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Reading: कौन बना-दिखा रहा है ये आतंकपरस्त फ़िल्में?
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BeyondHeadlines > Entertainment > कौन बना-दिखा रहा है ये आतंकपरस्त फ़िल्में?
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कौन बना-दिखा रहा है ये आतंकपरस्त फ़िल्में?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published May 25, 2019
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11 Min Read
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Rajiv Sharma for BeyondHeadlines

कुछ दिन हुए मैंने आज तक एप पर एक ख़बर पढ़ी. इसमें बताया गया था कि आलिया भट्ट की मां सोनी राजदान एक फ़िल्म लेकर आ रही हैं जिसका नाम है —नो फॉदर्स इन कश्मीर. साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि यदि मैं पाकिस्तान चली जाऊं तो वहां बहुत खुश रहूंगी. 

सरकार ने न तो इस फ़िल्म का कोई नोटिस लिया और न ही उनके इस बयान का. अब अंग्रेज़ी में बनी यह फ़िल्म 5 अप्रैल को रिलीज़ हो चुकी है. 

मैंने जब से यह ख़बर पढ़ी है और इस फ़िल्म के बारे में सुना है, मैं बहुत परेशान हूं और सोच रहा हूं कि क्या इस ख़बर से हमारे हुक्मरान भी इतने ही परेशान होंगे. इस फ़िल्म का इस देश और उसकी सेना की छवि पर क्या असर पड़ा होगा. 

इस फ़िल्म में चाहे कुछ भी दिखाया गया हो, लेकिन इस फ़िल्म का सिर्फ़ नाम ही देश और पूरी दुनिया में हमारी क्या छवि बनाएगा. हम कश्मीर और आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए पूरी दुनिया में कूटनीतिक अभियान छेड़े हुए हैं, लेकिन पाकिस्तान का काम तो एक अकेली इस फ़िल्म ने ही कर दिया होगा. 

हमारी सरकार उपलब्धियों के नाम पर इतना कुछ गिना रही है, लेकिन अपनी सरकार, सेना और सेंसर बोर्ड ने इस मोर्चे को इतना खुला कैसे छोड़ दिया? पाकिस्तान को देश-दुनिया से अलग-थलग करने का ऐलान करने वाली सरकार क्या इस मोर्चे पर इतनी लाचार है कि कोई किसी भी तरह की फ़िल्म बनाकर उसे सच के नाम पर पूरी देश-दुनिया में इस तरह प्रचारित करके देश को बदनाम करता फिरे.   

अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए टीवी पर एक फ़िल्म का विज्ञापन चल रहा था. इसमें दिखाया गया था कि एक आर्मी मैन अपने ही ऑफ़िसर को गोली मार देता है. यहां तक कि खुद के हाथों हुए इस क़त्ल पर वह कुछ भी कहने या कोई बयान देने से भी इंकार कर देता है. 

जब फ़िल्म का विज्ञापन इतना ख़तरनाक है तो वह पूरी फ़िल्म देश और सेना के लिहाज़ से कितनी आपत्तिजनक होगी? क्या ऐसी फ़िल्में देश के हक़ में हैं? कौन पैसा दे रहा है और कौन बनवा रहा है ये फ़िल्में? कश्मीर पर तो ऐसी फ़िल्मों की क़तार लग गई है. ऐसी फ़िल्में पर्दे पर आ कैसे रही हैं जबकि सरकार भी हमारी है, सेना भी और सेंसर बोर्ड भी.

फ्राइडे फ़िल्म नेटवर्क की ऐसी ही एक फ़िल्म है —ए वेडनेस डे. इस फ़िल्म में जो कुछ घटा वह आख़िर वेडनेस डे को ही क्यों हुआ इसकी कोई वजह नहीं बताई गई है. यह किसी और दिन भी घट सकता था. फिल्म मुंबई बेस्ड है, लेकिन आतंकी जिस बैग में बम प्लांट करता है उस पर जे एंड के लिखा होता है. 

