Edit/Op-Ed

शून्य वाली मायावती 10 पर पहुंच गईं, अखिलेश वहीं के वहीं रह गए…

By Abhishek Upadhyay

अखिलेश यादव को आज अपने पिता मुलायम सिंह यादव के होने का अर्थ समझ में आ रहा होगा. पहले राहुल ने अखिलेश को सीढ़ी बनाया और अब मायावती ने उनकी कच्ची राजनीतिक समझ की दीवार पर हाथी के पैर रख अपने हिस्से की लिंटर यानि छत डाल ली. 

कोई कल्पना कर सकता है कि मुलायम सिंह के सक्रिय रहते ये कभी हो सकता था? राजनीति की तपती ज़मीन पर पैर जलाकर सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाले मुलायम के दांव आज तक उनके प्रतिद्वंद्वी नहीं समझ सके. 

मुलायम सिंह यादव ने अपने 55 साल के राजनीतिक जीवन में कभी किसी को पीठ पर हाथ तक न धरने दिया. मुलायम के राजनीतिक धोबीपाट आज भी राजनीति के पंडितों के लिए पहेली हैं. कभी कांशीराम से हाथ मिलाकर सत्ता की चाभी निकाल ली. कभी मायावती के विधायक तोड़कर पूरी सरकार चला ली. कभी जगदम्बिका पाल को एक दिन का सीएम बनाकर अपना चुनाव जीत लिया. कभी न्यूक्लियर डील पर वामपंथियों को उठाकर 180 डिग्री पर पटक दिया और कांग्रेस के साथ हो लिए. कभी ममता बनर्जी के साथ संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के तुरंत बाद अगला डेरा ममता के विरोधी के टेंट में डाल दिया. 

समकालीन राजनीति में ऐसा कोई भी सूरमा नहीं रहा जो मुलायम के राजनीतिक दांव को भांप सके. राजनीतिक बुद्धि कौशल के मामले में मुलायम का कोई जोड़ ढूंढे न मिलेगा. 

इन्हीं मुलायम को हाशिए पर डालकर अखिलेश ने एक के बाद दूसरे राजनीतिक तौर पर बेहद कच्चे और मनमाने फ़ैसले करने शुरू कर दिए. जिस कांग्रेस की यूपी में कौड़ी भर की औक़ात नहीं थी उसे विधानसभा के चुनावों में 100 के ऊपर सीटें तोहफ़े में बांट दीं. जो मायावती 2014 के चुनाव में शून्य का आविष्कार कर बैठी थीं, उन्हें मनचाही सीटें दान कर दीं. यादवों को उनके पक्ष में खुलकर वोट करने का फ़रमान अलग कर दिया. 

नतीजे में शून्य वाली मायावती 10 पर पहुंच गईं. अखिलेश वहीं के वहीं रह गए. मायावती ने उनके पक्ष में अपनी पार्टी का ऐसा वोट ट्रांसफर कराया कि उनकी पत्नी डिंपल और भाई धर्मेंद्र तक अपना चुनाव नहीं बचा सके और हार गए. 

ध्यान देने वाली बात ये है कि मुलायम न कांग्रेस के साथ गठजोड़ के लिए सहमत थे, न बसपा के साथ. मगर बेटे की ख़ातिर मजबूर हो गए. मजबूर न भी होते तो क्या करते, उनकी सुनता कौन? 

अब मायावती भी अखिलेश की पार्टी का मनमाफ़िक़ इस्तेमाल कर “यूज़ एंड थ्रो” के श्लोक पढ़ रही हैं. शायद इसीलिए हमारी परंपराओं में कहा गया है कि बाप बाप होता और बेटा बेटा. बेटे को उम्र भर बाप से सीखना होता है. उम्मीद है कि अखिलेश को अपने हिस्से की सीख मिल चुकी होगी. वैसे भी राजनीति में सीखने के लिए कभी भी देर नहीं होती…

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