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संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की 148वीं जयंती पर उनके जीवन से जुड़े कुछ अहम तथ्य…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published November 10, 2018 22 Views
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11 Min Read
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भारत के मशहूर सांसद, शिक्षाविद, अधिवक्ता, पत्रकार और संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की आज 148वीं जयंती है. पेश है इस मौक़े पर उनके जीवन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य…

By Md Umar Ashraf

10 नवंबर 1871 को बक्सर ज़िले के चौंगाईं प्रखण्ड के मुरार गांव में एक कायस्थ परिवार में पैदा हुए डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने प्राथमिक शिक्षा गांव में ही हासिल की. बचपन से ही पढ़ने में बहुत ज़हीन थे.

26-29 दिसम्बर 1888 को इलाहाबाद में हुए कांग्रेस के चौथे सेशन में दर्शक की हैसियत से हिस्सा लिया.

सियासत में दिलचस्पी देख घर वालों ने 18 साल की उम्र में ही 26 दिसम्बर 1889 को बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया और वो पहले बिहारी कायस्थ थे जो विदेश गए.

वहां उनकी सक्रियता को नया आयाम देने दो नए दोस्त मज़हरुल हक़ और अली इमाम आ जुड़े. यह 1890 का दौर था. इंग्लैंड में मुस्लिम स्टूडेंट की अच्छी-ख़ासी तादाद थी. वहां उन लोगों के लिए मज़हरुल हक़ ने एक संस्था भी बनाई “अंजुमन-ए- इस्लामिया”. इस संस्था की बैठकों में सच्चिदानन्द सिन्हा अक्सर शामिल होते. बंगाल से बिहार को अलग कर ख़ुदमुख़्तार रियासत बनाने में इसी दोस्ती ने सबसे अहम किरदार निभाया था.

इंग्लैंड से 1893 में हिंदुस्तान वापस लौट कर इलाहाबाद हाई कोर्ट में कई साल तक प्रैक्टिस की. 1894 में सच्चिदानंद सिन्हा की मुलाक़ात जस्टिस ख़ुदाबख़्श ख़ान से हुई और वो उनसे जुड़ गए और जस्टिस साहेब के काम में उनकी मदद करने लगे. जब जस्टिस ख़ुदाबख़्श ख़ान का तबादला हैदराबाद हुआ तो उनकी लाईब्रेरी का पूरा दारोमदार सिन्हा साहेब ने अपने कांधे पर ले लिया और 1894 से 1898 तक ख़ुदाबख़्श लाईब्रेरी के सेक्रेट्री की हैसियत से अपनी ज़िम्मेदारी को अंजाम दिया.

इसी बीच कई ऐसी घटनाएं सामने आईं, जिसने सच्चिदानंद सिन्हा को बिहार के लिए लड़ने पर मजबूर कर दिया. बस उन्होंने यहीं से बिहार को बंगाल से आज़ाद कराने को अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा मक़सद बना लिया और इसके लिए उन्होंने सबसे बड़ा हथियार अख़बार को बनाया.

उसके बाद अलग बिहार की मुहिम तेज़ होने लगी. इस कड़ी में महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह, नंद किशोर लाल, राय बहादुर व कृष्ण सहाय का नाम जुड़ गया. जगह-जगह पर अलग बिहार की मांग को लेकर आंदोलन होने लगे. बिहार से निकलने वाले अख़बार भी इसके समर्थन में आ गए. हालांकि इनकी तादाद बहुत कम थी. बंगाली अख़बार अलग बिहार का विरोध करते थे.

उन दिनों सिर्फ़ ‘द बिहार हेराल्ड’ अख़बार था, जिसके एडिटर गुरु प्रसाद सेन थे. उस वक़्त एक यही अंग्रेज़ी अख़बार था जो किसी बिहारी की निगरानी में था. इसलिए 1894 में सच्चिदानंद सिन्हा ने “द बिहार टाइम्स” के नाम से एक अंग्रेज़ी अख़बार निकाला जो 1906 के बाद “बिहारी” के नाम से जाना गया.

