History

क्या लाल क़िला से मुग़लई विरासत की विदाई का वक़्त आ गया!

Rajiv Sharma for BeyondHeadlines

पुरानी दिल्ली में आज भी सिर उठाए खड़ा लाल क़िला एक मुग़लई विरासत है. यह कितना अहम है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज़ादी के बाद सबसे पहली बार भारतीय झंडा यहीं फहराया गया और ब्रिटिश झंडा उतारा गया. 

अब भी हर स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री यहीं झंडा फहराते हैं. इसकी सामने वाली प्राचीर पर अब भी भारतीय झंडा लगातार लहराता रहता है. इस तरह लाल क़िला एक तरह से भारतीय सत्ता की निशानी है. 

पांचवें मुग़ल बादशाह शाहजहां ने इसका निर्माण 1639 से 1648 के बीच कराया था. उस्ताद लाहौरी इसके वास्तुकार थे. जब यह लाल क़िला बना तब इसी पुरानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था. इस क़िले का निर्माण कराने के बाद शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से बदलकर यही शाहजहांनाबाद या पुरानी दिल्ली बना ली थी. 

इतिहासकार इसी मुग़ल शहंशाह शाहजहां के शासनकाल को मुग़ल दौर का स्वर्ण काल भी लिखते रहे हैं क्योंकि इसी दौरान लाल क़िला और जामा मस्जिद जैसी ऐतिहासिक इमारतें बनीं, जिन्होंने मुग़ल वास्तुकला को बुलंदियों पर पहुंचा दिया. लाल बलुआ पत्थर से बना होने के कारण इसे लाल क़िला कहा जाता है.

आज से पांच से दस साल पहले तक जब आप कभी छुट्टी के दिन पिकनिक मनाने या घूमने के इरादे से लाल क़िला देखने जाते थे तो यहां का संग्रहालय मुग़लई निशानियों से भरा-पूरा मिलता था. मुग़ल शासकों की तस्वीरों से लेकर उनके कपड़े, हथियार, सिक्के, मोहरें और बर्तन तक यहां बड़ी तादाद में सजे हुए होते थे, लेकिन अब यदि आप इसी उम्मीद से वहां जाएंगे तो आपको निराश होना पड़ेगा. 

लाल क़िला को पांच साल के लिए डालमिया समूह को जनसुविधाओं के लिए गोद देने के बाद भारतीय पुरातत्व विभाग ने ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा बनाई गई सैनिक बैरकों में जो संग्रहालय बनाया है उसमें मुग़लिया विरासत क़रीब-क़रीब पूरी तरह नदारद है. 

यह हालत तब है, जबकि पता चल रहा है कि डालमिया ग्रुप को लाल क़िला देने का मतलब यह था कि वे यहां जनसुविधाओं आदि का ख्याल रखेंगे, लेकिन बाक़ी सारा काम पुरातत्व विभाग की देख-रेख में ही होगा और हो भी रहा है. 

इन जनसुविधाओं का हाल यह है कि एकाध टाॅयलेट के अलावा मीना बाज़ार से आगे बढ़ने के बाद कोई जनसुविधा दिखाई नहीं देती. इतना कहर बरपा रही गर्मी में कहीं पीने के पानी का इंतज़ाम तक नहीं है, जबकि छुट्टी के दिन घर से लाल क़िला देखने के लिए निकलने वाले ज्यादातर लोग भरी दुपहरी में ही वहां पहुंचते हैं. 

हां, लाल क़िला डालमिया ग्रुप को गोद देने के बाद एक बड़ा काम ज़रूर हो गया है कि अंदर जाने के लिए जो टिकट 30 रुपये का था वह बढ़कर 50 और 80 रुपये का हो गया है. यदि आपको सिर्फ़ स्मारक ही देखने हैं तो 50 रुपये लगेंगे और यदि संग्रहालय भी देखना है तो टिकट 80 रुपये का होगा.

ज़ाहिर है कि जब लाल क़िला मुग़लई विरासत है तो वहां पहुंचने वाले पर्यटक भी वहां मुग़लई विरासत या उनके द्वारा इस्तेमाल होने वाले साजो-सामान देखने ही पहुंचते होंगे. यहां का पिछला या पुराना संग्रहालय ऐसी चीज़ों का अच्छा-ख़ासा बड़ा संग्रह था, लेकिन अब वह सब कुछ यहां नदारद है. 

हालांकि ब्रिटिश हुक्मरानों के हाथों बनीं सैन्य बैरकों को सजा-संवारकर जो संग्रहालय बनाया गया है, वह बहुत ही खूबसूरत है, लेकिन इसमें मुग़लिया राजशाही क़रीब-क़रीब पूरी तरह ग़ायब है. वैसे भी इस संग्रहालय को संग्रहालय की बजाए एक प्रदर्शनी कहना ज्यादा मुनासिब होगा, क्योंकि ज्यादातर इतिहास दीवारों पर तस्वीरों के साथ बहुत अच्छे शब्दों में उकेरा गया है. इसमें मुग़लिया दौर और जब यह लाल क़िला बना, वह सब कहीं नहीं है. 

मुग़लों के नाम पर वहां सिर्फ़ बहादुर शाह ज़फ़र के एक खंजर और एक तलवार के अलावा सिर्फ़ उनकी और उनकी बेगम की एक-एक पोशाक भर ही रह गई है. इसके अलावा वहां मुग़लिया दौर का कुछ भी नहीं है. 

