BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Reading: जनगणना, चुनाव, राजनीति और मुसलमान
Share
Font ResizerAa
BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
Font ResizerAa
  • Home
  • India
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Search
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Follow US
BeyondHeadlines > India > जनगणना, चुनाव, राजनीति और मुसलमान
IndiaLatest NewsLeadबियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी

जनगणना, चुनाव, राजनीति और मुसलमान

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published July 16, 2019
Share
17 Min Read
SHARE

Firdous Azmat Siddiqui for BeyondHeadlines

1882 में जब पहली बार हिन्दुस्तान में निकाय चुनाव के पितामह लार्ड रिपन ने आधुनिक सिद्धांत पर आधारित निकाय चुनाव की प्रक्रिया की नींव डाली. उस वक़्त यह कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बीसवीं सदी में हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनकर उभरेगा. 

उदारवादी लार्ड रिपन के इस योगदान ने हिन्दुस्तान की सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य ही बदल दिया. 1881 का दशक हिन्दुस्तान की सामाजिक और राजनीतिक इंजीनियरिंग के लिए बहुत ख़ास है. इसी साल पूरे मुल्क में पहली बार जनगणना की गई, हालांकि इसके पीछे ब्रितानी शासन का राजनीतिक प्रयोजन कहा जाता है कि इस जनगणना के ज़रिए ब्रितानी सरकार का भारत के सामाजिक सोपान को एक फिक्स पहचान देने का पहला संस्थागत प्रयास शुरु हुआ. 

1857 के बाद शुरू हुई धार्मिक पहचान को विस्तृत करके बहुत सी जातीय, जनजातीय, पेशेगत व जेंडर के आधार पर एक अधिकारिक रिपोर्ट जारी होने का क्रम शुरू हुआ कि किस धर्म और जाति के कितने लोग हैं. उनकी कैसी सामाजिक और आर्थिक हालात हैं. उनकी जाति की हालत के क्या सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व राजनीतिक कारण रहे हैं. और सबसे अहम इस रिपोर्ट के ज़रिए मुसलमानों को एक जनसंख्या बम के रूप में पहचान दी गई. मुस्लिम औरतों की यौनिकता पर बहुत सी नकारात्मक व शर्मनाक टिप्पणियां की गईं. 

भारत प्राचीन काल से देवदासियों और गणिकाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है. पर इस रिपोर्ट के ज़रिए वेश्याओं को मुस्लिम की श्रेणी मे रखा गया. इस बात पर कोई एतराज़ नहीं कि सारी वेश्याएं या सेक्स वर्कर मुस्लिम क्यों. क्योंकि इसके बहुत से सामाजिक और आर्थिक कारण रहे हैं. समस्या इस बात पर है कि आधिकारिक रूप से मुस्लिम औरतों को स्थापित किया गया कि वे सेक्सुअली बहुत वाइब्रेंट हैं. मुस्लिम औरत हिन्दू औरत से ज़यादा फर्टाइल है. और सारी बुरे चाल चलन की हिन्दू औरतें इस्लाम स्वीकार कर लेती हैं, इसलिए सारी वेश्याएं मुस्लिम हैं. इसलिए मुस्लिमों की तादाद बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है. तो जनसंख्या का हव्वा पहली सेंसस रिपोर्ट में ही दे दिया गया. और मज़ेदार बात यह है कि इस समय परिवार नियोजन की संकल्पना भारत तो छोड़िए पूरे विश्व में कहीं न थी. 

इस जनगणना रिपोर्ट के फौरन बाद लार्ड रिपन की निकाय चुनाव की पहल ने एक तरह की राजनीतिक हलचल पैदा कर दी. एक तरफ़ बहुसंख्यक हिन्दुओं के सामने निकट भविष्य में अल्पसंख्यक होने का ख़तरा पैदा हो गया. दूसरी तरफ़ मुस्लिम सोशल रिफार्मर जिनके सामने अभी तक सिर्फ़ क़ौम को पिछड़ेपन से निकालकर आधुनिक शिक्षा से लैस करके मुख्यधारा से जोड़ने का चैलेंज था, अब उनकी फ़िक्र में राजनीतिक मुद्दे भी आ गए. बावजूद इसके कि सेंसस रिपोर्ट में उन्हें बच्चा पैदा करने की मशीन कहा गया. लेकिन कहीं भी किसी भी प्रांत में उनकी वृद्धि दर हिन्दुओं से अधिक न थी और औसतन वह 13-14 फ़ीसदी ही कुल आबादी के थे. 

