By Abhishek Upadhyay
वो मेरे ननिहाल का कुआं था. मेरे घर में फ्रिज नहीं थी, पर मैंने अपनी मौसी के घर फ्रिज ज़रूर देखी थी. मौसा जी बड़े अधिकारी थे. पर फिर भी वो एक छोटा सा फ्रिज था. उन दिनों मौसी के घर जाने पर फ्रिज के ठंडे पानी का स्वाद ज़ेहन की शाखों को हर वक़्त भिगोए रखता था. पर ये पानी की ठंडक का स्वाद था. पानी का स्वाद कहां था?
उसे तो मैं अपने ननिहाल के उसी कुएं में छोड़ आया था वो कुआं उस इलाक़े की ‘सामूहिक फ्रिज’ हुआ करता था. सबके गले को ठंडा रखता था, सबकी उम्र भिगोए रखता था. गर्मियां तब देह पर हावी होती थीं, ज़ेहन पर नहीं. रहट पर पानी खींचते हुए हम बाल्टी के उपर आने का उसी उत्सुकता से इंतज़ार करते थे जैसे विद्यार्थियों की भीड़ हाई स्कूल के रिज़ल्ट के दिन दम साधे हुए अख़बार में रोल नंबर देखने का इंतज़ार करती थी.
वे अख़बारों में रोल नंबर ढूंढने और कुओं में बाल्टियां उतारने के दिन थे. ये वे दिन थे जब कुएं के भीतर बाल्टी गिराने पर होने वाली छपाक की आवाज़ से भी मोहब्बत हो जाती थी. कुओं की जगत के पास बैठकर बाल्टियों में भरा ठंडा ठंडा पानी देह पर उड़ेलने का आनंद क्या होता है, ये कौन समझेगा? कोई दीवाना, कोई सूफ़ी या फिर पानी से लबालब कुओं में झांक कर ‘अनलहक’ का नारा लगाने वाला किसी गांव का कोई भटका हुआ देवता.
तब ठंडा पानी बोतलों में नहीं बिकता था. वो एक ऐसी ‘सामूहिक फ्रिज’ में समाया रहता था जो सभी को उपलब्ध थी. कभी भी और कहीं भी. मैं अक्सर इस उधेड़बुन में पड़ जाता था कि रोज़ ही इतने लोग इतनी बार इस कुएं से पानी खींचते हैं पर ये पानी कम क्यों नहीं होता? आख़िर कहां से आता है ये पानी? क्या कुबेर ने हर कुएं के नीचे अपने अपने प्रहरी बिठा रखे हैं जो रोज़ किसी स्वर्ण फावड़े से ज़मीन खोदते हैं? कहीं वरूण देवता हर रात खुद ही उतरकर नीचे तो नहीं आते? खुद ही हर कुएं का लेवल चेक करते हों? खुद ही उसे लबालब करते हों? नचिकेता ने अवसर मिलने पर यम से आत्मा और परमात्मा के सवाल पूछे थे. उन दिनों मुझे यही बात सालती थी कि आख़िर नचिकेता ने यम से कुओं का रहस्य क्यूं नहीं पूछा?
कुएं थे तो मित्रताएं थीं. कुओं तक बाल्टी लेकर पहुंचने, वहां थोड़ी देर ठहरने और ठंडा पानी लेकर वापिस लौटते हुए कुछ अनजान से अपनापे के रिश्ते बनते थे. जब एक रोज़ गुलज़ार को पढ़ा तो मालूम पड़ा कि कितने बेशक़ीमती होते हैं ऐसे अनजान से रिश्ते. हालांकि गुलज़ार ने कंप्यूटर की क़ैद में आकर दिनों दिन ख़त्म होती किताबों की दुनिया की बात की थी, पर कुछ तो था जो फिर भी एक सा था—
“वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नहीं होंगे!”
न जाने कितने अंजान से रिश्ते बनाती थी, कुएं की वो अकेली सी रहट. अजीब मोजज़ा (चमत्कार) सा था. इन अंजान से रिश्तों की गरमाई कुएं के ठंडे पानी में घुलकर अलग ही अस्तित्व बना लेती थी. ठंडे के बीच गरम का ये अस्तित्व क्या था? कैसा था? कैसे था? क्या कोई अनोखा अद्वैत था, जिसकी कल्पना आदि शंकराचार्य ने भी न की हो? कुओं की उन्हीं रहट पर सुने हुए पानी खींचने वाली पनिहारिनों के मासूम गीत आज भी कानों में क्यूं शोर करते हैं? कुछ आवाज़ें समय के शोर से भी परे होती हैं. अगर कुएं न देखे होते तो ये अनोखा सत्य भी न जान पाता.
अब वे कुएं नहीं रह गए पर उनके नाम आज भी हैं. ये उन कुओं की जिजीविषा, उनके किए परोपकार का ही अमृत है शायद, कि उनका नाम अब भी गूंजता है. दिल्ली के चांदनी चौक के लाल कुएं इलाक़े में ‘लाल कुआं’ कौन सा है, या फिर गाज़ियाबाद के लाल कुआं इलाक़े का ‘लाल कुआं’ कहां है? शायद किसी को नही मालूम? शायद कभी मालूम रहा भी हो? या शायद समय की किसी काली रात में कुछ बुजुर्गों की बुझती हुई आंखों में आज भी चमक उठता हो. हम सभी के अपने-अपने बीते हुए शहरों में आज भी कुएं के नाम पर मोहल्लों, गलियों और इलाकों के नाम हैं मगर वे कुएं कहां गए, किस हाल में हैं? कोई नहीं जानता.
मैं रोज़ ही अपने बाद की पीढ़ी से कुओं के बारे में बात करता हूं. उन्हें चापाकल के बारे में बताता हूं. उनसे तालाबों, जोहड़ों और बावड़ियों का ज़िक्र करता हूं. पानी लगातार कम हो रहा है. शहर के शहर सूखते जा रहे हैं. कम से कम इस नई पीढ़ी को ये तो मालूम रहे कि कभी कुएं नाम की भी कोई चीज़ हुआ करती थी, जो उनके उजले भविष्य का आधार थी. जिन्हें एक रोज़ गगन चूमती इमारतें और बड़ी बड़ी फैक्ट्रियां निगल गयीं. जिन्हें किसी के ज़मीन पाटकर रुपयों के महल खड़ा करने का लालच पी गया.
आज भी उन जगहों से उन कुओं की आहें गूंजती हैं. आज भी हमारे सपनों में छपाक की आवाज़ के साथ रहट से उतरीं बाल्टियां गिरती हैं. आज भी हमारी ज़ुबान पर कुओं का शहद दौड़ता है. काश! कुएं फिर से ज़िन्दा हो उठते… काश! पानी में फिर से स्वाद होता… काश! इस पूरी लिखावट में “काश” नहीं होता!