अम्मी जान,
अस्सलामो अलैकुम!
मैं ख़ैरियत से हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप भी ख़ैरियत से होंगी. बिहार के लोगों के लिए बहुत फ़ख्र की बात है कि आप लगातार बिहार की ज़मीन का दौरा कर रही हैं. मालूम चला कि आप बेगूसराय आई हुई हैं. आप पहले भी किसी संस्थान द्वारा लिंचिंग और हेट क्राइम पर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पटना आई थीं. किसी भी कार्यक्रम में आपका शामिल होना ही हमारी जज़्बे को दोगुना कर देता है. क्योंकि आप एक ऐसी फासीवादी सरकार से मुक़ाबला कर रही हैं जिससे मुक़ाबला करने के लिए बहुत कम लोगों में हिम्मत है. जिस समाज में महिलाओं को चौखट से पार नहीं होने दिया जाता है उस समाज से बाहर निकलकर आपने सड़कों पर ज़ुल्मत बर्दाश्त की है.
नजीब सिर्फ़ आपका बेटा नहीं है, बल्कि इस देश का हर वह सख्श जो इस निरंकुश सरकार के विरुद्ध खड़ा हुआ है आपको अपनी “अम्मी” समझता है और नजीब को अपना “भाई” मानता है. यही कारण है कि देश के कोने-कोने से आपकी लड़ाई में लोगों ने अपनी क्षमता के अनुसार समर्थन दिया. जो लोग दिल्ली के आस-पास थे, वो धरना-प्रदर्शन में साथ-साथ रहे. कुछ लोग अपने क़लम का इस्तेमाल करके लेख लिखते रहे. जो यह दोनों काम नहीं कर सके वह सोशल मीडिया के माध्यम से ही सही लेकिन आवाज़ उठाते रहे हैं. मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि इस निरंकुश सरकार के विरुद्ध खड़े एक-एक व्यक्ति ने अपने फ़ेसबूक और ट्विटर अकाउंट के प्रोफ़ाइल पिक्चर पर नजीब की तस्वीर लगाई थी. इसलिए नजीब के आंदोलन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ही सही लोग कल भी और आज भी जुड़े हुए हूं.
मैं यह खुला पत्र बहुत दुखी होकर लिख रहा हूँ. हालांकि यह वक़्त इस पत्र को लिखने का नहीं था. लेकिन अपने दिल को बहुत समझाने के बावजूद खुद को लिखने से नहीं रोक सका. कुछ दिन पहले मुझे मालूम चला कि आप कन्हैया कुमार के समर्थन में बेगूसराय आ रही हैं. यह ख़बर सुनने के बाद मुझे यक़ीन नहीं हुआ, लेकिन जब कन्हैया के साथ जीप पर आपकी तस्वीर देखी तो बहुत दुख हुआ. दुख इस बात का था कि क्या नजीब की लड़ाई में अकेले कन्हैया कुमार ही शामिल था?
मुझे जहाँ तक याद है जब नजीब के मसले को लेकर लोग दिल्ली की सड़कों पर आवाज़ उठा रहे थे, तब कन्हैया कुमार अपनी किताब “बिहार से तिहाड़ तक” की ब्रांडिंग में लगे हुए थे. यह बात आप भी जानती हैं कि कन्हैया की सक्रियता नजीब के आंदोलन में किसी भी दूसरे लोगों से कम रही है. वह भले ही अपने भाषणों में नजीब का नाम लेता रहा हो, मगर धरना-प्रदर्शन में उसकी उपस्थिती किसी भी दूसरे छात्र नेताओं से कम रही है. मुझे अच्छे से याद है जब नजीब की गुमशुदगी को एक साल हुआ था तब एकमात्र नवेद चौधरी थे जिसने अपनी MEEM टीम के ज़रिए #WhereIsNajeeb का हैशटैग चलाया था और आंदोलन को दोबारा से ज़िन्दा किया था. सीबीआई दफ़्तर के बाहर जब 36 घंटों का धरना दिया गया तब MEEM टीम के साथ पूरे 36 घंटों तक उमर खालिद और नदीम खान डटे हुए थे. बहुत इंतज़ार करने के बाद कन्हैया शाम के वक़्त आए और रात में निकल लिए.
