Rajiv Sharma for BeyondHeadlines
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी के बाद अमेरिका के एकतरफ़ा ढंग से ईरान के साथ हुए परमाणु क़रार से हट जाने और उस पर प्रतिबंध फिर से लागू कर देने के एक साल बाद ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने भी आंशिक तौर पर इस समझौते से हटने का ऐलान कर दिया. उन्होंने कहा कि उनका देश परमाणु बम और मिसाइलें तो नहीं बनाएगा, जो अमेरिका नहीं चाहता, लेकिन यदि इस दमन से दुनिया के ताक़तवर देशों ने उन्हें बचाने की कोशिश नहीं की तो वह अगले 60 दिनों में फिर से परमाणु संवर्द्धन प्रोग्राम पर काम करना शुरू कर देगा.
ग़ौरतलब है कि इस समझौते पर अमेरिका के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी ने भी दस्तख़त किए थे, लेकिन ओबामा की विदाई और डोनाल्ड ट्रंप के आगमन के साथ ही अमेरिका ने एकतरफ़ा ढंग से खुद को इस क़रार से अलग कर लिया.
यहां हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अन्य देश अब भी इस समझौते के साथ बने हुए हैं और यूरोपीय संघ ने अमेरिका के इस एकतरफ़ा क़दम की मुख़ालफ़त भी की थी और ईरान पर प्रतिबंधों की भी. इस मसले पर ब्रिटेन भी ईरान के साथ खड़ा दिखा था.
फ्रांस और चीन ने अब भी समझौते को बचाने की ज़रूरत जताई है, फिर भी अमेरिका के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया. अमेरिका की ईरान के समक्ष मांग यह थी कि वह अपने परमाणु और बैलेस्टिक प्रोग्राम पूरी तरह बंद कर दे और उनके निरीक्षण की इजाज़त अमेरिका को दे.
कुछ-कुछ इसी तरह के प्रावधान ओबामा के साथ हुए क़रार में भी थे, लेकिन ट्रंप उससे भी कुछ ज़्यादा चाहते हैं. इस मामले में सबसे ताज़ा घटनाक्रम यह है कि समुद्र में सऊदी के दो तेल टैंकरों को निशाना बनाया गया है, जिससे तनाव और बढ़ गया है. हालांकि इन तेल टैंकरों को निशाना बनाने की ज़िम्मेदारी किसी ने नहीं ली है और ईरान ने इसे अपना बुरा चाहने वाले दुश्मनों की करतूत बताया है.
ईरानी राष्ट्रपति के बयान के साथ ही एक बार फिर अमेरिका और ईरान के बीच तनाव अपने चरम पर पहुंच गया. हसन रूहानी ने कहा है कि यदि इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले अन्य देशों ने उनके तेल और बैंकिंग क्षेत्र को बचाने के लिए क़दम नहीं उठाए तो वह अपने पुराने परमाणु संवर्द्धन प्रोग्राम पर फिर से लौट जाएगा.
उन्होंने यह भी जता दिया कि यदि परमाणु क़रार मसले को फिर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले जाया जाता है तो उनकी प्रतिक्रिया और कड़ी होगी. इससे अमेरिका और ईरान के रिश्ते तनाव के चरम पर पहुंच गए. अमेरिका ने मध्य पूर्व में अपने हितों की रक्षा के लिए एक युद्धपोत के अलावा बी-52 बमवर्षक विमान और पैट्रियट मिसाइलें तैनात कर दी हैं. ये सतह से हवा में मार करने वाली वही मिसाइलें हैं जिनका कभी खाड़ी युद्ध में खूब इस्तेमाल हुआ था और इराक़ युद्ध में भी अमेरिका ने खुलकर इनका इस्तेमाल किया था. अमेरिकी विदेश मंत्री ने ईरान को चेतावनी दे डाली कि यदि उनके देश या नागरिकों को किसी तरह का नुक़सान पहुंचाया गया तो अमेरिका तुरंत हरकत में आएगा और सख्त कार्रवाई करेगा.
दोनों देशों के बीच यह तनाव एकाएक पैदा नहीं हुआ है. कुछ ही दिन पहले अमेरिका ने ईरान के सैन्य संगठन रेवोल्युशनरी गार्ड्स को आतंकी संगठन घोषित कर दिया था, जिस पर ईरान ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. अमेरिका और ईरान के बीच मध्य पूर्व में पैदा हुए इस तनाव ने अन्य देशों से उसके रिश्तों पर भी असर डाला है. इसी तनाव के कारण भारत और ईरान के वैदिक समय के माने जाने वाले रिश्ते दोराहे पर आ खड़े हुए हैं.
चीन और भारत ईरान से सबसे ज्यादा तेल आयात करने वाले देश हैं, लेकिन अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंधों के बाद इन दोनों देशों को ईरान से तेल आयात करने की जो अस्थाई छूट दे रखी थी, वह ख़त्म कर दी गई है. हालांकि भारत ने पहले ही कई बार साफ़ कर दिया है कि वह किसी देश पर सिर्फ़ संयुक्त राष्ट्र संघ के बैन को ही मान्यता देता है अन्य किसी भी तरह की रोक को नहीं.
