BeyondHeadlines News Desk
कांडी खाल: उत्तराखंड के इतिहास में हम ऐसी जगह पर खड़े हैं, जहां उत्तराखंड का दलित समाज डर व खौफ़ के साए में जीने को मजबूर है. लगातार दलितों पर दमन की ख़बरें आ रही हैं. इसी के मद्देनज़र जन आंदोलनो के राष्ट्रीय समन्वय की ओर से आज “उत्तराखंड में बढ़ते दलित अत्याचार: आगे की राह” विषय पर चर्चा का आयोजन किया गया. जिसमें देहरादून के विभिन्न जनसंगठन प्रतिनिधिक रूप में साथ आए.
गांधी मैदान में हुई बैठक में शामिल हुए वक्ताओं ने बहुत आक्रोशित स्वर में दलित अत्याचारों की मुद्दे उठाए. वक्ताओं ने बताया कि किस तरह 30 मई को 9 साल की बिटिया को लेकर उसकी मां 8 किलोमीटर अकेले दौड़ती रही. और उच्च जाति से संबंध रखने वाले गांव के लोग उसका पीछा करके उसको वापस लौटने के लिए दबाव बनाते रहे. मगर वह रुकी नहीं तब जाकर केस दाख़िल हो पाया. इसके बाद भी लंबी लड़ाई चली और 11वें दिन जाकर बिटिया का 164 का बयान दर्ज हो पाया. केस में बहुत अनियमितताएं की गई है.
वक्ताओं ने इस बात पर भी चर्चा की कि दलित अत्याचार की समाप्ति, उसकी समाज में गैर बराबरी की बात और परंपरा को कैसे समाप्त किया जाए ताकि समाज में दलित वर्ग को उनका हक़ मिल सके? सबसे बड़ी बात उनके सम्मान की रक्षा हो सके. घटनाएं पहले भी होती थी पर अब सामने आ रही हैं. यह प्रतिरोध की शुरूआत है. उत्तराखंड को कैसे देव भूमि कहा जाए या माना जाए? विजय गौड़ की कविता है —“पहाड़ो में देवता नहीं चरवाहे रहते हैं.” समाज में जब अशांति है तो हम शांति-शांति कैसे कह सकते हैं?
वक्ताओं ने कहा कि ग़लती सोच के स्तर पर है. ग़लत सोच का विरोध हर स्तर पर होना चाहिए. मुसलमान से नफ़रत, दलितों से नफ़रत? यह नफ़रत कहां ले जाएगी? मात्र निर्भया फंड बनाने से काम नहीं चलेगा. हमें एकजुट होकर दबाव बनाना पड़ेगा. हम अन्याय नहीं बर्दाश्त करेंगे. एक साथ आकर लड़ने की ज़रूरत है.
इस चर्चा में ये फ़ैसला लिया गया कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति ना हो इसलिए इसे रोकने के लिए हर तरह के संघर्ष में सभी साथ होंगे. साथ ही ये भी तय किया गया कि आगामी 30 जून को “उत्तराखंड में दलित अस्मिता” के प्रश्न पर राज्यभर के समाज कर्मी व जनसंगठनों को बुलाया जाएगा.
बैठक के बाद में एक प्रस्ताव पारित करके दलित अस्मिता के साथ एकजुटता घोषित की गई:
— हम उत्तराखंड के जौनपुर इलाक़े के में 9 वर्षीय बिटिया के साथ हुई हैवनाक बर्बादी की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं.
— हम कुछ दिन पहले विवाह में साथ बैठकर खाना खाने के कारण से युवक जितेंद्र की हत्या की निंदा करते हैं.
— उत्तराखंड में जगह-जगह दूर गांव में, शहरों में हो रहे दलित अत्याचार कि हम पूरी तरह से निंदा करते हैं.
— हम मानते हैं कि दलितों का उत्तराखंड राज्य में बराबर का हिस्सा है. उनको प्रताड़ित करना, उनको इंसान ना समझकर बहुत आसानी से उनके साथ कोई भी अपराध कर लेना और फिर उसको बड़े लोगों की पंचायत में दबा देने की परंपरा का हम पूरी तरह निषेध करते हैं.
— उत्तराखंड की इतिहास में यह काले पन्ने हैं, हम इसका न केवल निषेध करते हैं बल्कि भविष्य में ऐसा ना हो उसके लिए एक रणनीतिक संघर्ष का भी आह्वान करते हैं.
बता दें कि उत्तराखंड आंदोलन के समय टिहरी ज़िले के निर्भीक पत्रकार स्वर्गीय कुवंर प्रसून ने कहा था कि यह आंदोलन दलित विरोधी है. आज दलित बेटियों से बलात्कार व हत्या जैसी लगातार हो रही घटनाओं ने हमें कुवंर प्रसून की दी गई हिदायत पर सोचने के लिए मजबूर किया है. आज दलित अस्मिता के सवाल पर नये सिरे से बात करने की ज़रुरत है. इस पर तमाम वक्ताओं ने अपनी सहमति ज़ाहिर की.