डॉक्टर-मरीज़ के संबंध में संरचनात्मक असमानता का प्रभाव: मिर्ज़ापुर के दो मामलों का अध्ययन
Istikhar Ali for BeyondHeadlines
बंगाल में हुए घटना से डॉक्टरों में बहुत रोष उत्पन्न हुआ जिससे पूरे भारत में जगह-जगह डॉक्टर प्रदर्शन कर रहे हैं. डॉक्टरों का प्रदर्शन अपनी जगह उचित है, ये देखते हुए कि पिछले कुछ सालों में डॉक्टरों पर हमलों का दर बढ़ गया है. लेकिन ये समझने की भी ज़रूरत है कि मरीज़ या मरीज़ के सम्बंधियों का पक्ष अस्पतालों में क्या अनुभव करता जिससे इस तरह के वारदात होते हैं.
डॉक्टर और मरीज़ के बीच का रिश्ता बहुत संवेदनशील होता है जिसे समझना बहुत ज़रुरी है. मरीज़ या उनके संबंधी का ऐसा विश्वास होता है कि डॉक्टर भगवान स्वरुप होते हैं, वहीं डॉक्टर अपने ज्ञान के आधार पर स्वयं को समाज में उच्च कोटी का पेशेवर समझता है और समाज द्वारा प्रतिष्ठित माना भी जाता है.
ऐसे विश्वासों और सामाजिक मान्यताओं से भी वर्ग के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण का विचार उत्पन्न होता है. जिससे समाज का हर तबक़ा प्रभावित होता आ रहा है.
इसको समझना बहुत ज़रूरी है कि किस प्रकार समाज में संरचनात्मक असामनता बढ़ती जा रही है, जिससे न केवल एक विशेष समूह प्रभावित हो रहा बल्कि पूरे समाज का स्तरीकरण धर्म, जाति, लिंग और वर्ग के रूप में बढ़ रहा है जो भारत की एकता, अखंडता और बन्धुत्वा के साथ-साथ जन स्वास्थ की सेवाओं को भी अघात पहुंचा रहा है.
सवाल अब ये पैदा होता है कि डॉक्टरों पर हमले क्यों बढ़ रहे हैं? क्या डॉक्टर और मरीज़ के रिश्तों में विश्वास की कमी आ गई? स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े मैं अपने एमफ़िल के काम के दो केसों के कुछ भाग यहां पेश कर रहा हूं, जो अनुभाविक अध्ययन पर आधारित है जिससे बढ़ रहे हमले और कम हो रहे विश्वास को समझा जा सकता है.
उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर ज़िले की रहने वाली बानो (नाम बदला हुआ) अपने सबसे बड़े बेटे (बब्लू) जो एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह से घायल हुआ था, जिसकी दुर्घटना की ख़बर मिलते ही उसे देखने के लिए अपने बहु के साथ रोते-बिलखते मिर्ज़ापुर से बनारस के बीएचयू अस्पताल पहुंची. बब्लू को उसके दोस्तों ने दुर्घटना के बाद बीएचयू अस्पताल में भर्ती कराया था. ईलाज के लिए बानो के पास न पैसा था और न ही जान-पहचान. बेटे के दोस्तों ने ईलाज के लिए कुछ पैसा इकट्ठा किया और बानो ने कुछ उधार लिया, जो इलाज के लिए काफ़ी नहीं था. डॉक्टर से बात करने की कोशिश करती तो कहते ‘अभी फुर्सत नहीं है’. डॉक्टर बात नहीं करता था ‘झटक देता था’. बब्लू की हालत बिगड़ती चली जा रही थी लेकिन डॉक्टर का रवैय्या नहीं बदलने को तैयार नहीं था. उसकी हालत देखकर बानो ने बीएचयू से निकाल कर इलाहाबाद के एक निजी अस्पताल जीवन ज्योति में भर्ती कराया. वहां डॉक्टर ने देखा लेकिन आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने की वजह से दूसरे दिन ही बाहर का रास्ता दिखा दिया.
बानो बीएचयू और निजी अस्पताल से मायूस होकर बब्लू को मिर्ज़ापुर के सरकारी अस्पताल में ले आई. जहां बब्लू ने आख़िरी सांस ली थी. बानो ने कहा ‘मुझे महसूस हुआ कि ‘डॉक्टर का जो व्यवहार था वो धर्म और वर्ग के आधार पर भेदभावपूण था, मेरे बेटे के मौत का ज़िम्मेदार डॉक्टर थे, जिनके आँखों पर धर्म का चश्मा चढ़ा हुआ था.’
