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क्या मुसलमानों की गर्दन पर चाकू चलाकर कन्हैया को सुरक्षित किया जा रहा है?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published March 14, 2019
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9 Min Read
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By Tarique Anwar Champarni

मौसम के रूख के साथ राजनीति का रूख भी बदलना शुरू हुआ है. जैसे-जैसे सर्दी से बसंत की तरफ़ बढ़ रहे हैं, तापमान भी बढ़ता जा रहा है. मौसम के साथ-साथ चुनाव की तारीख़ों की घोषणा के बाद राजनीति का तापमान भी बढ़ना शुरू हुआ है. टिकट एवं सीट बंटवारे को लेकर बैठक पर बैठक हो रहे हैं. गठबंधन को लेकर भी उधेड़-बुन शुरू है. सभी जाति-विशेष के नेता एवं मतदाता अपनी प्रतिनिधित्व को लेकर बेचैन हैं. छोटी-छोटी पार्टियां दांवा ठोककर मज़बूती के साथ अपना प्रतिनिधित्व मांग रही हैं. लेकिन बिहार में लगभग 20 प्रतिशत की आबादी वाले मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को समाप्त करने की लगातार कोशिश हो रही है.

सबसे मज़ेदार बात बेगूसराय लोकसभा सीट को लेकर है. बेगूसराय लेनिनग्राद के नाम से मशहूर है. बेगूसराय क्षेत्र कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ समझा जाता है. लेकिन यह एक भ्रम से अधिक कुछ भी नहीं है. अभी भी उसी भ्रम को आधार मानकर कम्यूनिस्ट पार्टी बेगूसराय पर अपनी दावेदारी पेश करती है. आज भी महागठबंधन में कम्यूनिस्ट पार्टी हिस्सेदार बनना चाहती है और बेगूसराय की सीट पर दावा ठोक रही है. जबकि बेगूसराय सीट मुसलमान समुदाय के हिस्से की सीट समझी जाती रही है. 

पूर्व में जदयू से डॉ. मोनाज़िर हसन सांसद निर्वाचित हुए हैं. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद की टिकट पर पूर्व विधान परिषद डॉ. तनवीर हसन मोदी लहर में भी मज़बूत लड़ाई लड़े थे. अभी महागठबंधन होने की स्थिति में कम्यूनिस्ट पार्टी की टिकट पर जेएनयू के पूर्व छात्रनेता कन्हैया कुमार की नज़र बेगुसराय सीट पर है. 

अभी तक यह भ्रम फैलाया जाता रहा है कि बेगूसराय कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ रहा है और इसलिए ही बेगूसराय को लेनिनग्राद के नाम से जानते है. मैं जब कम्यूनिस्ट पार्टी की बात कर रहा हूं तब सामूहिक रूप से सभी कम्यूनिस्ट पार्टी की बात कर रहा हूं. लेकिन स्वतन्त्रता से लेकर आज तक केवल 1967 के लोकसभा चुनाव में ही बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के योगेन्द्र शर्मा चुनाव जीतने मे सफल रहे थे. जबकि 1962 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय से आने वाले अख़्तर हाशमी, 1971 के लोकसभा चुनाव मे योगेन्द्र शर्मा और 2009 के लोकसभा चुनाव मे शत्रुघ्न प्रसाद सिंह कम्यूनिस्ट पार्टी की टिकट से दूसरे स्थान पर रहे थे. 

1977 के चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी के इन्द्रदीप सिंह 72096 मत, 1998 में रमेन्द्र कुमार 144540, 1999 के चुनाव में सीपीआई (एमएएल) के शिवसागर सिंह 9317 और 2014 के लोकसभा चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी के राजेन्द्र प्रसाद सिंह जदयु गठबंधन से 192639 मत प्राप्त करके तीसरे स्थान पर रहे थे. जबकि 1980, 1984, 1989, 1991, 1996, 2004 के लोकसभा चुनावों में कम्यूनिस्ट पार्टी बेगूसराय से अपना उम्मीदवार तक नहीं उतार सकी थी. फिर सवाल है कि बेगूसराय कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ कैसे हो गया?

बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत चेरिया बरियारपुर, साहिबपुर कमाल, बेगूसराय, मठियानी, तेघरा, बखरी और बछवाड़ा विधानसभा का क्षेत्र आता है. चेरिया बरियारपुर से केवल एक बार 1980 के विधानसभा चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सुखदेव महतो विधायक चुने गए थे. साहिबपुर कमाल विधानसभा क्षेत्र से अभी तक एक बार भी कम्यूनिस्ट पार्टी चुनाव जीतने में सफल नहीं रही है. बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र से आज़ादी के बाद से अब तक केवल तीन बार ही कम्यूनिस्ट पार्टी चुनाव जीतने में सफल रही है और आख़िरी बार कम्यूनिस्ट पार्टी के राजेन्द्र सिंह 1995 का विधानसभा चुनाव जीते थे. 