फिल्म की नंबरिंग में ही हीरो नसीरूद्दीन शाह को एक भीड़-भाड़ वाली जगह पर काले रंग के एक बड़े बैग में बम प्लांट करते दिखाया गया है. उसके बाद जे एंड के मार्का बैग में वह मुंबई पुलिस हेडक्वार्टर के सामने वाले पुलिस स्टेशन में पहुंचकर वहां भी एक बम प्लांट करता है और उसके बाद अपने अड्डे से पुलिस कमिश्नर को फोन करके बताता है कि उसने पांच अलग-अलग जगहों पर बम प्लांट किए हैं जो शाम को ठीक साढ़े छह बजे ब्लास्ट होंगे. 

उसके बाद वे चार क़ैदी आतंकियों की मांग रखकर सारा दिन पुलिस फोर्स और हेडक्वार्टर को बंधक बनाए रखता है. वह जिन चार आतंकियों की मांग करता है, उन्हें तो वह आख़िरकार मार देता है या मरवा देता है, लेकिन इसी दौरान वह पुलिस कमिश्नर को एक लंबा भाषण देता है, जिसमें खुद को कॉमन स्टुपिड मैन साबित करता है. 

यदि वह कॉमन मैन ही था तो फ़िल्म की शुरुआत से पहले वाला बम वह क्यों प्लांट करता है? उसे तो सिर्फ़ हेडक्वार्टर या पुलिस फोर्स को ही चुनौती देनी थी? इतना ही नहीं, वह छह किलो आरडीएक्स खरीदने के अलावा एक अंडर कंस्ट्रक्शन बिल्डिंग की छत पर इस काम को अंजाम देने के लिए सभी ज़रूरी उपकरणों के साथ अपने खाने-पीने का पूरा इंतजाम ही नहीं करता, मीडिया से भी कनेक्ट रहता है. वह पुलिस कमिश्नर को अब तक पकड़े गए या मारे गए आतंकियों की तफ्सील तो समझाता ही है, उन्होंने जो आतंकी मांगे थे उनसे वह खुद फ़ोन पर उनके हस्ताक्षर भी पूछता है. 

मेरे जैसे पत्रकार के लिए यह नई जानकारी थी कि आतंकियों के पास भी अपनी पहचान के लिए कोई ख़ास सिग्नेचर या कोड वर्ड्स होते हैं. मेरे सामने सवाल यह है कि ऐसे ट्रेंड आतंकी को कॉमन स्टुपिड मैन कैसे कहा जाए? जिस आतंकी ने पुलिस हेडक्वार्टर को शाम तक बंधक बनाए रखने से पहले दो-दो बम प्लांट किए हों वह कॉमन स्टुपिड मैन कैसे हो सकता है? 

इससे भी बड़ा सवाल यह कि इस फ़िल्म को देखकर आतंकपरस्त लोगों का हौसला कितना बढ़ा होगा और ऐसे कितने नए आतंकी पैदा हुए होंगे? मुझे हैरानी इस बात पर भी है कि इस फ़िल्म पर हमारी सरकार, पुलिस और सेंसर बोर्ड तक को कोई आपत्ति क्यों नहीं हुई? 

चुनाव से पहले मैं कई लेखों में मोदी सरकार की बड़ी-बड़ी उपलब्धियां पढ़ रहा था और सोच रहा था कि ये काम इनसे कैसे छूट गया? इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत भी आपको बता दूं कि इसमें इंटरवेल की जगह इंटर-मिशन लिखा आता है यानि एक अंदरूनी अभियान या एजेंडा. क्या यही है ए वेडनेस डे फ़िल्म? यह एजेंडा इतना खुलकर कैसे चल रहा है?

एक ऐसी ही दूसरी फ़िल्म मैंने पहले कभी देखी थी —हैदर. इसमें सेना एक डॉक्टर के घर को उसके भाई की जासूसी पर घेर लेती है जिसमें से आतंकी गोलीबारी करने लगते हैं. डॉक्टर को पकड़ लिया जाता है और अपने एक जवान की लाश देखकर सेना का ऑफिसर उस घर को उड़ाने का हुक्म दे देता है. 

