Rajiv Sharma for BeyondHeadlines
पाकिस्तान की जर्जर आर्थिक हालत को सुधारने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान लगातार विदेश दौरे कर रहे हैं. चीन को सबसे बड़ा और खरा दोस्त बताने वाले इमरान से पहले के शासकों के बाद इमरान आर्थिक मदद के लिए सउदी अरब का दौरा करने के बाद अब अमेरिका भी हो आए हैं.
पाकिस्तान की माली हालत इतनी नाज़ुक है कि उसमें सुधार के लिए वे किसी भी तरह का झूठ बोलने से भी परहेज़ नहीं बरत रहे. जब वे अमेरिका पहुंचे तो यह ख़बर अख़बारों की सुर्खी बनी कि कोई अमेरिकी अधिकारी एयरपोर्ट पर उनका स्वागत करने तक नहीं आया. हालांकि बाद में अमेरिका ने इसका खंडन किया और कहा कि अधिकारी एयरपोर्ट पहुंचे थे. फिर भी अख़बारों में इस तरह के फोटो तो छपे ही कि इमरान खान अपने अमले के साथ मैट्रो ट्रेन में बैठकर दूतावास जा रहे हैं. इससे भी कुछ अंदाज़ा तो लगाया ही जा सकता है कि अमेरिका में उनका कितना ज़ोरदार स्वागत हुआ होगा.
हालांकि ख़बरों में यह भी बताया गया कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अमेरिका जाने से पहले अच्छा होमवर्क किया था, जिसका फ़ायदा उन्हें मिला होगा. इस बात में कोई दम नज़र नहीं आता क्योंकि जब कोई पीएम अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई और आर्मी चीफ़ को साथ लेकर अमेरिकी दौरे पर गया हो तो उसे किसी होमवर्क या तैयारी की ज़रूरत ही क्या थी.
यह सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में आईएसआई और आर्मी चीफ़ की मर्ज़ी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता. ख़बरों में यह भी बताया गया है कि उन्होंने वहां कोई बहुत बड़ा जलसा भी किया और वह बिल्कुल उसी तर्ज पर था जिस तरह भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने कभी किया था.
बीबीसी की ख़बरें बताती हैं कि दोनों में दोस्ती के नए दौर की शुरुआत हुई है, लेकिन साथ ही यह भी लिखा गया है कि किसी भी बात को लेकर दोनों देशों में कोई सहमति क्या, किसी ओर से कोई इशारा तक नहीं किया गया तो फिर इमरान खान ने व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और लेडी फस्र्ट से मुलाक़ात करके ऐसा क्या हासिल कर लिया जो उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ़ ट्विटर पर यह लिखने लगी कि प्रधानमंत्री इमरान खान को अमेरिका से लौटकर ठीक वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा 1992 में क्रिकेट वर्ल्ड कप जीतकर लौटने के बाद महसूस हो रहा था.
यह वही अमेरिका है जिसने पाकिस्तान की सैन्य सहायता रोकी हुई है और इमरान उसको बहाल करने का एक आश्वासन तक तो ला नहीं पाए. वर्ल्ड कप इंग्लैंड में खेला जा रहा था और इमरान खान को अमेरिका दौरे से लौटकर महसूस हो रहा है कि वे वर्ल्ड कप जीतकर अपने देश लौटे हैं.
हां, यह सही है कि इस दौरे से पहले दोनों ओर से कुछ ऐसे काम ज़रूर किए गए थे, जिससे दोनों देशों का भरोसा पहले की तरह बहाल हो. जैसे बताया गया कि पाकिस्तान ने आतंकवाद पर लगाम लगाने के नाम पर हाफ़िज़ सईद को, जैसा कि वह पहले भी कई बार दिखावे के तौर पर करता रहा है, गिरफ़्तार कर लिया. उधर अमेरिका ने ब्लूच लिबरेशन आर्मी को आतंकियों की सूची में डाल दिया.
इसके बावजूद यह ख़बर आई कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को कोई अमेरिकी अधिकारी एयरपोर्ट लेने नहीं पहुंचा. यह हालात भी तब हैं जबकि पाकिस्तान सन् 1950 से वही करता आया है जो अमेरिका ने कहा है. इसी के एवज में उसे सैन्य और अन्य मदद भी मिलती रही हैं. अब जब अमेरिका ने पाकिस्तान की सैन्य सहायता रोक दी तो उसे चीन अपना सबसे बड़ा और सच्चा मित्र लगने लगा.