और उसी दौरान बंगाल के बढ़ते राष्ट्रवाद पर कंट्रोल करने के लिए एक समानान्तर राजनीतिक सेफ्टी वाल्व अखिल भारतीय कांग्रेस के रूप में 1885 से स्थापित किया गया ताकि शिक्षित बुर्जुवा की राजनीतिक महत्वकांक्षा को तृप्त किया जा सके. कांग्रेस के दो तीन अधिवेशन के साथ ही मुस्लिम बुर्जुवा में अल्पसंख्यक होने की भावना ने जड़ जमा लिया कि अब उनका राजनीतिक भविष्य बहुसंख्यक हिन्दुओं के अधीन ख़तरे में होगा, जो पूरी तरीक़े से ब्रह्मणवादी संस्था है. 1887 में ही मोहम्मडन सोशल कान्फ्रेंस के रूप में मुस्लिमों ने कांग्रेस को एक करारा जवाब दिया. 

कहने को तो मोहम्मडन सोशल कान्फ्रेंस का मक़सद मुस्लिमों की सामाजिक शैक्षणिक हालत पर चर्चा करना था, पर इसके विपरीत यह हिन्दुस्तान में व्याप्त राजनीतिक परिदृश्य से यह अपने को अलग नहीं कर सका और मुस्लिमों का राजनीतिक मुस्तक़बिल उनकी चर्चा का अहम हिस्सा हो गया. जिसकी परिणति 1906 में स्थापित मुस्लिम लीग के रूप में हुई. 

1906 में ही आग़ा ख़ां के अधीन एक मुस्लिम डेलीगेशन मुस्लिमों के लोकल चुनावी प्रतिनिधित्व पर आरक्षण को सुनिश्चित करने की चर्चा करने के लिए वायसराय लार्ड कर्जन से मिला. यह मीटिंग आने वाले दशकों के लिए भारतीय राजनीति में एक मील का पत्थर साबित हुई. 

1909 में मार्ले मिंटो रिफार्म के ज़रिए सेपेरेट इलेक्टोरेट के सिद्धांत को वैधानिक रूप से स्वीकार कर लिया गया, हालांकि इसके पीछे ब्रिटिश का कोई मुस्लिम प्रेम नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी मुस्लिमों की राजनीतिक महत्वकांक्षा को चिंगारी देकर बंग भंग आंदोलन को दबाने का प्रयास था. परंतु यह एक ऐसा क़दम था कि जिसने भारत की भौगोलिक स्थिति बल्कि चुनावी राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया. 

मुस्लिमों का यह ख़ौफ़ दिन-प्रतिदिन और जड़ जमाता गया कि हिन्दू बहुल देश में वो दोयम दर्जे के नागरिक हो जाएंगे. इसी बीच 1891, 1901, 1911 व 1921 की जनगणना रिपोर्ट के तहत सबने एक सुर में मुस्लिमों की बढ़ती काल्पनिक जनसंख्या पर चिन्ता व्यक्त की. जिस वृद्धि दर का कोई लॉजिकल कारण देने में यह सारी सेंसस रिपोर्ट फेल रही, अलबत्ता 1921 की रिपोर्ट के बाद 1925 की हिन्दू महासभा की चिंता का कारण ये बना कि किस प्रकार मुस्लिम हम 5 और हमारे 25 के सिद्धांत पर बढ़ रहे हैं और यह हिन्दू राष्ट्र के लिए एक ख़तरा है. 

हर सेंसेस रिपोर्ट में मुसलमानों में वेश्याओं व विधवाओं को जनसंख्या वृद्धि दर का एक कारण बताया गया. ये भी बताया गया कि किस प्रकार हिन्दू औरतों का गर्भ मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि का कारक है. इसी तथ्य ने लव जिहाद की परिकल्पना को जन्म दिया. यह सब मुद्दे न सिर्फ़ साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की वजह रहे, बल्कि इसने चिरकालीन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का भय स्थापित कर दिया.

