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Reading: ग़ायब हुए जहाज़ और 13 लोग… लेकिन कोई नेता ख़म नहीं ठोक रहा कि चीन को “घर में घुस कर…”
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ग़ायब हुए जहाज़ और 13 लोग… लेकिन कोई नेता ख़म नहीं ठोक रहा कि चीन को “घर में घुस कर…”

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 9, 2019
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9 Min Read
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By Hemant Kumar Jha

राष्ट्रवाद का निजीकरण से प्यार देखकर मन गदगद है. आजकल दुनिया की प्रायः तमाम राष्ट्रवादी सरकारों का यही हाल है. वे “देश पहले” का नारा देकर सत्ता में आती हैं और उसके बाद “कारपोरेट पहले” की कार्य-योजना पर काम करने में जुट जाती हैं.

अपनी नई सरकार को भी “देश पहले” की बलिदानी भावना से ही जनता ने फिर से तख्त तक पहुंचाया है, पहले से भी अधिक ताक़त के साथ. ज़ाहिर है, अब इस सरकार का निजीकरण के प्रति प्यार उफान पर है. पहले 100 दिनों की जिस कार्य योजना पर बातें हो रही हैं, जैसी ख़बरें अख़बारों में आ रही हैं, सार्वजनिक क्षेत्र की 42 कंपनियों का निजीकरण किया जाएगा.

कोई वैचारिक विरोध कर सकता है, लेकिन निजीकरण के भी अपने तर्क हैं. सबसे बड़ा तर्क तो यही है कि आख़िर कारपोरेट प्रभुओं ने आपको तख्त तक पहुंचाने में जो कोई कसर बाक़ी नहीं रखी वह किस दिन के लिए…?

तो… निजीकरण बरास्ते राष्ट्रवाद अपने देश में अगले चरण में पहुंचने वाला है. मनमोहन सिंह ने जिसके लिए राह बनाई, मोदी जी उस पर उनसे अधिक आत्मविश्वास और ताक़त के साथ आगे बढ़ रहे हैं. नीति आयोग के अधिकारी गण नए सूट पहन कर नए आत्मविश्वास के साथ मीडिया से मुख़ातिब हैं और उनका उत्साह बता रहा है कि बस चले तो वे सारी क़ायनात का निजीकरण कर दें… रेलवे, बैंक, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल क्या चीज़ है.

हालांकि, झोला भर-भर कर वोट देने वाली जनता के दिमाग़ में तो यह था ही नहीं कि जीतने के बाद मोदी जी अर्थ जगत में क्या करेंगे. वे तो “देश पहले” की भावना से ओत-प्रोत हो चुके थे. कैसे ओत-प्रोत हुए, यह अलग बात है.

वो एक वीडियो में एक नौजवान कह रहा था न… चुनाव के दौरान… कन्हैया कुमार के गांव में… कि… “हमको स्वाभिमान नहीं, अहंकार हो रहा है कि दुश्मन को उसके घर में घुस कर ठोक दिया मोदी जी ने”…

घुटनों तक की हाफ़ पैंट और सैंडो गंजी पहने वह नौजवान देखने से ही आईए-बीए पास-फेल टाइप का निम्न मध्यवर्गीय बेरोज़गार लग रहा था. लेकिन, उसके लिए बेरोज़गारी या अन्य तमाम दिक्कतें बाद की बातें थीं, देश पहले था. उसका निश्छल देश प्रेम संदेह से परे था और यह उसका अधिकार था कि जिस नेता को वह देश की सुरक्षा और स्वाभिमान के लिए सबसे उपयुक्त मानता था उसे वोट दे.

अधिकतर वोटर उसी कम पढ़े-लिखे नौजवान की तरह ही देश के नाम पर वोट दे आए. वे भी, जो ख़ासे पढ़े-लिखे थे.

कोई संदेह नहीं कि दुर्दशा की सीमाओं को पार करते पब्लिक सेक्टर के बैंकों के अधिकतर कर्मियों ने भी देश के नाम पर वोट किया होगा. निजीकरण की क़तार में लगी उन 42 सरकारी कम्पनियों के मुलाज़िमों ने भी, जिनका भविष्य अब दांव पर है.

पता नहीं, घर में घुस कर “दुश्मन को ठोक देने” और दुश्मन की सीमा से पायलट अभिनंदन की वापसी से उत्साहित वह नौजवान या उसके जैसे अन्य लोग 3 जून को चीनी सीमा के आसपास ग़ायब हुए उस हवाई जहाज़ के बारे में, उस पर सवार पायलटों सहित 13 लोगों की सुरक्षा के बारे में क्या सोच रहे होंगे. वैसी गहमागहमी तो दिख नहीं रही जो तब दिखी थी, जब मामला पाकिस्तान से जुड़ा था. न एंकर उछल रहे न एंकरानी चीख रही.

यह हमारे समकालीन राष्ट्रवाद की सीमा है कि इसने अपने ‘दुश्मन’ की पहचान कर ली है. ऐसा दुश्मन, जो घोषित रूप से हमसे कमज़ोर है, हमेशा हारा ही है हमसे. फिर, उस देश का नाम लेकर हम अपने देश के कुछ लोगों को भी अपमानित, लांछित करने का लाइसेंस पा जाते हैं न.

