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Reading: क्या ‘पुराना क़िला’ में दफ़न है ‘पांडवों की विरासत’?
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BeyondHeadlines > History > क्या ‘पुराना क़िला’ में दफ़न है ‘पांडवों की विरासत’?
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क्या ‘पुराना क़िला’ में दफ़न है ‘पांडवों की विरासत’?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 17, 2019 3 Views
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9 Min Read
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Rajiv Sharma for BeyondHeadlines

फ़िल्म जोधा अकबर की शुरुआत में ही जब भागते घोड़ों और ऊंटों के बीच से अमिताभ बच्चन की आवाज़ गूंजती है —“इतिहास गवाह है इस ज़मीन पर खून की खुराक से सल्तनतें पनपती रही हैं”, तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे ज़मीन की तहों के नीचे दफ़न दिल्ली का इतिहास फिर ज़िन्दा हो उठा हो. 

ऐसा ही अहसास तब होता है जब आप पुराना क़िला के मथुरा रोड की तरफ़ के पुराने पहले दरवाज़े के सामने खड़े हों जो आज भी अपनी विशाल प्राचीरों, बुर्जों और लकड़ी के दरवाज़ों के साथ उसी तरह सिर उठाए खड़ा है. हालांकि क़िले की ज़्यादातर दीवारें टूटने-फूटने के बाद खंडहर जैसा अहसास कराती हैं. 

यूं तो इस क़िले के दो दरवाज़े और भी हैं जिन्हें न जाने कब किन वजहों से बंद करवा दिया गया. इस पुराने क़िले को इतिहास के लिहाज़ से दिल्ली की सबसे ख़ास धरोहर इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि इसी क़िले को सबसे पुरानी दिल्ली इंद्रप्रस्थ, जो पांडवों की राजधानी थी, से जोड़कर देखा जाता है. 

हालांकि इस क़िले का निर्माण शेरशाह सूरी (1540-45) ने करवाया था जिसने हुमायूं को खदेड़ कर दिल्ली की बादशाहत हासिल की थी. हुमायूं ने जब दोबारा दिल्ली की गद्दी हासिल की तो उसने भी यहां कुछ ख़ास निर्माण और मरम्मत के काम ज़रूर करवाए होंगे. 

इतिहासकारों और पुरातत्ववेताओं का भरोसा है कि इससे पहले भी यहां कुछ रहा होगा, जिसके ऊपर या जिसे तोड़कर यहां यह सब बनाया गया होगा. इसी महाभारत युग के लिहाज़ से पुरातत्व विभाग यहां 1969 से कई बार खुदाई करवा चुका है. 

पुराने क़िले के इस दरवाज़े से अंदर आते ही दाईं ओर एक संग्रहालय है जिसमें इन खुदाइयों में मिली ऐतिहासिक महत्व की चीज़ों को सहेजकर रखा गया है. जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए थे तो उन्हें लाल क़िला न दिखाकर पुराना क़िला का ही दीदार करवाया गया था.

असल में ये शहर दिल्ली अपने आंचल में बहुत पुराना इतिहास समेटे है. यह कई-कई बार उजड़ी और बसाई गई है. उसी के मुताबिक़ इसके नाम भी बदलते रहे हैं. जैसे कभी यह पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ रही, तुग़लक़ों के समय इसी का नाम तुग़लक़ाबाद रहा और जब शाहजहां ने यहां लाल क़िला और जामा मस्जिद जैसे निर्माण करवाकर इसे राजधानी बनाया तो तब इसका नाम शाहजहांनाबाद रखा गया. 1911 में अंग्रेज़ों ने कलकत्ता से हटाकर दिल्ली को देश की राजधानी बनाया था और तब से अब तक यह देश की राजधानी बनी हुई है. 

इनमें से इंद्रप्रस्थ की कहानी सबसे पुरानी और दिलचस्प है. कहा जाता है कि पांडवों को कुछ न देने पर अडिग कौरवों से आख़िरकार उन्हें पांच गांव मिले थे. ये गांव सोनीपत, पानीपत, बागपत, इंद्रपत और तिलपत थे. इनमें से इंद्रपत गांव के बारे में पुरातत्व विभाग के पास यह पुख्ता जानकारी है कि 1913-14 तक यह गांव पुराने क़िले के आसपास मौजूद था.

1915 में इसे यहां से हटवा दिया गया. यह बात इसी क़िले में मौजूद पुरातत्व विभाग के एक शिलापट्ट पर भी लिखी है. इतिहासकार इस गांव को पांडवकालीन मानते हैं. इतिहासकारों के अनुसार यह इतिहास क़रीब 1000 ईसा पूर्व का हो सकता है. 

पुराना क़िला में खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को जो मृदभांड मिले हैं उन्हें इसी पांडव काल का माना जाता है. यहां के संग्रहालय में और भी बहुत कुछ सजा है. इनमें मिट्टी के बर्तन, कच्ची-पक्की मिट्टी की पुरानी छोटी-बड़ी मूर्तियां और सिक्के-मोहरें आदि शामिल हैं. 

