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गुम हो गए विकास, काला धन, रोज़गार और हवा में उड़ गए अच्‍छे दिन

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published May 10, 2019 1 View
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17 Min Read
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नासिरूद्दीन 

पाँच साल पहले बात शुरू हुई थी कि अच्‍छे दिन आएंगे क्‍योंकि काला धन आएगा, 15 लाख हर शख्‍स के खाते में जाएगा, रोज़गार मिलेगा, विकास तेज़ी से होगा. सबका होगा. उन्‍होंने जनता के सामने वादा किया कि मेरी सरकार पाँच साल के लिए बनी है और मैं वादा करता हूँ कि 2019 में लोकसभा चुनाव के लिए जब वोट माँगने आऊँगा तो अपने कामों का हिसाब दूँगा. 

क्‍या उन्‍होंने हमें अपने कामों का हिसाब दिया? 

जैसे- कितने रोज़गार पैदा हुए? लोकपाल कब बना? कितने भ्रष्‍टाचारी और घोटाला करने वाले जेल गये? विदेशों में जमा काल धन कितना वापस आया? कितने लोगों के खाते में अचानक 15 लाख की पूँजी दिखने लगी? देश से आतंकवाद खत्‍म हो गया? वगैरह… वगैरह.  

ज़मीन नहीं आसमान देख‍िए

इससे पहले कि हिसाब देने की गूँज तेज़ होती देश के एक हिस्‍से मेरठ में चुनाव प्रचार का आग़ाज़ करते हुए उनकी आवाज़ सुनाई दी… ‘ज़मीन हो, आसमान हो या फिर अंतरिक्ष सर्जिकल स्ट्राइक का साहस आपके इसी चौकीदार की सरकार ने करके दिखाया है.’ यह 28 मार्च की बात है. यानी मुद्दे ज़मीन से जुड़े थे और दिखाया आसमान जा रहा था. यहाँ उन्‍होंने यह भी कहा, जब दिल्‍ली में इन महाम‍िलावटी लोगों की सरकार थी, तो आये दिन देश के अलग-अलग कोने में बम धमाके होते थे. ये आतंकियों की जात और पहचान देखते थे और उसी आधार पर पहचान करते थे कि इसे बचाना या सजा देनी है.’ 

वैसे यह किन आतंकियों के बारे में बात हो रही है? अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरु नाम के दो लोगों को तो 2014 से पहले फाँसी लग चुकी थी. है न? 

ख़ैर, इस पर अभी चर्चा चल रही थी कि यह सब क्‍या हो रहा है. विपक्ष के लिए किस तरह की जबान का इस्‍तेमाल हो रहा है… और इससे पहले कि नौजवान आगे आते और रोजगार और विकास का हिसाब पूछ पाते, चार अप्रैल को लातूर में उनके नाम संदेश आ गया- ‘पहली बार मतदान करने वालों से कहना चाहता हूँ… क्या आपका पहला वोट पाकिस्तान के बालाकोट में एयरस्ट्राइक करने वाले वीर जवानों के नाम समर्पित हो सकता है क्या? आपका पहला वोट पुलवामा में जो वीर शहीद हुए, उनके नाम समर्पित हो सकता है क्या?’ इससे प्रेरणा लेते हुए, इस पार्टी के एक मुख्‍यमंत्री ने भारतीय सेना को ही उनके नाम समर्पित कर दिया. तो कोई कहने लगा कि पूरी सेना ही पार्टी और उनके सुप्रीम नेता के साथ खड़ी है. 

अपने निर्देश से शर्मसार चुनाव आयोग 

अब यह पार्टी और उनके नेता सेना, सैनिकों की बहादुरी, सर्जिकल स्‍ट्राइक का चुनाव प्रचार में खास मकसद से खुलेआम इस्‍तेमाल कर रहे हैं. चुनाव आयोग बस देख रहा है. क्‍यों … क्‍योंकि आयोग इसी चुनाव के दौरान ऐसा न करने के दो बार निर्देश दे चुका है. 

