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हकीम अजमल खान : आख़िरी निशानी भी अब ख़तरे में, कौन है ज़िम्मेदार?

Md Umar Ashraf for BeyondHeadlines

आज 29 दिसम्बर है. आज ही के दिन हिन्दुस्तान की जंग-ए-आज़ादी के अज़ीम रहनुमा, जामिया मिल्लिया इस्लामिया व तिब्बिया कॉलेज के संस्थापक और भारत में युनानी एवं आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को ज़िन्दा करने वाले हकीम मोहम्मद अजमल खान इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह कर चले गए.

आज यौम-ए-वफ़ात पर दिल्ली के क़रोलबाग़ के क़रीब पंचकुआं रोड स्थित हज़रत रसूलनुमा के अहाते में हकीम अजमल खान की मौजूद क़ब्र पर हाज़िरी देने का मौक़ा मिला. यहां इन्हें 29 दिसम्बर 1927 को वालिद और दादा की क़ब्र के पास दफ़न किया गया था. लेकिन हैरान कर देने वाली बात ये है कि हिन्दुस्तान की जंग-ए-आज़ादी के इस अज़ीम रहनुमा की आख़िरी निशान यानी उनकी क़ब्र अब ख़तरे में हैं. क़ब्र के ऊपर मकान है. यानी क़ब्र के अंदर लोग रह रहे हैं.

जैसे ही मैं दरवाज़ा के अंदर पहुंचा तो देखा कि उनकी क़ब्र के बग़ल में एक बच्चा कम्बल ओढ़ सोया हुआ है. बग़ल में एक महिला हीटर पर रोटी बना रही हैं. जैसे ही मैंने कहा कि मुझे फ़ातिहा पढ़ना है तो उन्होंने उस बच्चे को उठा दिया. एक दूसरी बुज़ुर्ग महिला ने फ़ौरन एक बच्चे को दूध लाने को भेजा ताकि वो मेरे लिए चाय बना सकें. घर के अंदर टेप-रिकार्डर पर क़ुरान की आयत चल रही थी.

जब मैंने उन्हें बताया कि आज हकीम साहब की यौम-ए-वफ़ात है. तब महिला ने कहा कि हमें क्या पता? पहले तो लोग आते भी थे. अब 5-6 महीने में कोई आ जाता है.

महिला ने बताया कि वो यहां क़ुरानख़ानी करवाती हैं. ख़ुद इस जगह की ख़िदमत करती हैं. जब मैंने उनसे पूछा कि हकीम साहब कौन हैं? तो उन्होंने सीधे कोई जवाब नहीं दिया, पर ये बताया कि कोई बहुत बड़े आदमी थे.

हकीम अजमल ख़ान के दादा और वालिद के क़ब्र की तरफ़ इशारा कर उन्होंने बताया कि इस जगह कोई दस से अधिक क़ब्र हैं पर हमने किसी को शहीद नहीं किया; सबको बचा कर रखा है. इस जगह हम कई दशक से रह रहे हैं. हमारी दो पीढ़ी यहीं पैदा हुई है.

इसी मकान में रह रहे इमरान बताते हैं कि इस इलाक़े में अतिक्रमण हो रहा था तब हज़रत रसूलनुमा दरगाह के मुतवल्ली ने उनके दादा को यहां बसाया. दादा  हज़रत रसूलनुमा दरगाह से मुरीद थे. हम लोग उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर से यहां आए हैं. 

इमरान कहते हैं कि इस जगह की देखभाल उनका परिवार ही करता है और यहां पर ये मकान हकीम साहब के किसी रिश्तेदार की इजाज़त से बनाया है.

उनके अनुसार एक बार दिल्ली के उस समय की मुख्यमंत्री यहां आई थीं; पर लोगों ने उनका साथ नहीं दिया. जिस वजह से इस जगह का कोई विकास नहीं हो पाया है.

वो आगे बताते हैं कि साल में कुछ ही लोग यहां आते हैं. किसी के तरफ़ से कभी कोई भी मदद नहीं मिली.

