Rajiv Sharma for BeyondHeadlines
पिछले कुछ समय में ख़ासतौर पर राष्ट्रवाद के जो प्रतीक गढ़े गए हैं, उनमें से किसी से भी मुझे कोई परहेज़ नहीं है. मैं भारत माता की जय बोल सकता हूं और बंदे मातरम भी. राष्ट्रगान तो मैं बचपन से स्कूल से ही गाता आ रहा हूं. देश के प्रति अपनी निष्ठा को लेकर कभी मुझे कोई शक-शुबहा भी नहीं रहा. फिर भी मैं यह सवाल पूछ रहा हूं कि देश का मुसलमान पिछले दिनों लोकसभा चुनाव जीतकर सत्ता में आई सरकार पर भरोसा करे तो क्यों करे? इसकी कोई वजह तो होनी चाहिए?
बेशक सदन में मुस्लिम सांसद पिछली बार सबसे कम 22 थे, जो इस बार बढ़कर 25 हो गए हैं, लेकिन जिस बीजेपी की सरकार सत्ता में आई है. जो कई राज्यों समेत अब पूरे देश पर राज कर रही है, उसके 303 सांसदों में एक भी मुसलमान संसद नहीं पहुंच सका! यदि इस बेजीपी के साथ एनडीए को भी जोड़ लिया जाए तो उसके 353 सांसदों में सिर्फ़ एक मुसलमान सांसद ही चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच पाया है.
यदि जीती हुई पार्टी या गठबंधन के सिर्फ़ एक मुस्लिम सांसद ही लोकसभा तक पहुंच सका है तो देश के बीस करोड़ मुसलमान उस सरकार पर भरोसा करें भी तो क्यों करें? क्या सरकारी तंत्र में सत्ता पक्ष के भीतर बीस करोड़ मुसलमानों की ओर से सिर्फ़ एक सांसद की नुमाइंदगी सही है? सरकार के भीतर से मुसलमानों की आवाज़ कौन उठाएगा? इसका नतीजा क्या है?
इसका नतीजा यह है कि आज एक आम मुसलमान राजनीतिक तौर पर खुद को असहाय, लाचार और बेचैन महसूस कर रहा है. वह असुरक्षाबोध का शिकार है. लोकतंत्र में उसका विश्वास लगातार डिग रहा है और अविश्वास लगातार बढ़ रहा है. जबकि टेलीविज़न पर प्रवक्ता के तौर पर भाजपा के दो मुस्लिम चेहरे इस तरह मौजूद नज़र आते हैं जैसे सरकार मुसलमान ही चला रहे हों. इनमें से एक तो अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री भी हैं, लेकिन वे भी राज्यसभा से ही आते हैं.
लोकसभा में एनडीए के ख़ेमे में सिर्फ़ एक मुस्लिम सांसद का पहुंचना इस बात का सुबूत है कि इनका रोल सदन में बैठकर कुछ ख़ास मौक़ों पर मेज़ें थपथपाने से ज्यादा कुछ नहीं होगा. यह स्थिति तब है जबकि यह बताया जा रहा है कि सारे मुसलमान वोटरों में से आठ फ़ीसदी ने भाजपा के हक़ में वोट किया. यानी हिंदुओं के बाद बीजेपी और एनडीए को सबसे ज़्यादा वोट मुसलमानों के ही पड़े, फिर भी उनकी यह हालत?
ऐसे में यह सवाल बिल्कुल वाजिब है कि बीस करोड़ मुसलमानों का बड़ा और भरा-पूरा समाज सत्ता पक्ष में सिर्फ़ अपने इस एक नुमाइंदे से क्या उम्मीदें रखे? क्या सत्ता पक्ष में मुसलमानों की यह ज़मीन उनके साथ नाइंसाफ़ी नहीं है? क्या यह बीस करोड़ मुसलमानों के बीच सत्ता पक्ष में मुस्लिमों की सही जगह है? एक मुसलमान इन हालात में इस सरकार पर भरोसा करे तो क्यों करे?
हां, यह सही है कि पिछली बार के 22 सांसदों के मुक़ाबले इस बार 25 मुस्लिम सांसद लोकसभा पहुंचे हैं. सबसे ज्यादा 49 मुस्लिम सांसद 1980 में लोकसभा पहुंचे थे. इस बार जिन पार्टियों से सबसे ज़्यादा मुस्लिम सांसद लोकसभा पहुंचे उनमें तृणमूल कांग्रेस से चार, कांग्रेस से तीन, समाजवादी पार्टी से तीन, बहुजन समाज पार्टी से भी तीन, जम्मू-कश्मीर नेशनल कान्फ्रेंस से तीन, इंडियन यूनियन मुस्लिग लीग से तीन, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्ताहादुल मुस्लिमीन से दो और सीपीआईएम व एआईयूडीएफ़ से एक-एक सांसद शामिल हैं, लेकिन यहां बात तो सत्ता पक्ष से लोकसभा में मुसलमानों की इंसाफ़परक मौजूदगी की हो रही है, जहां उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ.
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने सत्ता में संभालने के बाद कहा भी था कि अब सबसे बड़ा काम अल्पसंख्यक समुदाय का भरोसा जीतने का रह गया है. क्या मुस्लिम अल्पसंख्यकों का भरोसा इसी तरह जीता जाएगा कि एनडीए के चुने हुए 353 सांसदों में उनकी गिनती महज़ एक पर ही सिमट जाती है? क्या यही सबका साथ-सबका विकास की ज़मीनी हक़ीक़त है, जिसमें सत्तारूढ़ खेमे में बीस करोड़ मुसलमान महज़ एक नुमाइंदे के भरोसे छोड़ दिए गए हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं.)