क्या वाक़ई एक समुदाय अपने युवकों के अंतर्समुदाय/अंतधर्मीय विवाह या प्रेम प्रसंग को प्रोत्साहित कर सकता है. जैसा कि कुछ कट्टरपंथी वर्ग इस बात को प्रचारित कर रहे हैं कि लव जिहाद एक समुदाय विशेष की तकनीक है दूसरे समुदाय की लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसाने की. इस तकनीक की ट्रेनिंग मदरसों में दी जा रही है. जहां आकर्षक युवाओं को आधुनिक कपड़ों में लैस कर गर्ल्स स्कूल के सामने खड़ा कर दिया जाता है. 

क्या ये नए आरोप मुस्लिम युवाओं को नए ढंग से हाशिए में नहीं खड़ा करते. जहां अभी तक ये आरोप था कि वो दाढ़ी रखते हैं, टोपी लगाते हैं, कुर्ता-पजामा पहनते हैं. तो हो सकता है वो किसी फंडामेन्टलिस्ट/ एक्सट्रीमिस्ट/आतंकवादी/सेपरेटिस्ट गतिविधियों में लगे हों और अगर किसी पश्चिमी वेशभूषा में लैस मुस्लिम लड़के का प्रेम संबंध इत्तेफ़ाक़ से किसी ग़ैर-मुस्लिम लड़की से हो जाए तो उसे कहेंगे कि ये मुसलमानों की स्ट्रैटजी है हिन्दू लड़कियों को बहलाने की. 

हम ये क्यूं नहीं समझते कि यही प्रेम संबंध तो एक हिन्दू लड़के और मुस्लिम लड़की के बीच भी हो सकता है तो क्या ये एक समुदाय की चाल है दूसरे समुदाय को नीचा दिखाने की. बेटी बचाओ आंदोलन व सांप्रदायिकता में क्या संबंध है. क्या इस तथाकथित आंदोलन की आड़ में सदियों से चली आ रही अमन-चैन को ख़त्म करने की चाल नहीं है. 

दरअसल, अगर हम अपने आसपास ग़ौर करें तो ये छोटे-छोटे मुद्दे बड़े आम हो गए हैं. ख़ासतौर से गत 15-20 वर्षों में हिन्दुस्तानी समाज का जितना विषीकरण किया गया, उतना शायद ही पहले रहा हो और अंतधर्मी विवाह हिन्दू-मुस्लिम दंगों की एक वजह बन गया. किसी भी समाज का संप्रदायीकरण कभी भी रातो-रात नहीं होता और न ही कोई साम्प्रदायिक दंगा तत्काल प्रभाव से होता है. तत्काल कारण ज़रूर हो सकते हैं, परन्तु उस दंगे की पृष्ठभूमि एक सोची-समझी विचारधारा का नतीजा होता है. ये ज़रुरी नहीं है कि एक संप्रदायिक विचारधारा के परिणिति हमेशा एक दंगे के रुप में होगी. परन्तु ये नामुमकिन है कि एक साम्प्रदायिक दंगा बिना किसी विचारधारा के हो जाए.

चुनावी बाध्यता

ऐसे अविश्वास के माहौल में अल्पसंख्यक मुस्लिमों के पास अब सिवाय सरकार की तरफ़ से प्रोटेक्टिव मेज़रमेंट के दूसरा कोई रास्ता न था. 1916 के लखनऊ पैक्ट में लीग ने अपनी इस ज़िद को भी पूरा कर लिया और शायद लखनऊ पैक्ट का उल्लंघन न होता तो पाकिस्तान का नामों-निशान न होता. इस पैक्ट के हिसाब से प्रावेंशियल लेबल पर सेपेरेट इलेक्टोरेट के सिद्धांत को मान लिया गया और बंगाल व पंजाब जहां लीग बहुसंख्या में थे, वहां 50 फ़ीसदी सीट रिज़र्व कर दी गई. यूपी सेंट्रल प्राविंस में 1/3 जो कि कांग्रेस के बहुत से लीडर के लिए आपत्ति का कारण रहा कि कई प्रांतों में मुस्लिम बहुसंख्या या अच्छी तादाद में होने के बावजूद क्यों सीट आरक्षित की जाए.

1916 में लखनऊ पैक्ट को एक तरफ़ जहां बी. आर. अम्बेडकर ने माना कि इस समझौते से जहां एक तरफ़ हिन्दुओं की तरफ़ से एक तरह की रियायत थी, वहीं इसने दोनों समुदायों के बीच कोई सुलह नहीं पैदा की. जहां औपनिवेशिक हालात में इस पैक्ट को बहुत अहमियत दी गई दोनों समुदायों के लिए. 

