By Dr. Tarannum Siddiqui
अगर हम लड़कियों की तालीम की बात करें तो पाते हैं कि लड़कियां बहुत संघर्ष के बाद आज इस मुक़ाम पर पहुंची हैं. एक वक़्त लड़कियों को पढ़ने की आज़ादी मिली भी तो उन्हें लिखने की आज़ादी नहीं थी.
समाज की यह सोच होती थी कि अगर वह लिखना सीख लेगी तो वह प्रेम-पत्र लिखने लगेगी इसलिए उनको लिखना नहीं सीखाया जाता था. फिर आख़िरकार उन्होंने कोयले से छुपाकर लिखना सीखा.
ऐसे माहौल में जब कोई लड़कियों की पढ़ाई के लिए काम करे और उनके लिए स्कूल खोले तो बहुत हिम्मत और साहस की बात थी.
ऐसे में इसी समाज से दो महिलाएं निकलती हैं जो दोनों दोस्त हैं. एक दूसरे का सहारा बनती हैं. और एक दूसरे के साथ लड़कियों की तालीम पर काम करती हैं. इसमें हम किसी के काम को कम नहीं आंक सकते क्योंकि दोनों के काम सराहनीय हैं. ये दो दोस्त हैं —फ़ातिमा शेख़ और सावित्रीबाई फुले…
आज यहां हम फ़ातिमा शेख़ की बात करेंगे क्योंकि 9 जनवरी यानी आज ही के दिन उनका जन्म हुआ था. जब सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले को बच्चियों को पढ़ाने की वजह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा. तब फ़ातिमा शेख़ और उनके भाई उस्मान शेख़ ने ही उन्हें सहारा दिया.
फ़ातिमा शेख़ 1856 तक उन सभी स्कूलों में पढ़ाती रही जो उन्होंने फुले दंपत्ति के साथ मिलकर खोले थे. लेकिन 1856 के बाद उनकी ज़िन्दगी से जुड़ी हुई कहानियां लोगों को नहीं मिल पाई हैं.
बता दें कि पुणे की रहने वाली फ़ातिमा शेख़ के भाई उस्मान शेख़ के घर में ही उनकी मदद से सावित्रीबाई फुले व फ़ातिमा शेख़ ने 1848 में पहला बालिकाओं के लिए स्कूल खोला था. इसी स्कूल में दोनों मिलकर पिछड़ी जातियों के बच्चों को तालीम देने का काम करते रहे. ये वो दौर था जब महिलाओं को तालीम से महरूम रखा जाता था. पिछड़ी जातियों पर तालीम के दरवाज़े बंद थे.
उस वक़्त के ऊंची जाति के सभी लोग इन लोगों के ख़िलाफ़ थे इनके कामों को रोकने के लिए उन्होंने भरपूर प्रयास किया, सामाजिक अपमान करके और सामाजिक बहिष्कार करके उन्हें रोकने की भी कोशिश की गई. ऊंची जाति के लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. उन्होंने फ़ातिमा और सावित्रीबाई पर पथराव किया और गाय का गोबर भी फेंका. लेकिन फ़ातिमा शेख़ दृढ़ता से खड़े होकर हर संभव तरीक़े से सावित्रीबाई फुले का समर्थन किया.
यानी हम कह सकते हैं कि आज से क़रीब 171 साल पहले फ़ातिमा शेख़ एक भारतीय महिला शिक्षिका थीं, जिन्होंने अपनी दोस्त सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर महिलाओं की तालीम की नीव डाली थी.
बता दें कि जब फुले दंपत्ति को उनके घर से निकाला गया तब फ़ातिमा शेख़ के भाई उस्मान शेख ने उन्हें अपने घर में रखा. उस्मान शेख़ ने फुले दंपत्ति को अपने घर की पेशकश की और 1848 में उसी घर के परिसर में एक स्कूल खोला गया. उस स्कूल का नाम “Indigenous library” था. वह दोनों महिलाएं उस समय के उच्च जाति के हिंदुओं के साथ-साथ रूढ़िवादी मुसलमानों के ख़िलाफ़ भी काम कर रही थीं.
फ़ातिमा शेख़ ने सावित्रीबाई फुले के साथ उसी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया. सावित्रीबाई और फ़ातिमा, सगुना बाई भी साथ थीं, जो बाद में शिक्षा आंदोलन में एक और नेता बन गईं. फ़ातिमा शेख़ के भाई उस्मान शेख़ भी ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के आंदोलन से प्रेरित थे. और इन्होंने हर तरह इनका साथ दिया.
इन लोगों ने मिलकर पांच स्कूल खोलें. वैसे फ़ातिमा के बारे में इतिहास में कम जानकारी मिलती है. फ़ातिमा के भाई के अलावा उनके जीवन में किसी पुरुष का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जिससे यह भी कहा जा सकता है शायद उन्होंने विवाह नहीं किया था और अपना सारा जीवन समाज सुधार और महिला शिक्षा में लगा दिया, जो इस तथ्य का संकेत है कि उनका जीवन 19वीं शताब्दी के जीवन की पितृसत्ता और रूढ़िवादी के ख़िलाफ़ एक मज़बूत आवाज़ थी.
दलितों और मुसलमानों की एकता पर इन दो महान महिलाओं ने हमेशा ज़ोर दिया, जिन्होंने महिला सशक्तिकरण के लिए दरवाज़े खोले हैं.
फ़ातिमा शेख़ का जीवन का भी एक बड़ा महत्व है, क्योंकि उन्होंने शायद दलितों और मुसलमानों के पहले संयुक्त संघर्ष को चिह्नित किया था. उत्पीड़ित समूहों के बीच एकता ने हमेशा मुक्ति के संघर्ष को निर्देशित किया है. जैसा कि बाद में “चलो तिरुवनंतपुरम”, और “दलित अस्मिता यात्रा” जैसे आंदोलनों में देखा जा सकता है. महिला शिक्षा के लिए फ़ातिमा शेख़ का जीवन एक प्रारंभिक अग्रदूत था.