हमें याद रखने की जरूरत है कि पुलवामा आतंकी घटना और बालाकोट स्‍ट्राइक के बाद जब सुरक्षा बलों के सियासी इस्‍तेमाल की आशंका सच साबित होने लगी तो चुनाव आयोग ने पहला निर्देश नौ मार्च 2019 को ही दे दिया था. इसका लब्‍बोलुबा यह था कि सभी राजनीतिक दल और नेता अपने भाषणों में सेना और सैनिकों के बारे में बोलने में सावधानी बरतें और उनकी तस्‍वीरों का इस्‍तेमाल न करें. ध्‍यान रहे, ऐसा निर्देश वह किसी पार्टी के कहने पर नहीं दे रहा था. बल्कि रक्षा मंत्रालय ने इस ओर ध्‍यान दिलाया था. रक्षा मंत्रालय का मानना है कि ऐसा इसलिए जरूरी है क्‍योंकि सुरक्षा बल अराजनीतिक हैं और आधुनिक लोकतंत्र के निष्‍पक्ष स्‍तंभ हैं. मगर यह निर्देश जब दरकिनार दिखने लगा तो चुनाव आयोग को दस दिन बाद ही एक बार फिर 19 मार्च 2019 को इस निर्देश की याद दिलानी पड़ी. उसे कहना पड़ा कि पार्टियों और नेताओं को राजनीतिक प्रोपैगंडा में सुरक्षा बलों की गतिविधियों को शामिल करने से बचना चाहिए. 

यह निर्देश किसके लिए था? कौन पार्टी या नेता यह सब कर रहे थे? क्‍या विपक्ष की कोई पार्टी या उसके कोई नेता हैं?

मगर हुआ क्‍या… ध्‍यान रहे, इन्‍हीं निर्देशों के बाद ही मेरठ, 28 मार्च और लातूर, 04 अप्रैल हुआ था.  अब तो चुनाव आयोग ने यह मान लिया क‍ि ऐसा करके कुछ गलत नहीं हुआ है. वैसे, अभी तक उसने अपने नि‍र्देश हटाये नहीं हैं. 

हाँ, इन दोनों जगहों पर हुई बातें क्‍या बता रही हैं? 

यह बता रहीं हैं कि वोट माँगने से पहले पिछले वादों का हिसाब नहीं दिया जा रहा है. देश में एक खास रंग का उन्‍मादी राष्‍ट्रवाद की तरंग फैलाने की कोश‍िश हो रही है. 

गांधी जी कर्मभूमि और हिन्‍दू … हिन्‍दू 

मगर रंग सिर्फ इससे नहीं चढ़ पा रहा था. गुजरते वक्त के साथ, जैसी रंगत की उम्‍मीद थी, वैसा गहरा रंग दिख नहीं रहा था. हालांकि कोश‍िश बहुत हो रही थी. लेकिन इस मुद्दे के साथ हमेशा एक खतरा भी बना हुआ है. न जाने चुनाव आयोग कब जाग जाये, उसे अपने ही निर्देश की साख बचानी हो तो क्‍या होगा?

इसी बीच, इसके साथ एक और मुद्दे का टेस्‍ट हो गया. एक अप्रैल, गांधी जी की कर्मभूमि वर्धा. उन्‍होंने कहा और जोर देकर कहा कि ‘… आप मुझे बताइए जब आपने हिन्‍दू आतंकवाद शब्‍द सुना था तो आपको गहरी चोट पहुँची थी या नहीं. हजारों साल का इतिहास हिन्‍दू कभी आतंकवाद की घटना करे, ऐसी एक भी घटना है क्‍या… एक भी घटना है क्‍या… अरे अंग्रेज जैसे इतिहासकार भी कभी हिन्‍दू हिंसक हो सकता है, इस बात का जिक्र तक नहीं किया है.  हमारी पांच हजार साल से ज्‍यादा पुरानी हमारी संस्‍कृति को बदनाम करने का प्रयास किसने किया. हिन्‍दू आतंकवाद शब्‍द कौन लाया. हिन्‍दुओं को आतंकवादी कहने का पाप किसने किया…’

यह देश के अंदर ही बड़ा स्‍ट्राइक था. यह भारतीय नागरिकों को ही बाँटने का स्‍ट्राइक था. हालाँकि हम आप जो चाहे कहते रहें, मगर चुनाव आयोग ने इस भाषण को भी साफ-सुथरा मान लिया है. 