वहीं 1947 के बाद इस पैक्ट के ज़रिए कांग्रेस की आलोचना की जाती रही है कि उसने अखिल भारतीय प्रतिनिधि होते हुए भी अपनी पोज़ीशन के साथ समझौता कर लिया. इसने मुस्लिम सम्प्रदायवाद और अलगाववाद से समझौता कर लिया. 

फ्रांसिस राबिंसन का भी मानना है कि मुस्लिम लीग तमाम मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. यह तो सिर्फ़ यूपी के यंग मुस्लिम लीडर व कांग्रेस के बीच एक डील थी.

ज़्यादातर प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने लखनऊ पैक्ट का व्यक्तिगत लेबल पर विरोध किया. हैरतअंगेज़ बात यह है कि बिहार के मज़हरूल हक़ ने इसका सख्त विरोध किया और कहा कि उन्हें इसे मानने को बाधित किया गया.  इस तरह से 20वीं सदी के चुनावी सुधार ने न केवल भारत के भौगोलिक प्रांत को परिवर्तित किया, बल्कि यहां की राजनीतिक परिदृश्य के लिए यह सरगर्मिंयां बड़ी अहम हो गईं. 

मुसलमानों ने 1920 के बाद ख़ासतौर पर चेम्सफोर्ड सुधार के बाद अपने लिए एक ख़ौफ पैदा कर लिया जिसे काल्पनिक कहा जाए तो ग़लत न होगा कि बहुसंख्यक हिन्दू राष्ट्र में मुस्लिम को सेकेंड क्लास का नागरिक बना दिया जाएगा और आज यही मांग जंतर-मंतर पर धरना देने वाले खुलेआम कह रहे हैं कि 2029 तक मुसलमान बहुसंख्यक हो जाएगा, इसलिए इन पर कंट्रोल ज़रूरी है कि दो बच्चों का नियम सबके लिए बना दिया जाए. 

यह डर जो औपनिवेशिक जनगणना रिपोर्ट में उठा, आज मुकम्मल जड़ जमा चुका है कि 1881-1931 तक सारी रिपोर्ट मुस्लिम को बच्चा जनने की फैक्ट्री के रूप में प्रोजेक्ट कर रही है और उसकी वजह उनका खाना पीना, विधवा पुनर्विवाह का छूट, बहु-विवाही, वेश्यावृत्ति की व्यापकता और एक भी सेंसस रिपोर्ट किसी भी वृद्धि दर की सही व्याख्या करने में असफल रही कि किसी देश की जनसंख्या वृद्धि के तार्किक कारण क्या हैं. 

यह अपने आप में बहुत हास्यास्पद है कि कैसे कोई जेनेटिकली ज़्यादा फर्टाइल होगा. यहां तक कि 1920 के बाद यह बहस आम हो गई और 1925 में बनी हिन्दू महासभा ने मुसलमानों ‘हम 5 और हमारे 25’ का आरोप लगाया जो कि अपने आप में तथ्यों के ख़िलाफ़ है. मुस्लिम में कभी भी बहु-विवाह आमतौर पर प्रचलन में नहीं थी, बल्कि यह ज़मींदार और कुलीन वर्ग की शान शौक़त का प्रतीक था, जो किसी भी मज़हब का हो सकता था. हिन्दू या मुस्लिम यहां तक कि जब ब्रिटिश भारत में बसे तो उनके भी कुलीन वर्ग ने अंतःपुर व हरम व्यवस्था को अपनाया. ठीक वैसे ही जैसे राजा व नवाबों ने अपनाया था. 

दूसरा अगर मांस का सेवन फर्टिलिटी का कारण है तो युरोप की नकारात्मक ग्रोथ रेट न होती. ऐसे बहुत से अतार्किक वजह बताई गई जिसे मुस्लिम के ख़िलाफ़ एक तरह का प्रोपेगंडा के तौर पर इस्तेमाल किया गया. हिन्दू विधवाओं का मुस्लिम मर्दों से शादी जिसने आज के लव जिहाद की पृष्ठभूमि तय की, जबकि सच्चाई यह है कि जिस तरह से हिन्दू समाज में बेवाओं की हालत ख़राब थी और दूसरी शादी पूरी तरह वर्जित थी, बावजूद सख्त क़ानून के मुस्लिम भी उनसे पीछे न थे. बेवा उनके घर के लिए भी अपशकुन थीं. 