हाँ! नजीब के पूरे आंदोलन को ईमानदारी से यूनाइटेड अगेन्स्ट हेट और MEEM की टीम ने ही आगे बढ़ाया है. मैं इस पत्र के माध्यम से कन्हैया की उपयोगिता को कम साबित करने की कोशिश नहीं कर रहा, बल्कि फ़र्ज़ समझकर एक फरेब से पर्दा हटा रहा हूँ.
अम्मी, मैं नहीं चाहता कि उस आंदोलन की पूरी कहानी बताकर आपको और परेशान करूं. लेकिन कुछ बात है जिसे आपको बता देना ज़रूरी समझता हूं. आप भी बखूबी जानती हैं कि नजीब की लड़ाई में देश भर के युवा शामिल हुए थे. बड़े-बड़े नेता मंच पर ज़रूर होते थे. भाषणों में उनका नाम ज़रूर होता था. मगर उस मंच और माइक के सामने की जो भीड़ थी वह भीड़ ही नजीब के आंदोलन की असल ताक़त थी. उस भीड़ में केवल कम्यूनिस्ट पार्टी के लोग नहीं होते थे, बल्कि भीड़ की शक्ल में हमारे जैसे अनगिनत चेहरे होते थे.
उन अनगिनत चेहरों में कुछ लोगों का संबंध किसी भी राजनीतिक पार्टी से या संगठन से नहीं होता था. वह भीड़ कन्हैया के कहने पर नहीं आती थी. बल्कि मेरे जैसे हज़ारों लड़के एक गुमशुदा भाई और उस भाई की अम्मी को इंसाफ़ दिलाने के मक़सद से आते थे.
उस भीड़ में अलग-अलग सामाजिक एवं राजनीतिक संगठनों के लड़के शामिल होते थे. एसआईओ, बीएसपी, समाजवादी, जमात-ए-इस्लामी हिन्द, जमीयत उलमा-ए-हिन्द, यूनाइटेड अगेन्स्ट हेट, जेएनयूएसयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, TISS, एएमयूएसयू, डीयूएसयू, एनएसयूआई, AISA, एआईएसएफ़, छात्र राजद, एसडीपीआई, डबल्यूपीआई, MEEM, ऊलेमा काउंसिल इत्यादि सभी छोटे-बड़े सामाजिक संगठन के लड़के उस भीड़ के हिस्सा होते थे.
क्या आप कभी चाहेंगी कि उस भीड़ में शामिल एक भी व्यक्ति को अपनी तरफ़ से आप दुखी करें?
कन्हैया ने आपके साथ-साथ रोहित वेमुला की माँ राधिका वेमुला को भी नामांकन में आने के लिए आमंत्रित किया था. रोहित वेमुला की माँ का दुख और आपका दुख एक जैसा ही है. क्या आप कभी जानने की कोशिश की है कि राधिका वेमुला बेगूसराय क्यों नहीं आयीं?
राधिका वेमुला जानती हैं कि बेगूसराय में अकेले गिरिराज सिंह ही चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि बेगूसराय में देश के सेकुलर राजनीति के मज़बूत स्तम्भ लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की टिकट पर अल्पसंख्यक समुदाय के एक उम्मीदवार तनवीर हसन भी चुनवी मैदान में खड़े हैं. राधिका वेमुला को इस बात की समझ थी कि जब रोहित वेमुला के लिए इंसाफ माँगा जा रहा था तब अल्पसंख्यक समुदाय के लोग उनके साथ मज़बूती से खड़े हुए थे. राधिका वेमुला को यह भी पता है कि उनकी लड़ाई में केवल कम्यूनिस्ट नहीं बल्कि राष्ट्रीय जनता दल के कार्यकर्ता एवं नेता भी मज़बूती के साथ खड़े हुए थे. राधिका वेमुला को इतनी राजनीतिक समझ ज़रूर थी कि बेगूसराय में कन्हैया के समर्थन में जाने का अर्थ केवल गिरिराज सिंह के विरोध में जाना नहीं हुआ बल्कि राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवार तनवीर हसन को भी रोहित वेमुला का क़ातिल समझने जैसा हुआ.
