जब जामिया को बंद करने की चल रही थी तैयारी…

अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines

यह बात पूरी दुनिया जानती है कि जामिया का आरंभिक दौर संघर्षों से भरा पड़ा है. यहां तक कि जामिया को बंद करने की तैयारियां भी की जाने लगी थीं. तब ज़ाकिर हुसैन साहब ने यूरोप से पत्र लिखा और कहा —“मैं और मेरे चंद साथी जामिया की ख़िदमत के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ करने को तैयार हैं. हमारे आने तक जामिया को बंद न किया जाए.”

जामिया के आरंभिक संघर्षों की तस्वीर हमें ज़ाकिर साहब के इन शब्दों में साफ़ नज़र आती हैं —“उस दौर में सामान नहीं था. अरमान थे. दौलत नहीं थी, हिम्मत थी. सामने एक आदर्श था, एक लगन थी. जो बच्चा इस बेसरो-सामान बस्ती में आ जाता था, उसकी आंखों में हमें आज़ादी की चमक दिखाई देती थी. हमसे गुलामी ने जो कुछ छीन लिया था, वह सब हमें इन बच्चों में मिल जाता था. हर बच्चे में एक गांधी, अजमल खां, एक मुहम्मद अली, एक नेहरू, एक बिनोवा छुपा लगता था. फिर आज़ादी आई… बादल छंटे… सूरज निकला… फिर छंटते-छंटते वह बादल खून बरसा गए… देश बंटा… इसके गली-कूचों में खून बहा… घर-घर आंसू बहे… भाई भाई का दुश्मन हो गया… आज़ादी की खुशी दाग़-दाग़ हो गई… नया भारत बनाने के अरमान जो वर्षों से दिलों को गरमा रहे थे, कुछ ठण्डे से पड़ गए. इस हंगामे में जामिया पर भी मुश्किलें आईं, पर वह भी गुज़र गईं.”

वह वक़्त बड़ा सख्त था. अंधेरा घना था. नफ़रत की हवाएं तेज़ थीं, लेकिन जामिया और जामिया वालों ने मुहब्बत और खिदमत के चिराग़ को रौशन रखा. हुमायूं के मक़बरे का कैम्प हो या पुरानी दिल्ली की जलती और सुलगती बस्तियां, सरहद पार से आने वाले शरणार्थी कैम्प हों या मुसाफ़िरों से लदी हुई मौत की गाड़ियां, जामिया के मर्द, औरत और बच्चे हर जगह पहुचें, घायलों की मरहम पट्टी की. बीमारों की तीमारदारी का बोझ उठाया, ज़ख्मी दिलों को तसल्ली दी, बेघर और बेसहारा लोगों को सहारा दिया, खुद भूखे रह कर भूखों को खिलाया. यतीम बच्चों को सीने से लगाया. जामिया के सीने में आज भी यह जज़्बा दफ़न है.