Rajiv Sharma for BeyondHeadlines
चीन के साथ अमेरिका की ट्रेड वार की आंधी अभी थमी नहीं थी कि भारत के लिए भी अमेरिका की तरफ़ से ट्रंप के तुग़लकी फ़रमान के तौर पर एक बुरी ख़बर आ गई. उसने कारोबार या व्यापार में भारत का तरजीही राष्ट्र का दर्जा ख़त्म कर दिया.
वैसे उसने इस दर्जे जिसे जीएसपी कहते हैं, को ख़त्म करने का फ़ैसला तो चार मार्च को ही ले लिया था, लेकिन इसके लिए भारत को दो माह की मोहलत दी गई थी जो तीन मई को ख़त्म हो गई. अब पांच जून से उसके फ़ैसले पर अमल शुरू हो गया है.
उसके इस फ़ैसले से भारत से जो 2000 उत्पाद उसे बिना किसी शुल्क के निर्यात किए जाते थे अब उन पर अमेरिका में आयात शुल्क लगेगा, इसलिए अमेरिका को भारत का यह निर्यात अब उतना आसान नहीं रह जाएगा.
इस फ़ैसले पर अमेरिका का कहना था कि अभी तक भारत ने अपने बाज़ार में अमेरिकी कंपनियों को आसान पहुंच के मौक़े मुहैया नहीं कराए हैं और न ही ऐसा करने का भरोसा दिलाया है. वैसे यह सुविधा किसी एक देश को नहीं, बल्कि कई विकासशील देशों को मिल रही थी, जिसे अमेरिका ने 1976 में शुरू किया था.
अमेरिका का कहना है कि भारत को जिन हालात में यह सुविधा दी गई थी, अब उसकी अर्थव्यवस्था उससे बहुत ऊपर उठ चुकी है. वैसे यह एक अजब संयोग है कि जिस दिन अख़बार में यह ख़बर आती है उसी दिन अख़बार के एक दूसरे पन्ने पर यह ख़बर भी होती है कि अमेरिकी रक्षा मंत्री ने कहा है कि भारत और अमेरिका हिंद-प्रशांत इलाक़े में सबसे बड़ी सैन्य साझेदारी पर काम कर रहे हैं.
ऐसे में ट्रंप प्रशासन के किस बयान से भारत के लिए उसके रवैये को तौला जाए यह एक मुश्किल सवाल है. पर यह कोई पहली बार नहीं है. जब से डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं तब से उनके फ़ैसले और बयान ऐसे तुग़लकी फ़रमानों की तरह बाहर आते रहे हैं. यह काम तो उनके राष्ट्रपति बनने से पहले उनके चुनाव प्रचार में ही शुरू हो गया था.
उन्होंने अपने कार्यकाल की शुरूआत ही अपने देश में कई मुस्लिम देशों के लोगों के आने पर बैन लगाते हुए की थी. हालांकि उनके इस फ़ैसले को अदालत में चुनौती दी गई थी. वो अपने फ़ैसले पर अड़े रहे और उन्होंने ज़रूरत पड़ने पर इसके लिए दूसरी अधिसूचना तक जारी की.
उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा ने भी खुले तौर पर मुस्लिमों को आतंकवाद के मसले पर चेताया था, लेकिन उन्होंने मुस्लिमों को कोई ऐसी चोट नहीं पहुंचने दी थी. तभी ट्रंप ने यह कहकर लंदन के मेयर सादिक़ खान का मज़ाक़ भी उड़ाया था कि यदि वे अमेरिका आना चाहें तो उन्हें इसकी इजाज़त मिल सकती है.
अभी जब ट्रंप ब्रिटेन के दौरे पर थे और वहां हज़ारों लोग उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे हुए थे, तब भी वे सादिक़ खान पर फब्ती कसने से चूके नहीं. उन्होंने मेयर के तौर पर सादिक़ खान को भयावह काम करने वाला तो कहा ही, साथ ही यह भी कहा कि वे मेरे ऊपर फोकस करने के बजाए लंदन में बढ़ रहे अपराधों पर फोकस करें तो ज्यादा बेहतर होगा.
अब तक लगातार ट्रंप के बयान और फ़ैसले इसी तरह के बे सिर-पैर वाले ही रहे हैं. वे कब किधर पलटी मार जाएं इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. इसीलिए भारत का तरजीही राष्ट्र का दर्जा ख़त्म करने वाले फ़ैसले पर भारत ने यह सधी हुई प्रतिक्रिया दी कि आगे बढ़ते दोस्ताना रिश्तों पर इससे कोई आंच नहीं आएगी, लेकिन भारत उनसे सावधान ज़रूर हो गया होगा.
