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क्या सवर्णों के लिए 10% कोटा भाजपा से ज़्यादा लोजपा के लिए ज़रूरी?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published January 16, 2019
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9 Min Read
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By Md Tauhid Nasir

भारत में जाति–आधारित आरक्षण राजनैतिक तौर पर एक ज्वलनशील मुद्दा है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि सरकार ने आरक्षण–संबंधी कोई पहल की हो और उसके विरोध में कोई हिंसक प्रदर्शन नहीं हुआ हो.

90 के दशक में मंडल आयोग के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध–प्रदर्शन का प्रमाण हमारे सामने है, जो अब तक का सबसे हिंसक आरक्षण विरोधी प्रदर्शन माना जाता है. इसमें 63 से अधिक लोगों की मौत हुई. 160 को आत्महत्या करने से बचाया गया था.

अब लगभग तीन दशक बाद आरक्षण का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर आ गया है. वह भी तब जब आम चुनाव के लिए 80 दिनों से कम का समय बचा हो.

संसद द्वारा सवर्णों के लिए केन्द्र सरकार की नौकरियों और निजी सहित सभी शैक्षणिक संस्थानों में 10 फ़ीसद आरक्षण का प्रस्ताव पारित होने के बाद ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि इसके विरोध में हिंसक प्रदर्शन हो सकते हैं. लेकिन शुक्र है कि न तो कोई विरोध-प्रदर्शन हुआ और न ही किसी उच्च शिक्षा संस्थानों जैसे एम्स, आईआईटी या आईआईएम के किसी छात्र ने ये कहा कि आरक्षण से देश में ‘मेरिट’ का गला घोंटा जा रहा है.

सवर्ण आरक्षण क्यों?

भारत में सवर्णों की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 12 फ़ीसद से भी कम है. बावजूद इसके सरकारी नौकरियों व सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का कोई समुदाय अगर सबसे अधिक लाभार्थी है तो वह सवर्ण है.

जबकि दूसरी तरफ़ सच्चाई ये है कि मंत्रालयों, विभागों या संवैधानिक निकायों में ओबीसी कर्मचारियों का प्रतिशत 12 से भी कम है. एससी-एसटी का प्रतिशत और भी ज़्यादा हतोत्साहित करने वाला है.

आरटीआई से हासिल एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ यह बताता है कि देश के कुल 496 विश्वविद्यालय के कुलपतियों में से सिर्फ़ 6 अनुसूचित जाति, 6 अनुसूचित जनजाति और 36 ओबीसी श्रेणियों के हैं. सरकारी नौकरियों के उच्चतर स्तर में भी आंकड़ें कमोबेश एक ही जैसे ही हैं.

अब प्रश्न उठता है कि सभी समुदायों में सबसे संपन्न होने के बावजूद क्या सवर्णों को वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता है या फिर ये हाल के विधानसभा चुनावों में सवर्णों के आक्रोश के कारण बीजेपी की जो हार हुई है, वह 2019 के आम चुनाव में न हो, इसके लिए एक राजनीतिक स्टंट है?

इस बात की पुष्टि खुद लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान एक अंग्रेज़ी अख़बार ‘द संडे एक्सप्रेस’ के साथ एक साक्षात्कार में कर चुके हैं. उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा —“यह सच है कि हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार के बाद हम थोड़े चिंतित थे.”

यही नहीं, तीन राज्यों के चुनावी नतीजे आने के बाद के कई विश्लेषणों से पता चलता है कि उच्च जातियों के मतदाता बीजेपी से इसलिए नाराज़ थे कि सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन कि एससी/एसटी अधिनियम का दुरुपयोग मनमाने ढंग से गिरफ्तारी के लिए किया जा रहा है, को बहाल करने में मोदी सरकार न सिर्फ़ विफल रही, बल्कि पासवान के दबाव में इस अधिनियम को और मज़बूत करने के लिए एक संशोधन लाकर इसे संसद से पारित भी करवा दिया. इससे सवर्ण, जो प्रधानमंत्री मोदी से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे, ठगा और आहित महसूस कर रहे थे.

बीजेपी के ख़िलाफ़ उच्च जाति के मतदाताओं में गुस्से का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश की 22 और राजस्थान की 15 विधानसभा सीटों पर जीत के अंतर से अधिक वोट नोटा को मिले.

दरअसल, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नतीजों ने मोदी सरकार को ये सोचने पर मजबूर किया कि अगर तत्काल सवर्णो की चिंता को दूर नहीं किया गया, तो 2019 में सत्ता में वापसी करना कठिन होगा.