तो ऐसे में लिबरल खाना, लिबिरल शादी की रस्म या किसी क़ौम को जेनेटिकली फर्टाईल घोषित करना तर्कसंगत नहीं है. और मुस्लिम ऐसी भ्रमित रिपोर्ट का शुरू से शिकार हो गया. जिसका आज भी बहुत नकारात्मक असर है. मुस्लिम औरतों को बच्चा जनने की मशीन बताना बहुत शर्मनाक है. किसी भी देश की जनसंख्या वृद्धि के बहुत से सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक कारण होते हैं जिन्हें यह प्रोपेगंडा करने वाले या तो समझते नहीं या जानबूझकर समझना नहीं चाहते.

हाल में प्रस्तावित जनसंख्या बिल का देशहित में स्वागत होना चाहिए पर उसके साम्प्रदायिक अभिप्राय को नज़रअंदाज़ करना संगठनात्मक रूप से अल्पसंख्यकों को डराने का धोतक है. जिस प्रकार खुलेआम मुस्लिम समुदाय को बच्चे जनने की फैक्ट्री देश की राजधानी जंतर-मंतर में पेश किया जा रहा है वो एक समुदाय विशेष के लिए बहुत अपमानजनक है. 

जनसंख्या विनियमन विधेयक —2019 निजी बिल के ज़रिए जनसंख्या नियंत्रण की बात की जाए तब तक तो ठीक, पर एक समुदाय विशेष पर कटाक्ष करना सरासर आपत्तिजनक है. जनसंख्या का सीधा संबंध शैक्षणिक और आर्थिक कारक है न कि धर्म जिसे औपनिवेशिक रिपोर्ट ने प्रचारित किया और हम आज भी उसी को आधार मान रहे हैं. 

मुझे समझ में नहीं आता कि 1881 से 2011 तक हुई वह एकतरफ़ा वृद्धि दर गई कहां, जबकि मुस्लिम पूरी जनसंख्या का औसतन उस समय भी 14-15 प्रतिशत रहा और आज भी. उस गति से तो अब तक कम से कम  50-50 का अनुपात आ जाना चाहिए था. 

मेरा दूसरा प्रश्न है कि भारत सरकार को औपनिवेशिक रिपोर्ट की तरह ही धर्म के आधार पर हुई जनगणना को जाति, वर्ग व धर्म के अनुसार प्रकाशित करना चाहिए जिस पर खुली चर्चा की जा सके न कि आंकलन पर आधारित जनगणना को आधार माना जाए.

(लेखिका जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सरोजनी नायडू सेंटर फार विमेन स्टडीज़ में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.)

TAGGED:census politics and muslimsEditor's Pick
Share This Article
Facebook Copy Link Print
What do you think?
Love0
Sad0
Happy0
Sleepy0
Angry0
Dead0
Wink0
“Gen Z Muslims, Rise Up! Save Waqf from Exploitation & Mismanagement”
India Waqf Facts Young Indian
Waqf at Risk: Why the Better-Off Must Step Up to Stop the Loot of an Invaluable and Sacred Legacy
India Waqf Facts
“PM Modi Pursuing Economic Genocide of Indian Muslims with Waqf (Amendment) Act”
India Waqf Facts
Waqf Under Siege: “Our Leaders Failed Us—Now It’s Time for the Youth to Rise”
India Waqf Facts

You Might Also Like

EducationIndiaYoung Indian

30 Muslim Candidates Selected in UPSC, List is here…

May 8, 2025
Waqf FactsYoung Indian

World Heritage Day Spotlight: Waqf Relics in Delhi Caught in Crossfire

May 10, 2025
Waqf Facts

India: ₹1,662 Crore Waqf Land Scam Exposed in Pune; ED, CBI Urged to Act

May 10, 2025
Latest News

Urdu newspapers led Bihar’s separation campaign, while Hindi newspapers opposed it

May 9, 2025
Copyright © 2025
  • Campaign
  • Entertainment
  • Events
  • Literature
  • Mango Man
  • Privacy Policy
Welcome Back!

Sign in to your account

Lost your password?