हालत यह है कि पिछले दिनों मैक्सिको बोर्डर पर दीवार बनाने के लिए संसद से पैसा न मिलने पर वे ऐसे अड़े कि दुनिया की इकलौती महाशक्ति अमेरिका में कर्मचारियों को वेतन न मिलने पर शट डाउन की हालात पैदा हो गए. ऐसा होने पर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी गई.
उनके बयानों और फ़ैसलों से पहले यह याद रखना ज़रूरी है कि उनके आने के बाद अमेरिका में यह भी जांच का विषय रहा है कि उनके राष्ट्रपति बनने में हाथ किसका रहा है. इसके लिए रूस का नाम लिया जाता रहा है, लेकिन वे इससे भी ज़रा विचलित नहीं हुए.
उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि यदि मैं कोई अपराध करता हूं तो अमेरिका का राष्ट्रपति होने के नाते खुद को खुद ही उसके लिए माफ़ भी कर सकता हूं. यहां हमें याद कर लेना चाहिए कि जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए उससे ठीक पहले इसी चुनाव में पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन बढ़त लिए हुए थीं.
सारी दुनिया के लिए सबसे बड़ी मुसीबत उनका यह नज़रिया रहा है कि उनके लिए दुनियावी संधियों और क़रारों की भी कोई अहमियत नहीं. वे कब कौन-सा क़रार और संधि रद्द कर दें और किस देश पर कौन से प्रतिबंध थोप दें, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता.
ईरान और वेनेजुएला से तेल आयात पर वे बैन लगा चुके हैं. यह प्रतिबंध तो इन देशों पर लगाया गया है, लेकिन इसका ख़ामियाजा वे सारे देश भुगत रहे हैं जो उनसे तेल आयात करते थे. इसी तरह से उन्होंने रूस और उत्तरी कोरिया पर भी बैन लगाए हुए हैं.
ख़बर है कि इन प्रतिबंधों के चलते ही वे भारत से 15 अरब डाॅलर के सैन्य साजो-सामान के क़रार हासिल करने के बावजूद भारत के रूस से सैन्य साजो-सामान खरीदने के काम में अड़ंगे लगा रहे हैं. हालांकि विशेष छूट के नाम पर भारत ने रूस से 40 हज़ार करोड़ में एंटी बैलेस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदा है. यह छूट भी भारत को तब मजबूरी में दी गई जब भारत के विदेश मंत्रालय ने साफ़ कर दिया कि भारत किसी देश पर लगाए सिर्फ़ संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिबंधों को मानता है और किसी के भी नहीं.
ट्रंप ने पिछले दिनों सबसे बड़ा कारनामा यह किया कि ईरान के साथ बराक ओबामा के समय में अमेरिका ने कई देशों के साथ मिलकर जो परमाणु अप्रसार संधि की थी, उसे रद्द कर दिया और उस पर फिर वही 2015 वाले प्रतिबंध थोप दिए. इससे मध्य पूर्व में तनाव इतना बढ़ गया कि अमेरिका ने वहां अपनी मिसाइलें और युद्धपोत तक तैनात कर दिए. यह स्थिति तब पैदा हुई जब ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने भी अमेरिका के पीछे हटने के बाद इससे एक हद तक पीछे हटने का ऐलान कर दिया.
अपने दिमाग़ पर ज़रा सा ज़ोर देकर कोई भी इस बात को समझ सकता है कि जब अमेरिका ने ही इस क़रार से पैर पीछे खींच लिए और ईरान पर प्रतिबंध भी थोप दिए तो फिर वही इस संधि का पालन करने को बाध्य क्यों हो?
ईरान और बाक़ी दुनिया को पता है कि उसकी इस हरकत का मतलब यह है कि वह वहां सत्ता परिवर्तन चाहता है, लेकिन खुले तौर पर अमेरिका इससे इनकार करता है. इन प्रतिबंधों का असर जनता पर क्या होता है, इसका असर भारत के लोगों ने कभी महसूस नहीं किया है, इसलिए वे इसके बारे में कुछ जानते नहीं.
जब बाहर से आने वाली छोटी-छोटी चीज़ें मिलनी बंद हो जाती हैं तो असहाय जनता इस कमी की मार को कैसे झेलती है, इसे आजकल ईरान और वेनेजुएला जैसे देशों के लोग महसूस कर रहे होंगे. उत्तर कोरिया के साथ भी ट्रंप की दो दौर की बातचीत बेनतीजा रही है और वहां भी कड़े प्रतिबंध लगाए गए हैं.