यह मुद्दा किस ‘विकास’ और किसके ‘साथ’ से जुड़ा है, इसे तो उसके उठाने वाले ही बेहतर बता पायेंगे. मगर इसमें नफरत के संकेत दिख रहे हैं. तथ्‍यों का उलट-पुलट है. लोगों को धर्म के नाम पर उकसाने वाले बीज हैं. सबसे बढ़कर इसके जरिए ऐसा मुद्दा उठाने की कोश‍िश है जिससे देश को धर्म के नाम पर बाँटने में आसानी हो और एक ठोस धार्मिक वोट बैंक तैयार किया जा सके. इसके जरिए आसानी से आर्थ‍िक और सामाजिक तरक्‍की, बंधुता, सांस्‍कृतिक एका की बात से लोगों का ध्‍यान हटाने की कोश‍िश भी है. 

मगर यह देखिए, इसके दूसरे दिन एक अखबार द टेलीग्राफ ने यह उनसे सीधे क्‍या कह डाला- स्‍वतंत्र भारत के सबसे जघन्‍य आतंकवादी को मत भूलिए. इस लाइन के साथ एक बड़ी सी तस्‍वीर है. तस्‍वीर के बारे में कुछ यों बताया गया है- नाथूराम गोडसे, जिसने महात्‍मा गांधी की हत्‍या की थी. 

अली अली… बजरंग बली और हरा वायरस

जिन लोगों के एजेंडे पर सामाजिक विकास का मुद्दा कभी नहीं रहा है उनके लिए यह सभी मुद्दों में बली है. तभी तो लोकसभा में सबसे ज्‍यादा सांसद भेजने वाले और देश के सबसे बड़े राज्‍य के मुख‍िया दस दिन बाद मेरठ में ही बोल उठे, ‘अगर कांग्रेस, सपा-बसपा, रालोद को अली पर विश्‍वास है तो हमें बजरंग बली पर विश्‍वास है.’ 

भाषण के दौरान वहाँ मौजूद दुनिया में सबसे ज्‍यादा बिकने वाले अखबार के रिपोर्टर बताते हैं कि इसके बाद पंडाल जय श्री राम… भारत माता की जय के नारों से गूँज उठा. यही वह जगह है जहाँ एक नये वायरस के बारे में भी दुनिया को पता चला. रिपोर्ट उनके भाषण के हवाले से यों बताती हैं- ‘… (ये) मान चुके हैं कि बजंरग बली के अनुयायी उन्‍हें वोट नहीं देंगे. ये लोग अली-अली का नाम लेकर हरा वायरस देश को डसने के लिए छोड़ना चाहते हैं…. पूर्वी उत्‍तर प्रदेश में हम पहले ही इसका सफाया कर चुके हैं. यहाँ भी इनको ध्‍वस्‍त कर दी‍ज‍िए, हरा वायरस भारतीय राजनीति से समाप्‍त हो जायेगा.’ रिपोर्टर इसकी वजह बताने की कोश‍िश करते हैं. उनके मुताबिक, ‘(वे) ध्रुवीकरण का फाइनल कार्ड खेल गये. यह बात कह कर ‘(उन्‍होंने) हिन्‍दू मतों को एकजुट करने का प्रयास किया.’  

यही नहीं, हरा का तो हाल यह है कि कहीं इनके कोई नेता हरे रंग से नफरत की बात कर रहे हैं तो कहीं कोई हरे झंडे के नाम पर डराने की कोश‍िश कर रहे हैं. क्‍यों न हरा रंग और हर हरे को राष्‍ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाए? 