सच्चिदानंद सिन्हा कई सालों तक महेश नारायण के साथ इस अख़बार के एडिटर रहे. और इसके ज़रिया से उन्होंने अलग रियासत “बिहार” के लिए मुहिम छेड़ी. उन्होंने हिन्दू-मुसलमान को “बिहार” के नाम एक होने की लगतार अपील की.

नंद किशोर लाल के साथ मिलकर सिन्हा साहेब ने बंगाल लेफ़्टिनेंट गवर्नर को मेमोरेंडम भेज कर अलग “बिहार” रियासत की मांग भी की.

1907 में महेश नारायण के मौत के बाद डॉ. सिन्हा अकेले हो गए. लेकिन इनकी मुहिम पर कोई असर नहीं पड़ा, क्योंकि उनकी मदद के लिए वो मित्र मंडली पूरी तरह साथ आ गई, जिनसे उनकी मुलाक़ात इंगलैंड में हुई थी.

इसी को आगे बढ़ाते हुए अप्रैल 1908 को बिहार प्रोविंशियल कांफ़्रेंस (बिहार राज्य सम्मेलन) सर अली इमाम की अध्यक्षता में पटना में हुआ, जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी सच्चिदानंद सिन्हा और मज़हरुल हक़ के कंधे पर थी. इसी कांफ़्रेंस में सर मुहम्मद फ़ख़रुद्दीन ने एक अलग ख़ुदमुख़्तार रियासत “बिहार” की मांग करते हुए प्रोविंशियल पास किया जिसे हर ज़िले से आए हुए नुमाइंदों ने सपोर्ट किया.

इसी समय सोनपुर मेला के मौक़े पर नवाब सरफ़राज़ हुसैन ख़ान की अध्यक्षता में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी की बुनियाद रखी गई और सैय्यद हसन इमाम को इसका अध्यक्ष बनाया गया. इस तरह बिहार से कांग्रेस पर एकतरफ़ा बंगाली राज को ख़त्म किया गया.

डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में अप्रैल 1909 में एक बार फिर बिहार राज्य सम्मेलन भागलपुर में हुआ और यही मांग वापस दुहराई गई.

1910 के चुनाव में चार महाराजों को हरा कर सच्चिदानन्द सिन्हा इंपीरियल विधान परिषद में बंगाल कोटे से और ठीक उसी समय मौलाना मज़हरुल हक़ मुस्लिम कोटे से बतौर प्रतिनिधि निर्वाचित हुए, जो कि बिहारियों के हक़ के लिए लड़ने वालों की बड़ी उपलब्धी थी.

सच्चिदानन्द सिन्हा 1910 से 1920 तक इस पद पर रहे. फिर 1921 में सच्चिदानन्द सिन्हा केन्द्रीय विधान परिषद के मेम्बर के साथ इस परिषद के उपाध्यक्ष बने.

उसी समय लॉ मेम्बर एस.पी. सिन्हा ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया तब वायसराय लॉर्ड मिंटो ने डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा से इस पद के लिए सबसे क़ाबिल शख़्स का नाम पूछा तो उन्होंने सर अली इमाम का नाम आगे कर दिया, पर अली इमाम ने इस पद पर जाने से इंकार कर दिया. लेकिन सच्चिदानंद सिन्हा के बार-बार ज़ोर ड़ालने पर वो खुद को रोक नहीं पाए और लॉ मेम्बर एस.पी. सिन्हा की जगह ले ली.

25 अगस्त 1911 को सर अली इमाम ने उस रिपोर्ट को सबमिट किया जिस पर अमल कर हिन्दुस्तान की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली की जा सके. इसके बाद सर अली इमाम से मिलकर सच्चिदानंद सिन्हा ने केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उन्हें राज़ी किया क्योंकि उस समय अली इमाम अकेले हिन्दुस्तानी थे, जो इतने ऊंचे पद पर थे. इसका असर यह हुआ कि 12 दिसम्बर 1911 को अंग्रेज़ी हुकूमत ने बिहार व उड़ीसा के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल का एलान कर दिया.