फिर भी भारत और चीन की मजबूरी यह है कि ईरान का सारा तेल कारोबार न सिर्फ़ अमेरिकी टैंकरों से होता है, बल्कि उसका लेन-देन और भुगतान भी अमेरिकी डाॅलर में और अमेरिकी बैंक चैनलों के ज़रिए होता है. इसलिए यदि ईरान पर अमेरिकी बैन लागू होते हैं तो भारत और चीन के पास उसके बैंकों को इस्तेमाल करने की सहूलियत नहीं होगी और इसलिए वे चाहकर भी ईरान से तेल आयात नहीं कर सकेंगे.
शायद यही वजह है कि भारत ने इस सारे मसले पर बहुत सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की है और कहा है कि यदि ईरान नहीं तो अन्य देशों से देश की तेल कंपनियों को कच्चे तेल की सप्लाई होती रहेगी. ईरान के विदेश मंत्री से भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की हालिया मुलाक़ात का नतीजा भी यही रहा कि जो भी नई सरकार आएगी वही यह तय करेगी कि भारत ईरान से तेल आयात करेगा या नहीं. ऐसे ही कुछ कारणों से यूरोपीय संघ के देश भी ईरान के साथ व्यापार या लेन-देन नहीं कर पाएंगे.
वास्तव में इस मसले पर यह सवाल भी सोचने की दरकार पैदा करता है कि आख़िर अमेरिका जैसी दुनिया की अकेली ताकत कैसे इतने सारे देशों के साथ मिलकर किए गए समझौते से हट सकती है और जिस देश के साथ समझौता किया गया था उस पर फिर से वही सारे प्रतिबंध थोप सकती है?
ओबामा, जो अमेरिका को दुनिया की अकेली ताक़त मानते हुए सारी दुनिया के बारे में फ़ैसले लिया करते थे, के जाने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने कई संधियों और संस्थाओं से अमेरिका का रिश्ता तोड़ा है. जैसे अमेरिका ने खुद को क्लाइमेट समिट और यूनीसेफ़ से अलग कर लिया. क्या आज भी खुद को दुनिया की अकेली ताक़त मानने वाला अमेरिका सिर्फ़ इसलिए यह सब करने के लिए आज़ाद है कि अब वहां डोनाल्ड ट्रंप का राज है और वे किसी भी मामले में सबसे पहले अमेरिकी हितों को तरजीह देते हैं? क्या अमेरिका का यह रवैया सही है? क्या ईरान के बारे में अमेरिका की यह राय न्यायपूर्ण है कि वे खुद तो परमाणु क़रार से हट चुके हैं, लेकिन ईरान को उसका पालन करना ही होगा और उसके प्रतिबंधों को भी झेलना होगा?
भारत यह कहने के बावजूद कि वह सिर्फ़ संयुक्त राष्ट्र संघ के बैन को ही मान्यता देता है, के बाद भी यदि इस मसले पर सधी हुई प्रतिक्रिया ही दे रहा है तो वह सिर्फ़ इसलिए कि उसके लिए ईरान से व्यापारिक और दूसरे रिश्ते महत्वपूर्ण हैं तो अमेरिका से सामरिक रिश्ते भी, लेकिन अमेरिका को दूसरे देशों की ऐसी मजबूरियों का बेजा फ़ायदा नहीं उठाना चाहिए. ईरान से भारत के रिश्ते कितने अहम है, हमें इसका कुछ अंदाज़ा इससे होना चाहिए कि कुछ अरसा पहले ही हमें उससे उसका चाबहार बंदरगाह विकसित करने का क़रार मिला. इसे रणनीतिक तौर पर भारत की बड़ी जीत माना गया था, क्योंकि यह बंदरगाह न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान तक भारत की पहुंच आसान बनाता है, बल्कि मध्य पूर्व के अन्य देशों से भी उसके रिश्तों और व्यापार को आसान बनाता है. जिस तरह से तेल आयात और अन्य मामलों में अमेरिका ने अब तक मिली हुई छूट वापस ले ली है, कहीं उसने चाबहार बंदरगाह में भारत के दख़ल में भी रोड़ा अटकाया तो यह भारत के लिए बहुत तकलीफ़देह स्थिति होगी.
भारत ने ईरान से इन गहरे रिश्तों की वजह से ही अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद उसके साथ शीर्ष स्तर पर बैठकें की हैं, लेकिन अमेरिका ने ईरान के साथ व्यापार की सभी छूटें वापस लेकर यह हालात पैदा किए हैं कि जिससे उसकी आय पूरी तरह बंद हो जाए और वह उसके सामने घुटनों पर आ जाए. आधुनिक दुनिया में इस तरह के दमनकारी प्रतिबंधों को तानाशाहीपूर्ण ही कहा जाएगा.
एकतरफ़ अमेरिका ईरान पर इस तरह के प्रतिबंध लगाकर भारत-ईरान संबंधों के बीच रोड़े बिछा रहा है तो दूसरी तरफ़ भारत और ईरान के बीच तरजीही व्यापार समझौते यानी पीटीए के लिए पांचवें दौर की वार्ता इसी माह प्रस्तावित है. इस समझौते से ईरान के साथ उसका व्यापार और निर्यात बढ़ेगा. यदि हम ईरान से मिले चाबहार बंदरगाह और इस व्यापार समझौते पर निगाह डालें तो हमें कहना पड़ेगा कि परमाणु क़रार पर अमेरिका और उसके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का तानाशाहीपूर्ण रवैया न सिर्फ़ ईरान, बल्कि पूरी दुनिया पर बहुत बुरा असर डालने वाला है.