बब्लू की स्थिति ख़राब होने के बाद भी डॉक्टर ने जो लापरवाही की, जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया सकता जो धर्म या वर्ग के आधार पर किया जा रहा था. बानो ने बताया कि “बब्लू की हालत नाज़ुक थी, इतना कहने के बाद भी डॉक्टर पानी की बोतल (जिसमें कुछ दवा डाला) चढ़ाकर चले गए. मैं इसी इंतज़ार में थी कि पानी चढ़ जाए तो शायद तकलीफ़ कम हो जाए लेकिन वो मेरा भ्रम था. पानी की बोतल चढ़ाकर डॉक्टर साहब वहां से चले गए ये कहते हुए ‘हम कर रहे है हमसे जितना हो सकता है’ और पानी चढ़ता रहा. चार घंटे गुज़र जाने के बाद भी बब्लू को दुबारा देखने कोई नर्स या डॉक्टर नहीं आए. बोतल का पनी ख़त्म हो गया और पानी के पाइप से उल्टा खून चढ़ने लगा और बोतल के पाइप से खून रिसने लगा था. मैं भागते हुए डॉक्टर साहब के पास गई और बताया ऐसा-ऐसा हो गया. डॉक्टर साहब के पैरों में मानों मेहंदी लगी थी, उनसे जैसे चला ही नहीं जा रहा था. जब मैं भागते हुए बब्लू के पास दोबारा पहुंची तो देखती हूं खून ज़मीन पर फैला हुआ था और एक कुत्ता उसे चाट रहा था. ये देखकर जैसे मेरा कलेजा फट गया हो और जब तक डॉक्टर साहब पहुंचते मेरा बेटा आख़िरी सांस ले चुका था.”
बानो के पास अब कहने और सुनाने को कुछ न था. किसी तरह खुद को सम्भाला और जवान बेटे की लाश लेकर घर पहुंची. अस्पताल वालों ने रोगी वाहन (अम्बुलेंस) भी मुहैय्या नहीं कराया. बानो जब घर पहुंची तो बब्लू की बीवी बिलख-बिलख के रोने लगी. माँ को रोता देख बब्लू के दोनों छोटे बच्चे भी रोने लगे. उनका वही सबसे बड़ा बेटा था जो घर की आर्थिक स्थिति को संभाले हुए था लेकिन अब वो भी दुनिया से अलविदा हो चूका था.
दो साल गुज़र जाने के बाद भी ये परिवार आज तक उसके ईलाज़ का क़र्ज़ धीरे-धीरे चुका रहा है. बानो कहती हैं ‘जिस बेटे को मैंने मुस्लिम बनाया, उसे मुस्लिम होने की वजह से बचा नहीं पाई.’ हो सकता है, डॉक्टर ने धर्म या वर्ग से ऊपर उठ कर ईलाज किया हो लेकिन बानो का ऐसा अनुभव रहा कि मुस्लिम होने के वजह से उसने अपना बेटा खोया और कमज़ोर आर्थिक स्थिति की भी भूमिका अहम् थी.
अम्बेडकर ने धर्म की परिभाषा दी “मैं एक ऐसे धर्मं को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा सिखाए.” लेकिन अम्बेडकर की दी हुई परिभाषा की प्रासंगिकता धुंधली पड़ती दिख रही है. नेल्सन मंडेला ने कहा “शिक्षा एक बहुत शक्तिशाली हथियार है जिसका इस्तेमाल करके दुनिया को बदला जा सकता है.” लेकिन आज की स्थिति को देखते हुए लगता है शिक्षा का महत्व नौकरी पाने और पैसा कमाने तक ही सीमित रह गया. शिक्षा को हथियार तो बना लिया पैसा कमाने और शक्ति संचय करने का, लेकिन सामाजिक भेदभाव से शायद अनभिज्ञ रहे. जिसका प्रभाव रौशन अली (नाम बदला हुआ) के घर पर भी पड़ा.
रौशन अली अपनी अम्मी को लेकर बनारस के एक निजी अस्पताल पहुंचे, जिन्हें दिल की बीमारी थी. निजी अस्पताल में भर्ती तो करा दिया, लेकिन वहां से आराम न हुआ तब बनारस के ही सरकारी संस्थान बीएचयू ले गए. सबसे पहले तो अम्मी को भर्ती करने से मना कर दिया, क्योंकि न कोई जान-पहचान थी, न पकड़ और न पैसा. अस्पताल में भर्ती नहीं करने की वजह पूछने पर डॉक्टर ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया. फिर रौशन दूसरों डॉक्टरों के पास गए, बहुत मिन्नतें करने के बाद एक डॉक्टर ने किसी तरह भर्ती तो कर लिया, लेकिन मामला यहां से बिगड़ने लगा. रौशन ने बताया ‘डॉक्टर मेरी अम्मी को वैसे नहीं देखते थे, जैसे बाक़ी मरीज़ों को देखते थे. मुझे महसूस हुआ और ये अनुभव किया कि मुस्लिम होने की वजह से डॉक्टर हमसे अलग व्यवहार कर रहा है.’