कौन थे हकीम अजमल खान?

हिन्दुस्तान में आयुर्वेद और तिब्ब-ए-यूनानी को ज़िन्दा करने वाले अज़ीम शख़्स हकीम मोहम्मद अजमल ख़ान शायर, लेखक, मुजाहिद, हाफ़िज़, आलिम, सियासतदां, प्रोफ़ेसर और सहाफ़ी भी थे. ये एक ऐसी शख़्सियत हैं जिनके बारे में कुछ कहना सूरज को चिराग़ दिखाने के मानिन्द है.

पूरी दुनिया में यूनानी तिब्ब का डंका बजाने वाले हकीम अजमल ख़ान आज़ादी के मतवाले थे. इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने और मुस्लिम लीग से भी जुड़े. असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया और खिलाफ़त तहरीक के क़ायद भी थे.

11 फ़रवरी 1868 को दिल्ली में पैदा हुए हकीम अजमल ख़ान ने सियासत की तो उसे उसकी उंचाई तक पहुंचाया और हिन्दुस्तान के अकेले ऐसे शख़्स बने जो ऑल इंडिया नेशनल कांग्रेस, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, हिन्दु महासभा और ऑल इंडिया ख़िलाफ़त कमिटी के अध्यक्ष भी रहे.

यूनानी तिब्ब के देसी नुस्ख़े की तरक़्क़ी और उसके प्रचार-प्रसार में काफ़ी दिलचस्पी लेते हुए रिसर्च और प्रैक्टिस को बढ़ावा देने की नियत से तीन इदारों की बुनियाद डाली. दिल्ली में सेंट्रल कॉलेज, हिन्दुस्तानी दवाख़ाना और तिब्बिया कॉलेज, जिसे आजकल आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज के नाम से जाना जाता है.

हकीम साहब को पढ़ने-पढ़ाने का इतना शौक़ था कि पहले तो उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सटी को आगे ले जाने में काफ़ी दिलचस्पी ली, पर जब बात आई मुल्क और क़ौम की तो उन्होंने अलीगढ़ में ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया की बुनियाद रखी और 22 नवम्बर 1920 को जामिया के पहले चालंसर बने और अपनी मौत तक इस पद पर बने रहे.

उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का अाख़िरी दौर जामिया मिल्लिया इस्लामिया को़ दे दिया. 1925 में उन्हीं का फ़ैसला था कि जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली ले जाया जाए. उन्होंने ही तिब्बिया कॉलेज के पास बीडनपुरा, क़रोलबाग में जामिया को बसाया.

इनके बारे में मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने कहा था कि तिब्बिया कॉलेज हकीम साहब की जवानी की औलाद है और जामिया मिल्लिया उनके बुढ़ापे की. और ये कहा जाता है कि वक़्त के साथ-साथ बुढ़ापे की औलाद से बाप की मुहब्बत में इजाफ़ा होता जाता है.

हकीम अजमल साहब ने खुद जामिया के बारे में कहा था कि जहां हमने एक ओर सच्चे मुसलमान पैदा करने की कोशिश की, वहीं देश सेवा की भावना भी जागृत की. यहां इस बात का ख़्याल रखा गया है कि हिन्दू छात्र इस्लामियात को जानें तथा मुस्लिम छात्र हिन्दू रीति-रिवाज से नावाकिफ़ न रहें.

आख़िर क्यों भूल गई कांग्रेस? कौन है ज़िम्मेदार?

हैरान कर देने वाली बात ये है कि कल कांग्रेस अपना फाउंडेशन डे मना रही थी; पर इस कांग्रेस ने कभी अपने इस अध्यक्ष की सुध लेने को नहीं सोची. हालांकि ज़िम्मेदार हम भी हैं. हमने भी कभी इन्हें याद नहीं किया. हद तो ये है कि जिस जामिया मिल्लिया इस्लामिया की बुनियाद इन्होंने डाली थी; उस जामिया ने भी इन्हें याद नहीं किया.

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