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तो क्या एएमयू को दांव पर लगाकर छात्र नेता कर रहे हैं अपनी नेतागिरी?

अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines 

नए-नए राष्ट्रवादी चैनल के ज़रिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को बदनाम करने के लिए खड़े किए गए हंगामे के बाद पूरे हफ़्ते भर चला छात्रों का आन्दोलन अब ख़त्म हो चुका है. कैम्पस में मामूल की ज़िन्दगी बहाल हो गई है. लेकिन इस हंगामे ने जो ज़ख्म पहुंचाया, उसका रिसना जारी है, जो मुद्दतों रुलाएगा. 

छात्र संघ सचिव की मानें तो तलबा की तमाम मांगे मान ली गई हैं. पुलिस ने हंगामा करने वालों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कर ली है. 14 छात्रों पर लगे राजद्रोह की धाराएं हटा ली गई हैं. पुलिस ने ये भी भरोसा दिलाया है कि छात्रों पर लगी दूसरी तमाम धाराएं भी जल्द वापस ले ली जाएंगी. ज़िला अधिकारी ने छात्रों के ऊपर हो रही पुलिसिया कार्यवाही को पूरी तरह से रोक देने और गिरफ्तार किए छात्रों को जल्द से जल्द रिहा करने का यक़ीन दिलाया है.

इस तमाम वादों और भरोसे के बीच जेल भेजे गए बीए फर्स्ट ईयर के छात्र तालिब की ज़मानत अर्ज़ी पहले तो सीजेएम कोर्ट से ख़ारिज हुई. लेकिन छात्रों के भारी दबाव के बाद अदालत ने शुक्रवार को ज़मानत अर्ज़ी स्वीकार कर ली. लेकिन अब इस मामले में घायल एक व्यक्ति के फ्रैक्चर पाए जाने पर मुक़दमे में धारा —325 को भी जोड़ दिया गया है. जिसके चलते रिहाई नहीं हो सकी है. 

एएमयू टीचर्स एसोसिएशन के सचिव नजमुल इस्लाम ने BeyondHeadlines से बातचीत में कहा कि इस पूरे मामले में पुलिस ने एकतरफ़ा कार्रवाई की है. छात्रों की ओर से एफ़आईआर अभी तक दर्ज नहीं की गई है. हालांकि छात्रसंघ सचिव हुज़ैफ़ा आमिर का कहना है कि हमारी तरफ़ से एफ़आईआर दर्ज हो चुकी है.

बता दें कि ये एफ़आईआर एएमयू प्रशासन की ओर से प्रोक्टर कार्यालय के सुरक्षा अधिकारी अज़ीम अख्तर की ओर से दर्ज की गई है. इस एफ़आईआर में 6 लोग नामज़द और एक अन्य छात्र और सियासी नेता को शामिल किया गया है.

नामज़द लोगों में अजय सिंह, पवन जादौल, निशित शर्मा, मनीष कुमार, अमन शर्मा और लोकेश फौजदार के नाम शामिल हैं. सातवें नम्बर पर एक अज्ञात है. लेकिन इसी एफ़आईआर में सुरक्षा अधिकारी अज़ीम अख्तर की तरफ़ से ये भी कहा गया है कि दो लोगों को सामने आने पर पहचान सकता हूं. एक के पास तमंचा था. हैरान करने वाली बात ये भी है कि तमांचा लिए व्यक्ति की फोटो पहले ही सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी है.

यहां ये भी बताते चलें कि इस एफ़आईआर में धारा 147, 323 और 504 लगाई गई है.

यहां के एक छात्र का कहना है कि गंभीर बात ये है कि एक ही घटना की दो एफ़आईआर को देख लीजिए. एक तरफ़ एएमयू के छात्रों पर कैसे-कैसे आरोप और धाराएं लगी हैं, दूसरी तरफ़ पुलिस ने क्या किया. इन दोनों एफ़आईआर को देखने के बाद कोई भी कह सकता है कि भाजयूमो का ज़िलाध्यक्ष, एएमयू प्रशासन से अधिक मज़बूत है और पुलिस ने भी ये साबित कर दिया है कि उसके पावर के सामने एएमयू की कोई औक़ात नहीं है.