मठियानी विधानसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी तीन बार चुनाव जीतने में सफल रही है लेकिन सन 2000 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद आज तक कम्यूनिस्ट पार्टी यहां से चुनाव नहीं जीत सकी है. तेघरा विधानसभा क्षेत्र में कम्यूनिस्ट पार्टी लगातार 2010 से ही विधानसभा का चुनाव हार रही है. कम्यूनिस्ट पार्टी का पूर्ण रूप से दबदबा केवल दो विधानसभा क्षेत्रों क्रमशः बखरी और बछवाड़ा पर रहा है. लेकिन बखरी सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी आख़िरी बार 2005 मे चुनाव जीतने में सफल रही थी. जबकि बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार चार बार विधायक चुने गए हैं और आख़िरी बार 2010 का विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रहे थे. 

सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि वर्तमान विधानसभा में बिहार में कम्यूनिस्ट पार्टी के मात्र तीन विधायक हैं और तीनों में से एक भी बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से जीतकर नहीं आते हैं. यानी 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सात विधानसभा क्षेत्रों में से एक भी क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल नहीं रहे थे. प्रश्न फिर वही है कि जिस लोकसभा क्षेत्र में एक भी विधायक नहीं है वह कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ कैसे हो गया?

2014 के लोकसभा चुनाव में बेगूसराय से राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवार डॉ. तनवीर हसन को कुल 369892 मत प्राप्त हुए थे. जबकि जदयु समर्थित कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह को 192639 मत प्राप्त हुआ था. वही 2009 के लोकसभा चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी के शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को 164843 मत प्राप्त हुआ था. यदि कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा 2009 और 2014 में प्राप्त किए गए कुल मतों को एक साथ जोड़ भी देते है फिर भी डॉ. तनवीर हसन साहब द्वारा 2014 के मोदी लहर मे प्राप्त किए गए मतों से भी कम है.

उपरोक्त आंकड़ें यह बताने के लिए काफ़ी है कि बेगूसराय कभी भी कम्यूनिस्ट पार्टी का मज़बूत क़िला नहीं रहा है. बल्कि पूर्वी चम्पारण (मोतीहारी), नालंदा, नवादा, मधुबनी, जहानाबाद इत्यादि ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं, जहां से दो या दो बार से अधिक कम्यूनिस्ट पार्टी के सांसद निर्वाचित हुए हैं. जबकि बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से मात्र एक बार ही कम्यूनिस्ट पार्टी को सफलता प्राप्त हो सकी है. 

लेकिन प्रश्न यह है कि आख़िर कम्यूनिस्ट पार्टी क्यों बेगूसराय की सीट ही लेना चाहती है? जब कम्यूनिस्ट पार्टी सामाजिक न्याय और समानुपातिक प्रतिनिधित्व को लेकर इतना चिंतित रहती है तब फिर क्यों बेगूसराय में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को कुचलने का अथक प्रयास कर रही है? 

एक तर्क है कि कन्हैया कुमार राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं, इसलिए बेगूसराय की सीट कम्यूनिस्ट के खाते से कन्हैया को मिलनी चाहिए. यह बात सही है कि कन्हैया कुमार राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और कम्यूनिस्ट विचारधारा के ऊर्जावान पथिक है. वह जब राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं तब भारत के किसी भी क्षेत्र से चुनाव लड़ सकते थे. मोतिहारी, नवादा, नालंदा, मधुबनी, जहानाबाद तो कम्यूनिस्ट का गढ़ रहा है और पहले से भी पार्टी के सांसद निर्वाचित होते रहे हैं फिर बेगूसराय पर ही नज़र क्यों है? 

अरविंद केजरीवाल दिल्ली से चलकर प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध बनारस चुनाव लड़ने आए थे. दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश से चलकर मोदी के विरुद्ध बनारस लड़ने का एलान कर चुके हैं. हार्दिक पटेल ने भी कुछ ऐसा ही मंशा ज़ाहिर किया है. फिर राष्ट्रीय स्तर के नेता कन्हैया कुमार मुसलमान समुदाय के हिस्से में जाने वाली सीट से ही चुनावी मैदान में उतरने के लिए क्यों उतावले है? क्या सिर्फ़ इसलिए कि मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करके खुद की जीत सुनिश्चित कर सके? यानी कि मुसलमानों की गर्दन पर चाकू चलाकर कन्हैया को सुरक्षित किया जा रहा है. 

(लेखक टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था (TISS), मुम्बई से पढ़े हैं. वर्तमान में बिहार के किसानों के साथ काम कर रहे हैं.)

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