याद है, यही वे लोग हैं, जो दूसरी पार्टियों और नेताओं पर सदा आरोप लगाते रहे हैं – वोट बैंक, ध्रुवीकरण, तुष्‍टीकरण की राजनीति. देखिए केरल के त्र‍िवेंद्रम में उन्‍होंने यही तो कहा कि तुष्‍टीकरण की राजनीति हो रही है… आज यहाँ (केरल) स्थिति ये बना दी गई है कि भगवान का नाम तक नहीं ले सकते. 

क्‍या केरल में ऐसा ही हो गया है? इसकी खबर किसी अखबार ने अब तक क्‍यों नहीं दी? तो फिर टीवी में वे कौन लोग दिख रहे थे जो हजारों की तादाद में सबरीमाला जा रहे थे. सबरीमाला अब तक केरल में ही है न? 

लगता है, ये बातें स‍िर्फ चुनावी ध्रुवीकरण के लिए नहीं है बल्कि यह देश की धार्मिक बहुसंख्‍यक आबादी में धार्मिक डर का बीज बोने की तैयारी है. कल्‍पना कीजिए उस दिन की जब बहुसंख्‍यक धार्मिक आबादी डर की मानसिकता का शिकार हो जाए… यह सबसे खतरनाक कोश‍िश नहीं लगती है? 

और दीमक का पता चल गया

अभी यह सब क्‍या कम था कि हमें पश्चिम बंगाल से उनकी पार्टी के राष्‍ट्रीय मुख‍िया की दार्जीलिंग से आवाज सुनायी देती है, ‘घुसपैठिये दीमक की तरह हैं. वे अनाज खा रहे हैं, जो गरीबों को जाना चाहिए. वे हमारी नौकरियाँ छीन रहे हैं… सत्ता में आने के बाद (पार्टी) इन दीमकों का पता लगाकर उन्हें देश से बाहर निकालेगी.’ 

तो यहाँ भी किसी को किसी से डराया जा रहा है. किसी से किसी के लिए नफरत पैदा की जा रही है. वैसे, कीड़े-मकोड़ों में शुमार ये दीमक कौन हैं?

22 अप्रैल को कोलकाता में इन्‍हीं मुख‍िया जी ने साफ किया, ‘जो शरणार्थी बांग्‍लादेश से आए हैं चाहे वे हिन्‍दू हों, बौद्ध हों, सिख हो, जैन हों या ईसाई हों, (हम) ने अपने ‘संकल्‍प पत्र’ में स्‍पष्‍ट संकेत दिया कि हम उन्‍हें नागरिकता देंगे.’ 

मगर यहाँ तो वे शरणार्थ‍ियों की बात कर रहे हैं. ऊपर किसी घुसैपठिये दीमक की बात हो रही थी. माजरा क्‍या है?

ज़रा देखि‍ए ऊपर कौन सा धर्म उनसे छूट गया है या छोड़ दिया गया. जी, पता चल गया… तो इसमें मुसलमानों का जिक्र नहीं है. तो बांग्‍लादेश से आये मुसलमान क्‍या हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए वे कहते हैं कि शरणार्थ‍ियों को चिंता नहीं करनी चाहिए, केवल घुसपैठियों को चिंता करनी चाहिए… ओह, यानी मुसलमान घुसपैठिये हैं और वे ही दीमक हैं. यही बात हुई न? वैसे, म्‍यांमार से जान बचाकर यहाँ आये रोहिंग्‍या क्‍या हैं? क्‍या उन्‍हें शरणार्थी माना जायेगा? 

