विदेशी मोर्चे पर फिर वही पुरानी चुनौतियां… क्या करेंगे मोदी?

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Rajiv Sharma for BeyondHeadlines

लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी की बंपर या अप्रत्याशित जीत पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने उन्हें बधाई देते हुए उनके साथ मिलकर काम करने की इच्छा जताई तो नरेन्द्र मोदी ने उन्हें फिर आतंकवाद का ख़ात्मा करने की याद दिलाई. 

इस एक ख़बर से ही साफ़ है कि प्रधानमंत्री की बंपर जीत से उनका क़द तो बढ़ा है, लेकिन विदेशी मोर्चे की मुश्किलें आज भी जस की तस हैं. हालांकि हाल ही में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में अपने कार्यकाल के अंतिम सम्मेलन में हिस्सा लेते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बेहद संयम बरता और मंच से ऐसी कोई बात नहीं कही जो पाकिस्तान को अखरे. 

यहां यह याद रखना चाहिए कि हमारी पिछली मोदी सरकार ने जिस मोर्चे को सबसे ज़्यादा तवज्जो दी थी वह विदेशी मोर्चा ही था और उससे कुछ हासिल न हुआ हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता. 

सर्जिकल स्ट्राइक हो या बालाकोट का हवाई हमला भारत ने साफ़ कर दिया है कि अब हम आतंकवाद को चुपचाप देखते या सहते नहीं रहेंगे. मोदी ने बार-बार कहा है कि हमने पहली बार दूसरे देशों की आंखों में आंखे डालकर बात करने का जिगरा दिखाया है तो ज़ाहिर है कि इसमें कुछ न कुछ सच होगा ही.

पाकिस्तान के साथ एलओसी पर अब भी वैसा ही तनाव है. और आए दिन वह सीज़फ़ायर कर उल्लंघन करता रहता है. क़रीब-क़रीब रोज़ ही आतंकवादी भी मारे जा रहे हैं और हमारे जवान भी शहीद हो रहे हैं. 

यानी कश्मीर में पाकिस्तान के साथ हमारा जो छुपा हुआ युद्ध चल रहा है वह आज भी उसी तरह चल रहा है. कश्मीर ही हमारी सबसे बड़ी समस्या है और जब तक हम इसका दोनों खेमों के मानने लायक़ कोई हल ढूंढ नहीं लेते तब तक हमें इसी तरह लहू बहाते रहना पड़ेगा. 

पाकिस्तान और इस कश्मीरी युद्ध पर आज तक हम अपनी कोई एक नीति ही नहीं बना पाए हैं. हमेशा से यही होता आ रहा है कि एक सरकार पाकिस्तान से आतंकवाद के ख़ात्मे तक बातचीत न करने की रणनीति अपनाती है और दूसरी सरकार आते ही डाॅयलाग शुरू कर देती है. 

कई बार एक ही सरकार को दोनों नीतियां आज़माते भी देखा गया है. ऐसे में यह सुखद है कि हमारी मौजूदा सरकार पिछले तीन साल से आतंकवाद के ख़ात्मे तक पाकिस्तान के साथ नो डाॅयलाग की नीति पर अडिग बनी हुई है. 

हम पाकिस्तान के साथ बहुत बार बातचीत करके देख चुके हैं और हर बार एक ही नतीजा रहा है कि वहां की सेना दोनों देशों के बीच किसी तरह की शांति क़ायम होने देने के सख़्त ख़िलाफ़ है. इसलिए किसी न किसी तरह हर बातचीत की पीठ में उधर से छुरा घोंप दिया जाता रहा है.

मोदी सरकार दूसरी बार तब सत्ता में आई है जब अमेरिका और चीन जैसी दो बड़ी ताक़तों के बीच ट्रेड वार चल रही है. असल में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी हितों को लेकर बहुत कम धैर्य वाले राष्ट्रपति साबित हुए हैं. 