यहां के छात्रों का ये भी कहना है कि एफ़आईआर में 14 छात्रों के अलावा अन्य एएमयू छात्रों को भी आरोपी बनाया गया है, लेकिन ये अन्य कितने हैं, इसे पुलिस ने स्पष्ट नहीं किया है. छात्रों को इस बात का डर है कि इन ‘अन्य’ के नाम पर पुलिस इन्हें परेशान करेगी, क्योंकि इससे पहले की घटना में भी ऐसा एक बार हो चुका है. ‘अन्य’ के नाम पर 300 छात्रों को परेशान किया गया था.

एएमयू टीचर्स एसोसिएशन पर उठते सवाल

इस विवाद की आग भले ही बुझ गई है, लेकिन इस आग की राख में अभी भी चिंगारी सुलग रही है और कई सवाल पनप रहे हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि इन सवालों का जवाब न एएमयू प्रशासन देना चाह रहा है और न ही छात्र संघ. यहां का टीचर्स एसोसिएशन भी इन सवालों की अनदेखी करने में पीछे नहीं है.

यहां सबसे पहला सवाल तो यही है कि इतने बड़े संकट के बावजूद आख़िर क्यों यहां के टीचर्स को अपनी जनरल बॉडी मीटिंग बुलाने में एक हफ़्ते लगे? जबकि मामला इतना गंभीर था कि ये मीटिंग पहले ही हो जानी चाहिए थी.

बता दें कि 12 फ़रवरी की घटना के बाद 19 फ़रवरी को AMUTA के सदस्यों ने अध्यक्ष व सचिव को बार-बार लताड़ा और कई सवाल उठाए. बावजूद इसके जब AMUTA ने अपना रिज़ोलूशन तैयार किया तो सवालों को ही ग़ायब कर दिया.

जेनरल बॉडी मीटिंग में कुछ टीचर्स ने इस बात पर भी चिंता जताई कि हर बार पुलिस हिन्दुत्ववादी उपद्रवियों की भीड़ को यूनिवर्सिटी सर्किल से आगे विश्वविद्यालय परिसर में क्यों घूसने देती है? उन्हें रोकती क्यों नहीं है? पुलिस हर बार मूकदर्शक क्यों बनी रहती है? अगर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में हालात और भी ख़राब हो सकते हैं.

सवाल ये भी है कि मुकेश लोधी का नाम एफ़आईआर में क्यों नहीं है? एएमयू प्रशासन उसका नाम क्यों छिपा रहा है? आख़िर वो उस समय कैम्पस में कर क्या रहा था? वीसी ऑफ़िस के सामने उसकी गाड़ी कैसे पाई गई? और फिर वही एफ़आईआर भी करता है और उसकी एफ़आईआर भी दर्ज हो जाती है. जब वो खुद को बाहरी व्यक्ति बता रहा है तो फिर उसे 14 लोगों के नाम कैसे पता चले? सबको कैसे जान रहा है? हैरान करने वाली बात ये है कि इन 14 छात्रों में कई छात्र उस दिन कैम्पस में मौजूद थे भी नहीं. एएमयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष मस्कूर उस्मानी ने दावा किया है कि वो घटना के समय दिल्ली में मौजूद थे. जामिया में चल रहे छात्रों के एक आन्दोलन को संबोधित कर रहे थे. 

इस मीटिंग में ये सवाल भी उठाया गया कि कैम्पस में कुछ मोटरसाईकिलें भी जलाई गईं. उन मोटरसाईकिलों का मालिक कौन है? अगर इनके मालिक कैम्पस के बाहर के लोग हैं तो ये सब मोटरसाईकिलें कैम्पस के अंदर कैसे आईं और उन मोटरसाईकिलों को किसने जलाया?       