जब ‘श्राप’  से दोबारा मारे गए शहीद हेमंत करकरे

मगर इस सिलसिले की सबसे बड़ी खबर भोपाल से 17 अप्रैल को आती है. मालेगाँव बम धमाके में आरोपित प्रज्ञा सिंह ठाकुर के भोपाल चुनाव लड़ने का एलान होता है. यह एलान बहुतों को चौंका देता है. यह इस लोकसभा चुनाव का अहम मोड़ है. मगर प्रज्ञा की पार्टी के राष्‍ट्रीय मुख‍िया के पास इसके लिए तर्क हैं. वे कहते हैं कि इससे ‘निश्‍चि‍त रूप से संदेश देने का प्रयास है. समझौता एक्‍सप्रेस के जजमेंट के बाद यह तय हो चुका है क‍ि हिन्‍दू टेरर एक काल्‍पनिक चीज है… पूरी दुनिया में हिन्‍दू टेरर और भगवा आतंकवाद कह कर पूरे देश को बदनाम क‍िया गया है.. तुष्‍टीकरण के लिए… सनातन संस्‍कृति को गाली दे दी.’

बात देश की बदनामी की कर रहे थे लेकिन हुआ क्‍या हुआ… हमें बताया गया कि अपने ही देशवासी के ‘श्राप’ से हेमंत करकरे शहीद हो गये… शहीद होने के बाद उन पर बदनामी के कीचड़ उछाले गये. वे विलेन बना दिये गये. आतंक को धर्म में बाँट दिया गया.  एक सवाल तो यह भी है न कि क्‍या ये विस्‍फोट अपने आप हो गये थे?

लगभग दो महीनों के चुनावी प्रक्रिया के दौरान बहुमत की सरकार का नेतृत्‍व करने वाली पार्टी और उनके नेता किन मुद्दों पर चर्चा करने वाले हैं, इनके बयान शुरू से इसके संकेत देने लगे थे. 

और चलते-चलते पता चल रहा है कि अब तक पाकिस्‍तान भेजने में माहिर रहे इनके एक नेता मरने के बाद भी मुसलमानों का पीछा छोड़ने को राजी नहीं हैं. उन्‍होंने दो गज जमीन के लिए शर्त लगा दी है. यानी अब अकेले बहादुरशाह जफर नहीं होंगे जो यह कहेंगे- ‘कितना है बद-नसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.’

कुल मिलाकर, यह पार्टी उन मुद्दों पर चर्चा करने को तैयार नहीं है, जिन मुद्दों पर वह पाँच साल पहले चर्चा ही चर्चा करती थी. यही नहीं, उन मुद्दों पर भी नहीं आना चाह रही है जिसे उसने बहुत जोर-शोर से ड्रामाई अंदाज में लागू किया था. जैसे- डीमोनेटाइजेशन और जीएसटी.

यह कहाँ आ गये हैं हम…

नतीजा, चुनाव के तीन चरण पार हो चुके हैं. लोकसभा की लगभग आधी सीटों पर चुनाव हो चुके हैं. ज़रा हम गौर तो करें कि इस चुनाव में हमें कहाँ पहुँचा दिया गया? 

राष्‍ट्रवादी होने का पैमाना बनाया गया, इसे-उसे राष्‍ट्रद्रोही बताने का सर्टिफिकेट तैयार किया गया, रंगों का धर्म तय किया गया, नये वायरस तलाशे गये, चुनाव में बजरंगबली और अली आ गये, शरणार्थी और घुसपैठिये का धर्म पता चला, दीमक की खबर मिल गयी और एक शहीद ‘श्राप’ के जरिए सरेआम रुसवा कर दिया गया और कब्र की जमीन भी छीन लेने की धमकी मिलने लगी

यह बतौर लोकतंत्र हमारे विकास का एक अहम चरण है. भले ही इसमें सबका साथ नहीं है. चुनाव भविष्‍य के मुल्‍क का खाका भी देता है. क्‍या ऐसा ही मुल्‍क बनाने का ख्‍वाब आजादी के हमारे अजीम नेताओं ने देखा था?

(यह लेख संडे नवजीवन, 5 मई 2019 में छपे लेख का विस्‍तार है. हम इसे यहाँ संडे नवजीवन से साभार दे रहे हैं.)

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