राधिका वेमुला को यह भी मालूम है कि यदि बिहार में कम्यूनिस्ट एक बेगूसराय की सीट जीत भी जाती है तब भी राष्ट्रीय जनता दल के सदस्यों की संख्या अधिक रहेगी और सदन में राजद की ज़रूरत कन्हैया कुमार से ज़्यादा पड़ने वाली है.
अम्मी आपने बहुत निराश किया है. हम जैसे हज़ारों लड़के जो नजीब की लड़ाई में मंच के सामने भीड़ का हिस्सा रहे हैं, आज बेगूसराय में तनवीर हसन के साथ हैं.
आप सोच रही होगी कि तनवीर हसन कभी भी नजीब की लड़ाई मे शामिल नहीं हुए इसलिए कन्हैया का मदद किया जाना चाहिए. कन्हैया उस समय दिल्ली के एक विश्वविधालय का छात्र था. क्या उसकी पार्टी कम्यूनिस्ट पार्टी के सभी नेता नजीब के आंदोलन में पहुँच ही जाते थे? बिल्कुल नहीं, यह संभव भी नहीं होता है. क्या राष्ट्रीय जनता दल के प्रतिनिधि नजीब की लड़ाई में शामिल नहीं होते थे?
मैंने नजीब के इंसाफ़ की लड़ाई में राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय प्रवक्ता व राज्यसभा सांसद प्रोफेसर मनोज झा को हमेशा आपके साथ खड़ा पाया है. इसी पार्टी के सीनियर सांसद शरद यादव जी भी कार्यक्रमों में अक्सर शामिल होते रहे हैं. बल्कि राष्ट्रीय जनता दल के छात्र विंग के कार्यकर्ता भी शामिल होते रहे हौं.
अम्मी, मुझें नहीं मालूम कि आपको बेगूसराय आने का सुझाव किसने दिया था? मगर कन्हैया की जीप पर खड़ी होकर आपने कन्हैया का एहसान तो चुका दिया, मगर साथ ही आपने हमेशा के लिए तनवीर हसन को नजीब का क़ातिल साबित कर दिया है. क्योंकि आपकी और शहला रशीद की पहचान एक मुस्लिम की पहचान है. आपको जीप पर खड़ा करके मुसलमानों में एक राजनीतिक मैसेज दे दिया गया है कि कन्हैया मुसलमानों अकेला नजीब के इंसाफ़ की लड़ाई लड़ रहा है बाक़ी उसके विरोध के लोग नजीब के क़ातिल हैं. इसलिए मुसलमान कन्हैया को मतदान करे. यदि ऐसा नहीं होता तब कन्हैया भी विक्टिम था और वह भी जेल से होकर लौटा था.
जिस तरह से नजीब की माँ पीड़ित की माँ है. उसी तरह से कन्हैया की माँ भी पीड़ित की माँ है. लेकिन कन्हैया ने जीप पर अपनी माँ को खड़ा नहीं करके नजीब की माँ और शहला रशीद को खड़ा किया. हालांकि वह अपनी माँ को चुनाव के आख़िरी समय मे ज़रूर उतारेंगे.
तनवीर हसन का कैडर वोट मुसलमान है और मुसलमानों के वोट में सेंध लगाने का मतलब है गिरिराज सिंह की जीत और तनवीर हसन की हार. यदि तनवीर हसन हार जाते हैं तब वह पूरी ज़िंदगी खुद को नजीब का क़ातिल होने की पीड़ा सहते रहेंगे और राजद के समर्थक जो नजीब की लड़ाई में साथ थे फिर किसी दूसरे नजीब के लिए खड़े नहीं होंगे.
अम्मी, काश! आपको भी कोई राधिका वेमुला की तरह राजनीतिक समझ देता और आप तनवीर हसन को अपने बेटे के क़ातिल होने का लेबल नहीं देतीं…
आपका बेटा
तारिक़ अनवर चम्पारणी