चीन के मामले में यह सब थोड़ा शिथिल हो जाता है. एक तो चीन हमसे मज़बूत है, बल्कि बहुत मज़बूत है. दूसरे… देश के भीतर चीन के मुद्दे पर वह आलोड़न-विलोड़न, वह ध्रुवीकरण नहीं हो सकता. तो… सरकार और सेना सोच रही होंगी कि ग़ायब हुए जहाज़ और 13 लोगों का क्या किया जाए, लेकिन ब्लॉक लेवल से लेकर देश लेवल तक का कोई नेता ख़म नहीं ठोक रहा कि चीन को “घर में घुस कर…”

बहरहाल, देश के लिए चुनी गई सरकार अपना काम कर रही है. नई शिक्षा नीति आ रही है जो शिक्षा के निजीकरण का अगला अध्याय रचेगी, श्रम क़ानूनों में बदलाव पर भी बातें हो रही हैं. सुना है, इन क़ानूनों में बदलाव के बाद “हायर एंड फायर” की नीति पर चलना कंपनियों के लिए अधिक आसान हो जाने वाला है. यूनियन आदि फालतू टाइप की बातों के लिए भी स्पेस घटने वाला है.

आज के ही अख़बार में ख़बर है… रेलवे ने हमारे इलाक़े में पूछताछ प्रणाली का निजीकरण कर दिया है. यानी अब यात्री जिनसे सवाल करेंगे वे रेलवे के स्टाफ़ नहीं, ठेकेदार के स्टाफ़ होंगे.

चलिए, क्या फ़र्क़ पड़ता है कि ट्रेन संबंधी सूचना सरकारी आदमी दे रहा है या ठेकेदार का आदमी. लोगों को तो सही सूचना से मतलब है.

लेकिन, उस कर्मचारी को तो फ़र्क़ पड़ता है जो पूछताछ काउंटर पर बैठ कर काम करेगा. अब वह रेलवे का स्टाफ़ नहीं, निजी कम्पनी का स्टाफ़ होगा. उसकी सेवा शर्त्त, सेवा सुरक्षा वह नहीं होगी जो होनी चाहिए थी. पारिश्रमिक तो वैसा नहीं ही होगा जिसका वह हक़दार है या जो उसके पहले उसी काम को करने वाले रेलवे स्टाफ़ को मिलता था. अब वह गुलाम टाइप का कर्मी हो जाएगा जो अपने साथ होने वाले शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा सकता.

अख़बार के मुताबिक़ रेलवे ठेकेदार को प्रति कर्मी 805 रुपए प्रतिदिन देगा. उसमें ठेकेदार अपना कमीशन काटेगा और फिर कर्मी को पारिश्रमिक देगा. इतना तो मान कर चलिए कि वह दिहाड़ी टाइप का कर्मी होगा और ठेकेदार कितना कमीशन खुद रखेगा और कितना उस निरीह कर्मी को देगा, यह वही दोनों जानेंगे या ईश्वर ही जानेगा.

यानी, रेलवे के निजीकरण की शुरुआत के साथ ही इस देश के युवाओं की “रेलवे में नौकरी” के सपनों में भी आग लग गई है. प्लेटफार्म्स निजीकरण के दायरे में आ रहे हैं, राजधानी और शताब्दी जैसी लाभ कमाने वाली गाड़ियां निजी ठेकेदारों को सौंपने की बातें हो रही हैं, मालगाड़ियां आदि भी. धीरे-धीरे सारी रेलवे…

आप रेलवे की नौकरी के लिए कम्पीटीशन की तैयारी करते रहिए. जैसे, पब्लिक सेक्टर के बैंकों की नौकरी के लिए, स्कूलों, कालेजों में नौकरी के लिए तैयारी कर रहे हैं. जब तक नौकरी होगी, बहुतों को पता चलेगा कि वे भारत के राष्ट्रपति के नहीं, किसी अडानी-अंबानी के मुलाज़िम हैं, जो अपनी शर्त्तों पर उनसे काम लेगा. उनके शोषण की कोई सुनवाई नहीं होगी.

अगर सब कुछ को व्यापारिक नज़रिए से देखना है, सबकुछ बाज़ार के हवाले ही करना है तो निजीकरण उत्तम विकल्प है. 

आप देखते रहिए, कैसे कर्मचारियों का, ख़ासकर छोटे कर्मचारियों का खून चूस कर और ग्राहकों की जेब काट कर बैंक, रेलवे, स्कूल, कालेज, अस्पताल आदि अकूत लाभ कमाएंगे. ये सारे लाभ उस मालिक के होंगे, देश के नहीं. वे सरकार को टैक्स देंगे. वैसे, टैक्स चुराने में वे मालिकान कितने माहिर हैं यह भी छुपी बात नहीं. 

हां… इस विधि से शायद देश की विकास दर अधिक तीव्र होगी.

तो… आइए… “देश के लिये” चुनी गई सरकार के निजीकरण अभियान की प्रशस्ति गाएं. निजीकरण ज़रूरी है, क्योंकि इस परशेप्शन को स्थापित करने में दशकों से बहुत जतन किए गए हैं और अंधाधुंध निजीकरण के वैचारिक विरोधियों को “अप्रासंगिकताओं का अरण्य रोदन” करने वाला क़रार दिया जा चुका है.

(लेखक पाटलीपुत्र यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं. ये लेख उनके फेसबुक टाईमलाईन से लिया गया है.)

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