ट्रंप ने यही नहीं किया, उन्होंने अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर यूनीसेफ़ जैसी अहम संस्था और क्लाईमेट समिट जैसी मूवमेंट से खुद को अलग कर लिया. उनके इन फ़ैसलों से यही लगा कि जैसे अमेरिका दुनिया की इकलौती महाशक्ति होने की अपनी ज़िम्मेदारी को बिल्कुल भूल चुका है. कुछ ही समय पहले ट्रंप से पूर्व बराक ओबामा के अमेरिका का राष्ट्रपति रहते किसी ने भी अमेरिका के प्रति कभी ऐसा महसूस नहीं किया था.
हालांकि ऐसा नहीं है कि ट्रंप से पहले अमेरिका ने अपने हक़ में दुनियावी हित नज़रअंदाज़ न किए हों क्योंकि उसकी निगाहें हमेशा तेल के अथाह भंडार वाले और अन्य संसाधनों से भरे-पूरे देशों पर गड़ी रहती हैं. ऐसे देशों में सैन्य हस्तक्षेप का मौक़ा आते ही वह कभी चूका नहीं है और अपने हित सधते ही वह वहां से हट जाता रहा है. जैसे अभी सीरिया के गृह युद्ध से उसने खुद को अलग कर लिया है.
वियतनाम और अफ़ग़ानिस्तान ही इसके कुछ हद तक अपवाद हैं, जहां उसे घाटा उठाना पड़ा है, लेकिन अब तो ट्रंप के फ़ैसलों और बयानों से ऐसा लगने लगा है जैसे अमेरिका ने अपने फ़ायदों पर फोकस करते हुए शायद बाक़ी दुनिया के हितों और हक़ों के बारे में बिल्कुल सोचना ही छोड़ दिया है.
हमें यह याद रखना चाहिए कि अमेरिका के राष्ट्रपतियों के मुख से ही हम -वी आॅर द पाॅवर- जैसे जुमले सुनते आए हैं तो उनको उनकी दुनियावी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कैसे किया जा सकता है?
भारत का तरजीही राष्ट्र का दर्जा ख़त्म करने के ट्रंप के तुग़लकी फ़रमान से ठीक पहले अमेरिका चीन से ट्रेड वार में उलझा हुआ था. जब दोनों देशों के बीच बातचीत चल रही थी तब ट्रंप रोज़ चीन को धमकी दे रहे थे कि यदि वह बातचीत से पीछे हटा तो मैं उसे बर्बाद कर दूंगा और आख़िर उन्होंने चीन से आयात होने वाले 200 अरब डाॅलर के व्यापार पर दस फ़ीसदी से बढ़ाकर 25 फ़ीसदी आयात शुल्क ठोक दिया.
बाद में तो यह ख़बर भी आई कि उसने चीन के अतिरिक्त 300 अरब डाॅलर के आयात पर भी शुल्क लगाने की कार्रवाई के आदेश दे दिए हैं. इसके साथ ही अमेरिका ने बिना नाम लिए चीन की सबसे बड़ी कंपनी हुआई समेत उसकी पांच बड़ी कंपनियों को भी काली सूची में डाल दिया. इसके लिए उसका तर्क यह था कि संवेदनशील मामलों पर हिफ़ाज़त के लिहाज़ से यह फ़ैसला लिया गया.
यही नहीं, वह चीन के ख़िलाफ़ ताइवान से लगातार सीधा सहयोग बढ़ा रहा है और उसके तटों पर उसके युद्धपोत दिखने लगे हैं. इन हालात में पहले से ही बेहद आक्रामक चीन ने अमेरिका को युद्ध तक की धमकी दे डाली, लेकिन अमेरिका पर इसका कोई असर नहीं हुआ.
अब भारत के ख़िलाफ़ तरजीही राष्ट्र का दर्जा ख़त्म करने का फ़रमान आया है. इसका फ़ैसला तो उसने मार्च में ही कर लिया था, यह तो बताया जा चुका है, लेकिन भारत को फिर भी उम्मीद थी कि बढ़ते सैन्य रिश्तों के चलते शायद इसमें कुछ ढील दी जाए या इसे आगे बढ़ा दिया जाए, लेकिन भारत की यह उम्मीद उसके काम नहीं आई. इसलिए जब तक ट्रंप हैं तब तक भारत के रिश्ते अमेरिका से बहुत अच्छे हैं या बेहतरी की तरफ़ बढ़ रहे हैं, इसे लेकर हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं.)