रौशन ने अपना कटु अनुभव स्वस्थ्य सेवाओं में साझा करते हुआ आगे बताया कि “…बीएचयू असपताल में, मेरी अम्मी को सही से नहीं देखा जैसे दूसरों को देखते थे. दुसरे बिरादरी (उनका मक़सद धर्म से है) से हमारे बिरादरी को देखना उनके लिए कोई मूल्य नहीं रखता था. मैं काफ़ी परेशान और हताश था. किसी भी तरफ़ से आराम नहीं मिल रहा था, दूसरी तरफ़ हमरी आर्थिक स्थिति ख़राब होती चली जा रही थी. जो कुछ भी बचत था सब ख़त्म हो चूका था. नानी के घर से आर्थिक सहयोग मिला और कुछ दोस्तों से उधार लिया था. जिसे मैं अभी तक चूका रहा हूं क्योंकि मैं ही घर का सबसे बड़ा लड़का हूँ.”
इसके के अलावा रौशन से जब डॉक्टर बात न करता तो उसे ‘झल्लाहट होती थी’. रौशन को जब बीएचयू से भी संतोष नहीं मिला तो इलाहाबाद के सरकारी अस्पताल ले गए. वहां के डॉक्टर ने भर्ती करने से साफ़ मना कर दिया और कहा यहां जगह खाली नहीं है. फिर उसी सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर ने अपने नर्सिंग होम में भर्ती किया और इलाज भी किया. वहां जाकर रौशन को ऐसा लगा ‘… जैसे हम पैसा निकालने की मशीन हैं, कहते जाओ पैसा निकालते जाए’.
मरीज़ के हालत में कुछ ख़ास सुधार न देख कर और आर्थिक कमज़ोरी को मद्देनज़र रखते हुए अंततः मरीज़ को थोड़ा आराम होने पे घर ले आए. रौशन की अम्मी कुछ दिन साथ रही, उसके बाद उन्होंने दुनिया से विदा ले लिया. रौशन के कहा ‘अम्मी के इन्तेक़ाल (मौत) ने धर्म, वर्ग और कर्म के बीच दिल में ऐसी दीवार बना दिया जो चाह कर भी कमज़ोर नहीं होती’.
हम एक ऐसे समाज में सांस ले रहे हैं जो धर्म या जाति के प्रति घृणा, कपट और भेदभाव से ग्रसित है. ये सामाजिक कुरीति, संरचात्मक असामनता को हमें कम करना है, नहीं तो समाज में न ही नैतिकता बचेगी और न ही इंसानियत. गांधी के वचन “काम की अधिकता नहीं, अनिमियता आदमी को मार देती है” की प्रासंगिकता वर्तमान में कितनी सही बैठती है.
समाज में ज्ञान के शक्ति से जो शक्तियों का पदानुक्रम हुआ, उस पदानुक्रम में डॉक्टर सबसे ऊपर है. ये भ्रम अब धीरे-धीरे टूट रहा है. दोनों केस से ज़ाहिर होता है कि सामाजिक सम्बन्ध की भूमिका स्वास्थ्य सेवाओं को किस तरह प्रभावित कर रही हैं जिससे डॉक्टर और मरीज़ के रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं. क्योंकि डॉक्टर अपने नैतिक सिद्धांतों से ऊपर उठ कर काम कर रहे हैं. परिणामत: डॉक्टर और मरीज़ के बीच का विश्वास टूट रहा और डॉक्टर के प्रति जो विश्वाश था वो भी कम हो रहा है, जो बढ़ रहे हमलों की महत्वपूर्ण वजहों में से एक है.
दोनों केस के अध्ययन से ज़ाहिर होता है कि डॉक्टरों को भी संरचनात्मक असमानता की संवेदनशीलता को समझना होगा, जिससे दोनों के संबंधो में विश्वास बना रहे…
(लेखक इस्तिखार अली जेएनयू के सेंटर ऑफ़ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में पीएचडी स्कॉलर हैं, जो इन दिनों ‘Marginalization and Health related events of Muslims’ विषय पर काम कर रहे हैं. इनसे ISTIKHARALI88@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.)