तो क्या एएमयू को दांव पर लगाकर छात्र नेता कर रहे हैं अपनी नेतागिरी?

अब सवाल यहां के छात्र नेताओं से भी हैं. जिस कार्यक्रम को लेकर ये सारा विवाद हुआ, उसके बारे में कोई छात्र नेता बात नहीं कर रहा है. आख़िर ऐसा क्यों? ओवैसी को जो दावतनामा भेजा गया था, उसमें क्या लिखा है, इसे भी यहां के छात्र नेता मीडिया में शेयर करने से मना कर रहे हैं. लेखक ने खुद इस सिलसिले में एएमयू के कई छात्र नेताओं से इस प्रोग्राम की डिटेल शेयर करने की गुज़ारिश की, लेकिन किसी ने ऐसा नहीं किया.

छात्र संघ सचिव हुज़ैफ़ा आमिर से जब इस सिलसिले में बात की तो उन्होंने बताया कि उस दिन प्रोग्राम में राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल के आमिर रशादी, पीस पार्टी और कुछ संगठनों के लोग आए थे. यहां बता दें कि ये हुज़ैफ़ा आमिर, राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल के आमिर रशादी के बेटे हैं. और यही आमिर रशादी यूपी में महागठबंधन का विरोध भी कर चुके हैं. और फिर सोशल मीडिया पर इनकी बहन का मायावती के पैर छूते फोटो भी वायरल हो चुका है.

एएमयू के सेन्टर ऑफ़ एडवांस स्टडी इन हिस्ट्री के प्रोफ़ेसर मोहम्मद सज्जाद अपने फेसबुक टाईमलाईन पर यहां के छात्र नेताओं पर सवाल उठाते हुए लिखते हैं कि, ‘क्या असदुद्दीन ओवैसी ने यूनियन सेक्रेट्री की दावत क़बूल की थी? अगर हां, तो ऐसे पोस्टर, बैनर, हैंडबिल क्यों नहीं लगे थे? अगर नहीं, तो तलबा को गुमराह क्यों किया गया? अगर ये पार्लियामेंट्रियन डिबेट जैसी कोई इवेन्ट थी तो दूसरी पार्टियों के सांसद क्यों नहीं बुलाए गए? राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल की कितनी मुदाख़िलत है मौजूदा यूनियन की कारकर्दगियों में? क्या यूनियन सेकेट्री ने ओवैसी को बुलाने का फ़ैसला अपनी एक्ज़ीक्यूटिव की मीटिंग में लिया था?’

हैरान कर देने वाली बात ये भी है कि ये सारा विवाद क़ौम के जिस नेता के नाम पर शुरू हुआ, उनका कहीं कोई अता-पता नहीं है. जो हर बात पर ट्वीट करते हैं, उन्होंने इस मामले पर अब तक एक भी शब्द नहीं बोला? 

सवाल ये भी है कि आख़िर छात्रों को बार-बार ये कहने की ज़रूरत ही क्यों पड़ रही थी कि ओवैसी नहीं आ रहे हैं. क्या ओवैसी अपने ही देश में कहीं आ या जा नहीं सकते? क्या ये पूरी डिबेट बेमानी नहीं लगती? क्यों बीजेपी के द्वारा यह कहा गया कि ओवैसी आएंगे तो दंगा भड़केगा? क्या क्रिमिनल रिकॉर्ड वाले बीजेपी नेताओं से इलाक़े का माहौल ख़राब नहीं होता है? क्या क़ब्रिस्तान से निकाल कर मुस्लिम महिलाओं का बलात्कार करने की अपील करने वाले दंगा भड़काने का काम नहीं करते हैं?

और आख़िर सवाल उन अलमुनाई से भी है जो हर साल सर सैय्यद के नाम पर मुशायरे और कोरमे-बिरयानी की दावत करते हैं. आख़िर एएमयू के मुश्किल घड़ी में सिवाए सोशल मीडिया पर लिखने के किया क्या?

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