बराक ओबामा के जाने के बाद अमेरिका की नीतियां अब सौ फ़ीसदी सीधे-सीधे इससे तय होती हैं कि उन्हें किससे कितना फ़ायदा हो रहा है और किससे कितना नुक़सान. अमेरिका और चीन के बीच व्यापार में अमेरिका को बड़ा घाटा उठाना पड़ रहा था और उन्होंने पूरी तरह से मुखर होकर चीन से आयात होने वाले 200 अरब डाॅलर के साजो-सामान पर आयात शुल्क 10 फ़ीसदी से बढ़ाकर 25 फ़ीसदी कर दिया है. 

जवाबी कार्रवाई करते हुए चीन ने अमेरिका से होने वाले 60 अरब डाॅलर के आयात पर शुल्क बढ़ा दिया है. अमेरिका ने नाम लिए बिना चीन की सबसे बड़ी कंपनी हुआवे सहित उसकी छह कंपनियों को भी दरकिनार कर दिया है. 

उसका मानना है कि यह कंपनियां और इनका कारोबार देश की सुरक्षा के लिहाज़ से संवेदनशील है. असल में चीन में यह क़ानून है कि विदेशों में व्यापार या कारोबार करने वाली कंपनियों से यदि कोई खुफ़िया जानकारी मांगी जाएगी तो वे उसे ज़रूरी तौर पर मुहैया कराएंगी. 

इस ट्रेड वार का असर भारत पर भी पड़ सकता है क्योंकि अमेरिका भारत की व्यापार और कारोबार नीतियां से भी खुश नहीं है. भारत के लिए अमेरिका सबसे बड़ा निर्यातक देश है जबकि भारत अमेरिका के लिए 13वां सबसे बड़ा निर्यातक देश है. 

कुछ ही दिन हुए अमेरिका के वाणिज्य मंत्री भारत आए थे और वे यहां साफ़-साफ़ कह गए हैं कि अमेरिका भारत की कारोबारी नीतियों से खुश नहीं है. उनकी कंपनियों को भारत से कारोबार करते हुए कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. 

हालांकि भारत ने यदि सही समय पर कूटनीतिक करिश्मा दिखाया तो उसे अमेरिका और चीन के बीच चल रही इस ट्रेड वार से कुछ फ़ायदा भी हो सकता है. क्योंकि दोनों का एक-दूसरे से व्यापार घटने या बंद होने की सूरत में उन्हें नए व्यापारिक साझेदार खोजने होंगे. इससे बेशक अनिश्चितता का माहौल बनेगा, लेकिन भारतीय बाज़ार बढ़ सकता है और उसे नए निवेश का फ़ायदा भी मिल सकता है. 

फ़िलहाल तो हम इस पर ग़ौर करें कि अमेरिका पहले ही एच 1 बी वीसा की दरें बढ़ाने की बात कह चुका है, जिसका सीधा असर भारत के आटी पेशेवरों पर पड़ेगा. वह ईरान और रूस पर प्रतिबंध लगाकर भी भारत के व्यापारिक रास्ते में कांटे बो चुका है. 

अब भारत ईरान से कच्चा तेल तो आयात नहीं ही कर पाएगा, भारत को डर इस बात का है कि कहीं उसे ईरान से जो चाबहार बंदरगाह विकसित करने का क़रार मिला है, जिससे उसका मध्य पूर्व और अफ़ग़ानिस्तान तक पहुंचना आसान हो गया है, कहीं वह भारत की इस रणनीतिक कामयाबी के रास्ते में भी कांटे न बो दे. ऐसे में भारत ने यदि खुद को पश्चिमी तनावों से बचाकर रखा है तो यह उसके लिए अच्छा ही है. 

ग़ौरतलब है कि अमेरिका यदि भारत के रास्ते में कांटे बोता है तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत उसकी मजबूरी भी है. यहां चीन के ख़िलाफ़ भारत को वह अपना सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार मानता है. 