महाभारत के अलावा इनमें से कुछ को मौर्यकालीन यानी ईसा से 200 से 300 साल पूर्व का, कुछ को राजपूत कालीन और कुछ को मुग़लकाल का माना जाता है. एक पक्की मिट्टी की हाथी की बड़ी मुग़लकालीन मूर्ति तो आज भी पूरी तरह ठीक-ठाक हालत में है. 

इस संग्रहालय के अलावा जब जहां क़रीब पांच साल पूर्व खुदाई हुई थी तो ज़मीन के नीचे एक मौर्यकालीन कुंआ भी मिला था, जिसे मैंने खुद भी देखा था.

आज पुराना क़िला देखने आने वालों में इतिहासकार या पुरातत्वविद तो शायद ही कोई नज़र आता हो, हां प्रेमी युगल यहां बड़ी तादाद में देखे जा सकते हैं. पुरातत्व विभाग ने यहां कई ख़ास इंतज़ाम किए हैं. जैसे बड़े दरवाज़े के बाहर भी शीशे के द्वार लगा दिए गए हैं. अंदर बहुत सुंदर बागवानी से इसे सजाया गया है तो पुराना क़िले की विरासत के मुताबिक़ ही कुछ नए निर्माण भी करवाए गए हैं. 

यहां इतिहास के लिहाज़ से दो ही ख़ास इमारतें देखने के लिए मौजूद हैं. पहली तो है शेरशाह सूरी की बनवाई हुई मस्जिद कला-ए-कुहना और उससे थोड़ा आगे है शेर मण्डल. कला-ए-कुहना मस्जिद ख़ासतौर पर ध्यान आकृष्ट करती है क्योंकि यह बहुत अच्छी हालत में है और इसे देखकर यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है कि आख़िर 1540-45 के बीच बनी यह मस्जिद आज भी इतनी अच्छी हालत में कैसे है. 

यह मस्जिद शेरशाह और हुमायूं के समय क़िले की इबादतगाह के तौर पर इस्तेमाल की जाती थी. इसके निर्माण में लाल बलुआ पत्थर का इस्तेमाल तो किया ही गया है, इसके पिछले हिस्से में पांच द्वारनुमा निर्माण है, जिनके निर्माण में काले और सफ़ेद संगमरमर का बहुत ही सुंदर और बारीक इस्तेमाल किया गया है. यह सारी सजावट और पत्थर आज भी नए जैसा या ज्यादा पुराना निर्माण न होने का अहसास कराते हैं. 

इससे थोड़ा-सा आगे बना है दो-मंज़िला शेर मण्डल. कहा जाता है कि इसे शेरशाह सूरी ने अपने मनोरंजन के लिए बनवाया था, लेकिन हुमायूं ने इसका इस्तेमाल लाइब्रेरी के तौर पर किया, जिसकी सीढ़ियों से गिरकर ही उसकी मौत हुई थी. इसी के पास एक शाही हमाम भी मौजूद है, लेकिन इसके अंदर प्रवेश करने का कोई रास्ता अब वहां बचा दिखाई नहीं देता.

पुरातत्व विभाग ने पुराना क़िला को सुंदर और दर्शनीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. बस, इस क़िले की खंडहरनुमा दीवारें यह अहसास कराती हैं कि इन्हें बनाए या बचाए रखने के लिए कुछ और बेहतर कोशिशें की जानी चाहिए. 

दिल्ली का पर्यटन विभाग पुराना क़िला के भीतर मुख्य दरवाज़े से अंदर आने के बाद कुछ दाईं ओर दीवार पर रोज़ रात को एक लाइट एंड साउंड शो वाला प्रोग्राम “इश्क-ए-दिल्ली” दिखाता है. इसके रोज़ दो शो होते हैं. पहला शो साढ़े सात बजे होता है. यह ऐसा प्रोग्राम है जिसमें पूरी दिल्ली का सारा पुराना इतिहास सजीव हो उठता है. इसका टिकट पहले 80 रुपये का था जो शायद अब सौ रुपये का कर दिया गया है. 

बाहर से आए पर्यटक तो पुराना क़िला को देखना भूल ही नहीं सकते, दिल्ली के वाशिंदों को भी इतिहास से रूबरू होने के लिए इस प्रोग्राम को कम से कम एक बार ज़रूर देखना चाहिए. यदि ऐसी ऐतिहासिक विरासतों का भला इन्हें बड़े औद्योगिक घरानों को गोद देकर हो सकता है तो इसे भी लाल क़िले की तरह गोद दिया जा सकता है, लेकिन यह काम खुले तौर पर और सबको बताकर किया जाना चाहिए ताकि किसी तरह की ग़लतफ़हमी पैदा न हो.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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