धीरे-धीरे इनकी मुहिम रंग लाई और हिन्दुस्तान की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली होने से बंगालियों की एक तरफ़ा दादागिरी में काफ़ी कमी आई और आख़िरकार 22 मार्च 1912 को बिहार बंगाल से अलग होकर एक ख़ुदमुख़्तार रियासत हो गया.

26-28 दिसम्बर 1912 को बांकीपुर पटना में राय बहादुर रघुनाथ मधोलकर की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के 27वें सेशन के स्वागत कमिटी के जेनरल सेक्रेट्री का पद सच्चिदानंद सिन्हा ने ही संभाला था. 1916 से 1920 तक बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष रहे.

डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा 1899 से 1920 तक कांग्रेस के सदस्य रहे और उन्होंने होम रूल लीग आन्दोलन में खुलकर हिस्सा लिया. 1914 में कांग्रेस के डेलीगेट के तौर पर युरोप के दौरे पर गए. (हालांकि 1927 और 1933 में अपने निजी ख़र्चे पर युरोप के दौरे पर भी गए.)

इसी बीच 1918 में सच्चिदानंद सिन्हा ने सैय्यद हसन इमाम के साथ मिलकर एक अंग्रेज़ी अख़बार “सर्चलाईट” निकाला क्योंकि उनके निगरानी में चलने वाला “हिन्दुस्तान रिव्यू” फंड की कमी के वजह से बंद हो गया था.

1921 में डॉ. सिन्हा अर्थ सचिव और क़ानून मंत्री 5 साल के लिए बनाए गए और इस तरह वो पहले हिन्दुस्तानी बने जो इस पद पर पहुंचे. इसी दौरान वो पटना विश्वविद्यालय के उप-कुलपति पद पर नियुक्त हुए और इस पद पर वो आठ साल तक रहें.

डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा द्वारा अपनी पत्नी स्वर्गीया राधिका सिन्हा की याद में सिन्हा लाइब्रेरी की बुनियाद 1924 मे डाली गई. डॉ. सिन्हा ने इसकी स्थापना लोगों के मानसिक, बौद्धिक एवं शैक्षणिक विकास के लिए की थी.

डॉ. सिन्हा ने 10 मार्च 1926 को एक ट्रस्ट की स्थापना कर लाइब्रेरी के संचालन का ज़िम्मा उसे सौंप दिया. इस ट्रस्ट के सदस्यों में माननीय मुख्य न्यायाधीश, मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री, पटना विश्वविद्यालय के उप-कुलपति और उस समय के अन्य कई गणमान्य व्यक्ति आजीवन सदस्य बनाए गए.

डॉ. सिन्हा को कोई औलाद नहीं थी. उन्होंने अपने मित्र के बेटे को गोद लिया था. उनके दत्तक पुत्र अवैतनिक सचिव बनाए गए. ट्रस्ट डीड में इस बात की व्यवस्था की गई कि परिवार का सदस्य ही सचिव बने और सारे कार्यो का संचालन वही करे.

1929 को दिल्ली में ऑल इंडिया कायस्थ कांफ़्रेंस डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में संपन्न हुई.

डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा ने एक किताब दो जिल्द में लिखी जो Eminent Behar Contemporaries और Some Eminent Indian Contemporaries के नाम से 1944 में प्रकाशित हुई.

9 दिसम्बर 1946 को जब भारत के लिए संविधान का निर्माण प्रारंभ हुआ तो तजुर्बा और क़ाबिलयत को नज़र में रखते हुए डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा गठित सभा के अध्यक्ष बनाए गए.

दुर्भाग्य से जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुई तब उनकी तबियत काफ़ी ख़राब हो गई. तब उनके हस्ताक्षर के लिए मूल प्रति को दिल्ली से विशेष विमान से पटना लाया गया. 14 फ़रवरी 1950 को इन्होंने संविधान की मूल प्रति पर डॉ. राजेंद्र प्रासाद के सामने दस्तख़त किया. इस समय वो भारत के सबसे बुज़ुर्ग लीडर थे.

6 मार्च 1950 को 79 साल की उम्र में डॉ सच्चिदानंद सिन्हा साहेब की मौत हो गई.

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