अब बदले हुए माहौल में तो बीबीसी की ख़बरें तक कह रही हैं कि अब पाकिस्तान को अमेरिका से रिश्तों में चीन से अपनी हिमालय से उंची दोस्ती के आड़े नहीं आने देना चाहिए. इस दौरे से इमरान को कुछ हासिल तो नहीं हुआ, लेकिन खुद को कामयाब बनाने या बताने के लिए उन्होंने बड़े से बड़ा झूठ बोलने से भी परहेज़ नहीं किया.
उन्होंने यहां तक कह दिया कि एबटाबाद में छुपे हुए और अमेरिकी सैनिकों के हाथों मारे गए आतंकी ओसामा बिन लादेन का पता भी अमेरिका को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने ही दिया था. यदि यह सच होता तो अमेरिकी सेना को पाकिस्तान में घुसने की क्या ज़रूरत थी, खुद पाकिस्तान ही उसे गिरफ़्तार करके उनके हवाले कर देता.
असल बात यह है कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी हितों की हिफ़ाज़त के लिए पाकिस्तान अमेरिका का भी मनमुताबिक़ इस्तेमाल करता आ रहा है. अफ़ग़ानिस्तान में इतने साल रही अमेरिकी सेना का बड़ा हिस्सा जब कुछ साल पहले वहां से वापस हुआ था तो तब भी आतंकवाद से लड़ने के नाम पर उसे मोटी रक़म मिली थी. अब भी कुछ न कुछ अमेरिकी सेना और उसका साजो-सामान अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद है और अमेरिका को अब भी वहां अपने हितों की हिफ़ाज़त के लिए पाकिस्तान की ज़रूरत है.
बदले हुए माहौल में जो एक बात पाकिस्तान के काम आ रही है या आ सकती है, वह यह है कि उसी ने अमेरिका के साथ तालिबान की बातचीत का इंतज़ाम कर दिया है. इसके एवज में उसे कुछ मिल सकता है, लेकिन एक तो तालिबान का क्या भरोसा कि वे कब क्या करें और पहले से उलट अब अमेरिका भी आर्थिक रेवड़ियां बांटने में कहीं ज्यादा होशियारी से काम लेता है.
यदि ऐसा न होता तो अमेरिका से लौटकर इमरान खान ने अपने देश को कोई बहुत खुश कर देने वाली ख़बर सुनाई होती. जब न पहले की तरह सैन्य सहायता बहाल हुई, न पाकिस्तान के परमाणु समूह में शामिल होने की बात हुई और जो सबसे बड़ी बात थी, कि न ही पाकिस्तान की जर्जर आर्थिक हालत पर चर्चा हुई तो फिर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को वहां हासिल क्या हुआ? उसी अमेरिका की तरफ़ से यह भी तो कहा गया है कि पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर चीन की मौजूदगी उसे अब भी मंज़ूर नहीं है.
उन्हें वहां हासिल तो कुछ नहीं हुआ, मेट्रो की सवारी भी करनी पड़ी, लेकिन भारत के लिए वे एक परेशानी खड़ी करने में कामयाब रहे. और यह करामात भी उनसे नहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भूल या ग़लती से हुई.
उन्होंने एक बयान में कह दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें कश्मीर समस्या सुलझाने में मदद करने के लिए कहा है. ख़बरों में कहा गया है कि इस बयान का पाकिस्तान को वर्षों से इंतज़ार था. इसका संसद में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने खंडन कर दिया है.
जिस प्रधानमंत्री को सबसे ज्यादा विदेशी दौरे करने वाला प्रधानमंत्री बताया जाता है, उन्हें कूटनीति का इतना ज्ञान तो रहा ही होगा कि यदि किसी देश से उन्हें कोई मदद मांगनी है तो वह उन्हें अपनी तरफ़ से मांगनी चाहिए या अपने देश की तरफ़ से. अगले ही दिन चीन की तरफ़ से भी ऐसा ही बयान आ गया कि भारत और पाकिस्तान को द्विपक्षीय बातचीत से कश्मीर मसले को सुलझा लेना चाहिए. इस तरह की सलाहें न तो भारत के लिए कोई नई हैं और इसमें ऐसा भी कुछ नहीं है कि पाकिस्तान को इसका सालों से इंतज़ार था, अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में इस तरह की चालें तो चली ही जाती रहती हैं. डोनाल्ड ट्रंप ने यदि कह भी दिया है तो हमारे देश ने कौन-सा किसी को मध्यस्थ मान ही लिया है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अभी बहुत सख्त लहज़े में कह ही चुके हैं कि पाकिस्तान से तो सहयोग मिलेगा नहीं, कश्मीर समस्या को अब हम खुद ही सुलझा लेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)