भारत दौरे पर आए अमेरिकी नौसेना प्रमुख एडमिरल जाॅन रिचर्डसन ने कहा कि अमेरिका भारत के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सबसे बड़ी सैन्य साझेदारी पर काम कर रहा है. कुछ ही दिन हुए उसने इसी इलाक़े में भारत और जापान के साथ मिलकर बड़ा सैन्य अभ्यास किया. 

इसलिए जहां ज़रूरी हो वह भारत के लिए विशेष छूटों का इंतज़ाम भी करता रहता है. जैसे उसने भारत को रूस से 40 हज़ार करोड़ में एंटी बैलेस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदने की छूट दी. अब यह भारत की कूटनीति पर निर्भर है कि वह अमेरिका की इस मजबूरी को अपने हक़ में कितना दूह पाता है.

पाकिस्तान से निपटना तो एक हद तक भारत की मजबूरी है, लेकिन आज भी इस क्षेत्र में भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती चीन ही है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में चाहे मसूद अज़हर का मामला हो या भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल होने का, चीन ने उसमें हमेशा अड़ंगा लगाया है. ऐसा उसने एक बार नहीं, कई बार किया है और बाक़ी सारे देशों के एकसाथ समर्थन देने के ख़िलाफ़ जाकर भी किया है. 

हमारा उससे सीमा विवाद तो क़ायम है ही, हमें उसके दबाव से अपने नेपाल, बांग्लादेश,  श्रीलंका और मालदीव जैसे छोटे-छोटे पड़ोसी देशों को भी बचाकर रखना है. हमें इसके लिए उन्हें आर्थिक मदद भी मुहैया करवानी ही होगी, उन्हें लगातार इसके लिए आगाह करते रहना होगा कि चीन उनके गले में बड़े निवेश का फंदा डालकर उनकी ज़मीन का बेजा इस्तेमाल कर सकता है या उन्हें अपने उपनिवेश जैसी स्थिति में ला सकता है. इसलिए उन्हें अपनी आज़ादी को हर क़ीमत पर क़ायम रखना चाहिए. 

पिछली बार जब मोदी सत्ता में थे, उन्होंने चीन से संबंधों को बेहतर बनाने के लिए लंबी-चौड़ी कोशिशें कीं. पिछले पांच सालों में ही उन्होंने राष्ट्रपति शी चिनफिंग से क़रीब डेढ़ दर्जन मुलाक़ातें की हैं. उनकी रोड एंड बेल्ट इनिशिएटिव परियोजना से ख़ुद को अलग रखते हुए भी वुहान में उनसे अनौपचारिक बातचीत का इंतज़ाम किया. 

जब यह लेख लिखा जा रहा है तब यह ख़बर आ रही है कि चीन अरुणाचल की सीमा पर जो सड़क बना रहा है भारतीय सेना उस पर निगाह रखे हुए है. असल मुद्दा यही है कि चीन अपनी इन विस्तारवादी और आक्रामक नीतियों से कब बाज आएगा. 

भाजपा की नई मोदी सरकार आज़ादी के बाद से ही बने हुए सीमा विवाद की बर्फ़ को कम-ज्यादा पिघला पाए या चीन की आक्रामकता और विस्तारवादी सोच को अमेरिका के साथ मिलकर ही सही थोड़ा सीमित कर पाए तो यह भारत के लिए बड़ी कामयाबी होगी. 

भारत को यदि ऐसा करना है तो बेशक हम इज़रायल को नए दोस्त के तौर पर पेश करना शुरू कर दें, लेकिन यह ज़रूरी होगा कि रूस जैसे पुराने दोस्तों से भी अपने रिश्ते पूर्ववत क़ायम रखे जाएं, क्योंकि दुनियावी कूटनीति में कब कौन-सा रिश्ता काम आए इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. वैसे भी हम रूस जैसे पुराने दोस्त को चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर एक नई धुरी बनाने के लिए खुला नहीं छोड़ सकते.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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