफ़, जीशान अहमद, साक़िब निसार, मोहम्मद आरिफ़, मोहम्मद हाकिम, मोहम्मद सरवर, सैफुर्रहमान अंसारी, शहज़ाद अहमद, सादिक़ शेख़, ज़ाकिर शेख़, आरिफ़ बदर, सलमान अहमद, हबीब फ़लाही, असदुल्लाह अख़्तर और मोहम्मद आरिज़ खान है. सितम्बर 2008 से गिरफ्तारियों का यह सिलसिला शुरू हुआ और इस में अंतिम गिरफ्तारी 14 फरवरी 2018 को आरिज़ खान की हुई. आईएस से जुड़े होने के आरोप में अबू ज़ैद को भी गिरफ्तार किया गया. इसके अलावा डॉक्टर शाहनवाज़, साजिद बड़ा, मोहम्मद ख़ालिद, अबू राशिद, वासिक़ बिल्लाह, मिर्ज़ा शादाब बेग, मोहम्मद राशिद, शर्फुद्दीन और शादाब अहमद लापता हैं. इनमें अंतिम तीन के ख़िलाफ़ एनआईए ने 2012 में एफ़आईआर दर्ज की है जिसमें गैर-क़ानूनी गतिविधियां निरोधक अधिनियम की धाराएं लगाई गई थीं, लेकिन किसी घटना का उल्लेख नहीं था.