वैसे दीवारों पर जो इतिहास और साजो-सामान दर्शाया गया है, वह बहुत बढ़िया और खूबसूरत है. उसके लिए आॅडियो-वीडियो से लेकर हर तकनीक का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन अब यहां सजाए गए इतिहास में सन् 1857 का स्वतंत्रता संग्राम, आज़ाद हिंद फौज, प्रथम विश्व युद्ध में भारत का योगदान जैसे मुद्दे ही हैं. 

संग्रहालय का एक हिस्सा रवींद्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों से लेकर अमृता शेरगिल जैसे कलाकारों तक को समर्पित है. दिमाग़ पर ज़रा-सा ज़ोर डालते ही यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि आख़िर लाल क़िला जैसी मुग़ल विरासत में अमृता शेरगिल क्या कर रही हैं? 

80 रुपए में ऐसा लाल क़िला देखने के बाद गर्मियों की भरी दुपहरी में धूप में खड़ा कोई भी आदमी इस बात को लेकर अपना माथा पीट सकता है कि मैं यहां अकबर, जहांगीर और शाहजहां को देखने आया था या अमृता शेरगिल को.

भारतीय पुरातत्व विभाग के जो अधिकारी लाल क़िले में बैठते हैं, वह तो ढूंढने पर भी मिले नहीं, लेकिन थोड़ा-सा घूमते ही यह बात समझ आ गई कि यह अजीबो-गरीब संग्रहालय भी पूर्व सैन्य बैरकों में बनाए गए हैं, जो आज़ादी से पहले ब्रिटिश फौज और उसके बाद सन् 2003 तक भारतीय फौज के पास थीं. 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम और मुग़लिया राजशाही के ख़ात्मे के बाद से लाल क़िला जैसी ऐतिहासिक धरोहर का अब तक क्या-क्या मिटाया जा चुका है यह एक अलग मुद्दा है. इसीलिए यह सवाल और अहम हो जाता है कि अब फिर से नया संग्रहालय तो बन गया और उसमें से मुग़लिया विरासत भी बाहर हो गईं, लेकिन लाल क़िले में अभी तक क़ायम मुग़लिया दौर के पुराने ढांचे या स्तंभों पर खड़े संगमरमरिया महल और खुले दरबार जैसे दीवाने आम और दीवाने खास उसी तरह धूल क्यों खा रहे हैं? क्या इनका कोई बेहतर इस्तेमाल नहीं हो सकता? 

अभी तक काफ़ी बुलंद नज़र आने वाले ऐसे ज्यादातर निर्माण लाल क़िले के पिछली तरफ़ यानी राजघाट वाली साइड में हैं. इनको धूप, धूल और बारिश से बचाने का कोई इंतज़ाम कहीं नज़र नहीं आता. औरंगज़ेब की बनवाई हुई संगमरमरिया मस्जिद जिसे शायद सुनहरी मस्जिद कहा जाता है, पर हमेशा ताला ही लटका नज़र आता है. 

पुरातत्व विभाग के सूत्रों के मुताबिक़ इन स्मारकों को लोगों के देखने के लिए ही खुला छोड़ा गया है, लेकिन क्या यह सही फ़ैसला है? जिन पिलर पर ये महल खड़े हैं वे अब तक काफ़ी जर्जर हो चुके होंगे और वे और कितने दिन यह बोझ उठा पाएंगे? क्या इन महलों या इमारतों की मरम्मत करके इनमें कुछ ऐसा रखकर जो मुगलिया दौर के लिहाज़ से ज्यादा अहम हो, इन्हें दर्शनीय नहीं बनाया जाना चाहिए? 

लाल क़िले के संग्रहालय की नुमाइश से तो मुग़लिया दौर को बाहर कर ही दिया गया है, लेकिन जिस तरह से मुग़लिया इमारतों या महलों की अनदेखी हो रही है, अगले एक-दो दशकों में ये भी इतिहास की बात हो जाएं तो किसी को हैरानी नहीं होगी. 

हालांकि भारतीय पुरातत्व विभाग के सूत्र इन सवालों पर यह सफ़ाई भी देते हैं कि अभी संग्रहालय का और विस्तार होगा. लेकिन बाद में क्यों, लाल क़िला में मुग़लिया विरासत को तो सबसे पहले जगह दी जानी चाहिए थी. 

समय-समय पर इतिहासकारों ने और अख़बारनवीसों ने यह मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया है कि किस तरह लाल क़िला जैसी अहम जगहों की कितनी विरासती धरोहरें और साजो-सामान लापरवाही के चलते धूल-धूप खाते हुए या तो बेकार हो गए या अपना वजूद ही गंवा बैठे. 

ऐसी चीज़ों की चोरी की ख़बरें भी समय-समय पर आती रही हैं. कभी पुरातत्व विभाग के पास पैसे की कमी तो कभी किसी ऐतिहासिक इमारत को किसी ग्रुप को गोद देने के नाम पर इन ऐतिहासिक धरोहरों से हो रहा खिलवाड़ बंद होना चाहिए. 

पिछले दिनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई की महानिदेशक उषा शर्मा ने यह ऐलान किया था कि अब ऐतिहासिक धरोहरों में फिल्मों की शूटिंग की ख्वाहिश रखने वाले फिल्मकारों को एएसआई के आॅफिस के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे, उन्हें यह सुविधा आॅनलाइन उपलब्ध करा दी जाएगी, लेकिन मुझे लाल क़िले से लौटकर यह सोचना पड़ रहा है कि ऐसी ऐतिहासिक इमारतें और कितने दिन फिल्म शूटिंग वालों के काम आ पाएंगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं.)

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