India

क्या इस वक़्त राहुल भी यही सोच रहे होंगे?

By Ashish Bhardwaj

कहते हैं इतिहास खुद को दुहराता है. कभी संकट की शक्ल में तो कभी हास्य की तरह.

बात अस्सी के दशक के आख़िरी सालों की है. राजीव गाँधी लोकसभा में विपक्ष के नेता थे. उनके प्रधानमंत्रित्व के दौरान उस वक़्त का मीडिया उन्हें बहुत पसंद नहीं करता था. उनके सीधे-सपाट और रूखे जवाब मीडिया को रास नहीं आते थे. चुनाव में हार हुई और राजीव विपक्ष में जा बैठे.

अगस्त 1990 में एक मैगज़ीन, जो उन्हें लेकर आशंकित रहता था, ने लिखा कि जब राजीव गाँधी सामने बैठे हों तो उन्हें ना पसंद कर पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है. ज़ाहिरन मीडिया के सुर बदले थे और राजीव का व्यवहार. वो अब स्वीकार्य हो चुके थे.

आज फिर से कमोबेश वही मंज़र नज़र आ रहा है और इसके मुख्य किरदार हैं राजीव गाँधी के बेटे और कांग्रेस के मौजूदा अध्यक्ष राहुल गाँधी.

एक वक़्त नासमझ, अपरिपक्व और अव्यावहारिक कहे जाने वाले राहुल स्वीकार्य होते नज़र आ रहे हैं. कांग्रेस उनके पीछे गोलबंद और अन्य विपक्षी दल उनके साथ आ रहे हैं.

इस बदलाव, इस पैराडाइम शिफ्ट के पीछे एक लम्बी कहानी है. 1970 में जन्मे राहुल जब मात्र 14 साल के थे तो उनकी दादी इंदिरा गाँधी की निर्मम हत्या कर दी गई. जब 21 के हुए तो सर से पिता का साया जाता रहा. राजीव गांधी को लिट्टे ने बम से उड़ा दिया था. जब 34 के हुए तो पहला चुनाव लड़ा और अमेठी से भारी जीत दर्ज़ की. 37 की उम्र में वो कांग्रेस के महासचिव बने और इसके 10 साल बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष.

सियासी सफ़र के आगाज़ से ही राहुल को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा. विपक्ष तो था ही, पार्टी के भीतर भी आलोचक कम नहीं थे. बेहद सुनियोजित तरीक़े से उनके नाम के साथ ‘पप्पू’ नाम चस्पा कर दिया गया. ये उनकी मज़बूती ही कही जाएगी कि उन्होंने कभी इसे दिल पर नहीं लिया. हाल में जब मौक़ा आया तो इस बात का ज़िक्र करते हुए संसद में पीएम मोदी के गले लग आए. कहा वो नफ़रत की नहीं, प्यार की बात करते हैं.

सियासी जानकार मानते हैं कि राजनीति ट्रीजरी बेंच से नहीं, अपोजिशन के बेंच से बेहतर सीखी जाती है. राहुल के साथ भी कमोबेश यही हुआ है. 2014 में कांग्रेस के अपमानजनक पराजय के बाद राहुल 56 दिनों तक नज़र नहीं आए और जब आए तो क्या खूब नज़र आए.

रामलीला मैदान में 1 लाख से ऊपर किसान जमा थे और राहुल गाँधी गरजे कि मोदी जी ने अपने उद्योगपति दोस्तों से हज़ारों करोड़ लिए हैं और अब आपकी ज़मीन से उसकी भरपाई की जाएगी. उन्होंने यह भी कहा कि जब भी किसानों के हक़ की लड़ाई की बात होगी, आप मुझे अपने क़रीब पाएंगे.

केवल ऐसा भी नहीं कि राहुल विपक्ष में ही बाग़ी रहे. 2013 में जब उनकी पार्टी की सरकार दाग़ी नेताओं पर अध्यादेश लाने वाली थी, उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस करके उस अध्यादेश की कॉपी सरेआम फाड़ दी. राहुल ने इस अध्यादेश को कूड़ा बताया. सरकार आगे नहीं बढ़ पाई. इससे पहले 2011 में वो मोटर साइकिल पर सवार हो भट्टा परसौल पहुँच गए जहाँ किसान अपनी ज़मीन छीने जाने का विरोध कर रहे थे.

बहरहाल, राहुल के लिए आगे का सफ़र अभी भी अनिश्चित और अकेलेपन से भरा है. उन्हें नरेंद्र मोदी के बरक्स खुद को खड़ा करना है. उन्हें संगठन के विस्तार और मज़बूती पर बराबर ध्यान देना है. उन्हें विपक्ष को ना सिर्फ़ साथ लाना है बल्कि उनका साथ बनाए रखना है. उन्हें अवकाश की बजाए आंदोलन की मुद्रा में रहना है.

अपने पिता की ही तरह उनमें भी अपनी ग़लती मान लेने का हिम्मत है. अगस्त 1990 में ही उसी मैगज़ीन के इंटरव्यू के दौरान राजीव ने कहा था कि उनसे कुछ ग़लतियां हुई हैं. फिर हल्के से मुस्कुरा कर बोले कि आपलोग अब मेरी तारीफ़ अब कर रहे हैं. यही काम पहले क्यों नहीं किया?

क्या इस वक़्त राहुल भी यही सोच रहे होंगे?

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]