राजग से बाहर निकलने की संभावना

रामविलास पासवान एससी/एसटी अधिनियम में छेड़छाड़ के विरूद्ध एक अभियान में मोदी सरकार पर तंज कसते हुए कहा था कि दलितों के प्रति सरकार अपनी धारणा को बदले, सवर्ण के आक्रोश के केंद्र में रहा.

भारतीय राजनीति के मौसम वैज्ञानिक के नाम से प्रसिद्ध रामविलास पासवान बिहार के चुनावी समीकरण को देखते हुए जल्द ही कोई बड़ा फेरबदल कर सकते हैं.

राहुल गांधी के लिए चिराग़ पासवान की सराहना, सरकार से विमुद्रीकरण के लाभों के ब्योरा मांगना, राफेल पर विपक्ष की संयुक्त संसदीय समिति की मांग का समर्थन करना, लोजपा की एक सोची–समझी रणनीतिज्ञ चाल का हिस्सा था, जिसके अन्तर्गत लोजपा राजग से बाहर निकलने का सम्मानजनक संभावना तलाश रही थी.

लेकिन आधुनिक भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने लोजपा के इस रणनीतिज्ञ दबाव और बिहार में इसके महत्व को देखते हुए पार्टी के लगभग सभी मांगों को मानकर बिहार में राजग को एक बार फिर टूटने से बचा लिया.

अमित शाह भली-भांति जानते हैं कि उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी के बाद बीजेपी अब बिहार में अपना एक और सहयोगी नहीं खो सकती.

याद रहे, कुशवाहा और मांझी दोनों पिछड़ी और अति–पिछड़ी जाति के बड़े नेता हैं, जिनका संयुक्त वोट शेयर लगभग 10 प्रतिशत से ज़्यादा है, जो राज्य के किसी भी चुनाव के लिए महत्वपूर्ण है.

लड़ाई क़िला बचाने की

यह एक दुखद वास्तविकता है कि हिन्दी परदेशों में जातिय समीकरण राजनीति में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं और विकास का एजेंडा पीछे रह जाता है. सभी राजनीतिक दल प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्रों की जातिय समीकरण को देखते हुए अपने उम्मीदवार को उतारते हैं.

अगर बिहार में 2015 के विधानसभा चुनावों के जातिगत वोटिंग पैटर्न को देखें तो जहां एक ओर अग्रिम जाति ठोस रूप से भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के साथ खड़ी थी. वहीं दूसरी ओर यादव और मुसलमान राजग के चिर-प्रतिद्वंदी आरजेडी के नेतृत्व वाला महागठबंधन के साथ था. 

चुनाव से पहले माना जा रहा था कि राजग को पूर्ण–बहुमत मिल जाएगा, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और कई अन्य कैबिनेट मंत्रियों के ताबड़तोड़ अभियानों और जनसभाओं के बावजूद राजग को हार का सामना करना पड़ा.

ऐसे में यदि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह बिहार में भी असंतुष्ट सवर्ण मतदाता अपने आक्रोश प्रकट करते हुए वोट डालें तो बीजेपी के बाद अगर सबसे ज़्यादा किसी पार्टी को नुक़सान उठाना पड़ सकता है तो वह है लोजपा.

लोजपा के लिए स्थिति उस वक़्त और भी कठिन हो गई, जब पिछड़ी जाति के दो प्रमुख नेता कुशवाह और मांझी संयुक्त रूप से 10 फ़ीसद से अधिक वोट शेयर के साथ महागठबंधन में शामिल हो गए.

लोजपा की घबराहट का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि रामविलास पासवान के छोटे भाई व लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस ने पहले ही मान लिया कि मांझी और कुशवाहा के चले जाने से बिहार में राजग को बड़ा झटका लगा है.

मुद्दे की गंभीरता को समझते हुए लोजपा जो दलितों व अल्पसंख्यकों के हितों का प्रतिनिधित्व करने और उनकी रक्षा करने का दावा करती है, संसद में सवर्णों के लिए 10 फ़ीसद आरक्षण का पुरज़ोर समर्थन किया, ताकि अग्रिम जातियों के गुस्से का राजनीतिक परिणामों से बचा जा सके. लेकिन ये कितना कारगर साबित होगा ये आने वाला समय ही बताएगा.

(लेखक एक स्वतंत्र स्तंभकार हैं.)

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