By Umar Khalid
हमारा देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है, जहां नफ़रत, साम्प्रदायिकता और हिंसा आम बात हो गई. इस बहुसंख्यकवादी दौर में मुसलमान होना, मुसलमान जैसा दिखना, अपराध सा बना दिया गया है. क़ब्रिस्तानों से लेकर इबादतगाहों पर क़ब्ज़ा, शिक्षा से लेकर नौकरियों से बेदख़ली, जान और आत्म-सम्मान पर रोज़ हमले — सब बहुत ही आम बात हो गई है.
गोदी मीडिया मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने का प्लेटफार्म बन गया है और इस सबको सरकार का पूरा समर्थन है. जो मुसलमानों को मारेगा सरकार उसको सम्मानित करेगी. कल ही यूपी में योगी आदित्यनाथ की एक चुनावी सभा में अख़लाक़ की हत्या के आरोपियों को सबसे आगे बैठाया गया.
जहां एक तरफ़ भाजपा के लोग बेशर्मी से मुसलमानों के हत्यारों का समर्थन कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ काफ़ी सारे सेक्युलर दलों के नेताओं ने – चाहे राहुल हो या तेजस्वी या फिर अन्य – कभी ज़रूरी नहीं समझा कि पीड़ितों के घर पर एक बार भी चले जाए.
“मुसलमानों की बात करोगे, तो हिन्दू वोट नहीं मिलेगा, मुसलमान परस्त होने का टैग लग जाएगा. लड़ाई अब कौन सच्चा हिंदू है इस पर होगी, मुसलमानों को कुछ दिन चुप हो जाना चाहिए, उनकी ही भलाई है” यही है आज के सेक्युलर मुख्यधारा की समझदारी…
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने लिखा कि उनको अब चुनाव प्रचार में कम बुलाया जाता है, और ज़्यादातर मुसलमान प्रत्याशी ही बुलाते हैं. अगर ग़ुलाम नबी आज़ाद का यह हाल है, तो फिर आम मुसलमानों का क्या होगा आप सोच सकते हैं. कौन करेगा मुस्लामनों का नेतृत्व? कौन देगा उनके दर्द को आवाज़? वैसे भी 2014 के बाद के लोक सभा में, आज़ादी के बाद सबसे कम मुसलमान सांसद थे.
यह बात स्वाभाविक है कि पढ़े-लिखे मुसलमान नौजवानों को इस सबके बीच घुटन हो रही है. वह तो भारत के लोकतंत्र को मानता है, पर क्या आज का भारत का लोकतंत्र उसे मानता है?
जो मैंने अभी तक लिखा वह एक जायज़ भावना है, लेकिन इसी जायज़ भावना का इस्तेमाल करके आपकी भावनाओं से भी खेला जा सकता है. पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर यही चल रहा है – आख़िर क्यों करे मुसलमान, कन्हैया और प्रकाश राज का समर्थन? क्यूं ना उन मुस्लिम उम्मीदवारों को समर्थन दे, जो भी इनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे है?
मैं पूछना चाहूंगा कि मुसलमानों का सपोर्ट पाना है तो क्या क्वालिफिकेशन होना चाहिए? मुसलमान होना, या फिर ममुसलमानों की आवाज़ होना? यह में सवाल इस लिए पूछ रहा हूं, क्योंकि पिछले पांच साल में इन दोनों मुस्लिम प्रत्याशियों की आवाज़ कभी नहीं सुनी ज़ुल्म, नफ़रत और बहुसंख्यकवाद के ख़िलाफ़! मोब लिंचिंग के ख़िलाफ़! बाक़ी सब छोड़िए, कभी अपनी ही सेक्युलर पार्टी के सॉफ्ट हिंदुत्व झुकाव के ख़िलाफ़ बोलते हुए सुना? ऐसा क्यूं है कि जब प्रोग्राम कराना हो तो प्रकाश राज और कन्हैया को बुलाया जाए और जब वोट की बारी आए तो इनका समर्थन नहीं किया जाए. हम ज़मीन की लड़ाई और संसद में प्रतिनिधित्व को अलग क्यूं कर रहे हैं?
मुसलमानों का राजनीति में होना वक़्त की ज़रूरत है. मुसलमानों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर हाशिए पर कैसे धकेल दिया गया, इसके बारे में भी सोचना ज़रूरी है. सिर्फ़ मुसलमानों को नहीं, बल्कि तमाम लोकतांत्रिक ताक़तों को. लेकिन इस लड़ाई को टोकन प्रतिनिधित्व तक मेहदूद ना करे. सिर्फ़ टोकन प्रतिनिधि चुनने से बहुसंख्यकवाद से आप नहीं लड़ सकते. ज़रूरी है कि सत्ता के बहुसंख्यक चरित्र को बदलने के लिए लड़े. चाहे कन्हैया कुमार हो या प्रकाश राज, दोनों इस लड़ाई से निकालकर आए हैं. जैसे स्मृति ईरानी और सुषमा स्वराज के संसद पहुंचने से सत्ता का पितृसत्तात्मक चरित्र नहीं बदलता है, उदित राज और राम विलास पासवान के संसद पहुंचने से जातिवादी चरित्र नहीं बदलता, उसी तरह से कुछ टोकन चेहरों से बहुसंख्यक चरित्र नहीं बदलेगा.
समय कठिन है, और यह लड़ाई हम साथ में मिलकर ही लड़ सकते हैं. यह सिर्फ़ 2019 के चुनाव तक भी सीमित नहीं है, उससे कहीं ज़्यादा लंबी लड़ाई है और इस लड़ाई में जो बोले कि मुसलमानों को पीछे हट जाना चाहिए उनको मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का 1947 में बंटवारे के समय का वह भाषण याद दिलवा देना चाहिए, जिसमें उन्होंने जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़े होकर कहा था कि अहद करो कि यह मुल्क हमारा है, और हमारे बिना इस मुल्क का अतीत और मुस्तक़बिल अधूरा है…