डॉक्टर की विक्षिप्त पत्नी उसके छोटे भाई से ही निकाह कर लेती है और उनका लड़का जब अलीगढ़ से पढ़ाई पूरी करके लौटता है तो उसे पता चलता है कि उसका घर तबाह हो चुका है. उसकी मां भी आख़िरकार आतंकियों द्वारा दिए गए विस्फोटक से खुद को ख़त्म कर लेती है और वह अकेला रह जाता है. 

इसी फ़िल्म में पकड़े गए आतंकियों को पुलिस को सरेआम गोलियां मारते दिखाया गया है और पुलिस कमिश्नर कहता है जब दो हाथी लड़ते हैं तो घास इसी तरह कुचली जाती है. सवाल यह कि सरेआम चल रही ऐसी फ़िल्में हमारी सरकार, पुलिस और सेना की क्या शक्ल पेश कर रही हैं? सेना की इस छवि का उसके मनोबल पर क्या असर पड़ता होगा? देश में ही नहीं, देश से बाहर इस प्रोपेगैंडा से हमारी क्या छवि बनती होगी? इस बारे में सरकार जो कुछ करती-कहती आ रही है क्या वह सब हवा-हवाई बातें हैं?

कश्मीर पर बनी फ़िल्मों की तो लंबी क़तार होगी. मैं तो यहां उन्हीं का ज़िक्र कर रहा हूं जो मैं देख सका हूं. ऐसी ही एक फ़िल्म मैं कल देख रहा था जिसका नाम था —याहान. हो सकता है कि कुछ लोग इस नाम को कुछ और भी पढ़ते हों. 

इस फ़िल्म में एक आर्मी ऑफ़िसर को एक कश्मीरी लड़की से प्यार करते फ़िल्माया गया है. पहले तो सैनिकों को ये कड़ी हिदायत होनी चाहिए कि वहां ऐसा कुछ भी करने का मतलब पूरी सेना की छवि के साथ खिलवाड़ करना होगा. इसलिए ऐसी कोई मुसीबत पैदा ही न होने दी जाए. लेकिन बदक़िस्मती से यदि ऐसा कुछ हो ही जाए तो इसकी क्या ज़रूरत है कि उस घटना पर फ़िल्म भी बने? 

कुछ समय पहले ऐसी ही एक फ़िल्म शाहिद भी आई थी, जिसमें खुद आतंकी रह चुका और फिर वकील बन गया हीरो राजकुमार राव आतंकी घोषित मुस्लिमों के मुक़दमें लड़ता हुआ दूसरे चरमपंथियों के हाथों मारा जाता है. 

कश्मीरी वादियों पर फ़िल्मकारों या अदाकारों का बहुत प्यार बरसता रहा है, लेकिन अब उसे कुछ कम करने का वक़्त आ गया है. क्या हमारी सरकार, सेना और पुलिस-प्रशासन इस बेहद संवेदनशील और संजीदा क्षेत्र को अंदरूनी अभियान या एजेंडा चलाने वाले फ़िल्मकारों के लिए इसी तरह खुला छोड़े रखेंगे कि कोई भी किसी भी तरह की फ़िल्म बनाकर इस देश की सरकार, सेना और पुलिस-प्रशासन को बदनाम करता रहे? कोई जब चाहे जैसी भी फ़िल्म बनाकर पेश कर दे? 

जब कश्मीर घाटी के ऑपरेशंस के समय वहां नेट की सेवाएं रोकी जा सकती है तो सरकार, सेना या पुलिस-प्रशासन इसकी निगरानी क्यों नहीं कर सकते? हम बेशक रोज़ दोहराते रहें कि कश्मीर हमारा अभिन्न हिस्सा है, लेकिन यदि यह खुल्लम-खुल्ला एजेंडा नहीं रुका तो कुछ लोगों को रास आ रहा यह सिनेमा एक न एक दिन इस देश को बहुत महंगा पड़ने वाला है.          

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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