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BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > यह देश चल कैसे रहा है और इसे चला कौन रहा है?
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यह देश चल कैसे रहा है और इसे चला कौन रहा है?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published August 29, 2019
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15 Min Read
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Rajiv Sharma for BeyondHeadlines

28 अगस्त के दैनिक जागरण अख़बार में दो बड़ी ख़बरें आमने-सामने छपी हैं. इन ख़बरों में एक ओर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर की फोटो छपी है और दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल की. दोनों फोटो प्रेस कान्फ्रेंस के ही लग रहे हैं. ज़ाहिर है कि एक ख़बर केन्द्र सरकार से जुड़ी है और दूसरी दिल्ली सरकार से.

पहली ख़बर का षीर्षक है —आरबीआई से सरकार को मिले पैसे पर घमासान. इस ख़बर के मुताबिक़ केन्द्र सरकार को रिजर्व बैंक से पौने दो लाख करोड़ रुपये मिले हैं और यह पैसा एक समिति की सिफ़ारिश पर मिला है जो खुद रिजर्व बैंक ने ही बनाई थी. लेकिन कांग्रेस के पर्वू अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे रिजर्व बैंक के ख़ज़ाने से चोरी क़रार दे दिया है.

हो सकता है कि इससे पहले भी सरकारों को रिजर्व बैंक से ऐसे पैसा मिलता रहा हो, लेकिन शायद इतनी बड़ी रक़म सरकार को रिजर्व बैंक से पहली बार ही लेनी पड़ी है. तो क्या देश किसी संकट या आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रहा है?

एक नेता का यह बयान भी इस ख़बर के साथ नत्थी है कि पहले सरकारें रिजर्व बैंक से उसका 50 फ़ीसदी ही लिया करती थीं, लेकिन इस बार 99.9 प्रतिशत लिया जा रहा है. राहुल गांधी ने तो यहां तक बयान दे डाला है कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के हाथों पैदा हुई आर्थिक विपदा का निपटारा उन्हें खुद कैसे करना है, उन्हें ही यह तक पता नहीं.

देश किसी न किसी आर्थिक संकट से गुज़र रहा है ऐसी ख़बरें लंबे समय से अख़बारों में आती रही हैं और नेट पर अन्य ज़रियों से भी पता चलती रही हैं. जैसे कई बार यह पढ़ने को मिला कि देश का माली सिस्टम 15 लाख करोड़ के एनपीए से जूझ रहा है.

देश के बैंक भी वित्त मंत्रालय और सरकार का हिस्सा हैं, जिन्हें सही ढंग से चलाने के लिए सरकार अपने बैंकों को एक बार 80 हज़ार करोड़ और एक बार 48 हज़ार करोड़ रुपये दे चुकी है.

यह ख़बर भी अख़बारों में छप चुकी है कि दिल्ली में पैसे निकालने के लिए एटीएम की तादाद घटाकर आधी की जाएगी. आख़िर ऐसी नौबत क्यों आई? इन हालात के लिए नोटबंदी और जीएसटी जैसे फ़ैसले तो ज़िम्मेदार हैं ही, बड़े पैमाने पर बांटे गए लोन या क़र्ज़ भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, जो कभी स्टार्टअप के नाम पर दिए गए और कभी किन्हीं अन्य कामों के लिए.

यह क़र्ज़ इतनी बड़ी तादाद में दिए गए कि कुछ ही दिन हुए सरकार को बढ़ती आर्थिक परेशानियों के बीच बैंकों को यह हुक्म देना पड़ा कि वे अपने खाते से दिए गए हर 50 करोड़ से ज्यादा क़र्ज़ या ऋण की जांच करें.

देश के कई बड़े नामी-गिरामी लोग कितनी बड़ी रक़में डकारकर सरकार के जानते-बूझते विदेश भाग चुके हैं यह ख़बरें तो हम रोज़-रोज़ अख़बारों में पढ़ते और टीवी पर देखते ही रहते हैं. हैरानी है तो इस बात की कि इन्हीं हालात के बीच हमारी सरकारें या नेता यह प्रचार भी करते रहते हैं कि एकाध साल में ही देश दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला है और अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां इस देश की आर्थिक रेटिंग भी सुधारती रहती हैं.

अब ज़रा रिजर्व बैंक और केन्द्र सरकार के सामने वाली दिल्ली सरकार की ख़बर पर निगाह डाल ली जाए तो देश की आर्थिक स्थिति के अलावा जो कुछ चल रहा है कुछ उसका भी अता-पता चले.

केन्द्र सरकार की ख़बर बता रही है कि उन्होंने रिजर्व बैंक से पौने दो लाख करोड़ रुपये लिये हैं तो दूसरी ओर दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली मैट्रो ट्रेन को चौथे चरण के लिए 1100 करोड़ रुपये देने के ऐलान के साथ एक तय सीमा तक बिजली के बिल माफ़ करने के बाद अब दिल्ली के जल बोर्ड के जल उपभोक्ताओं को बड़ी रियायत का ऐलान कर दिया है.

अभी तक दिल्ली के 13.5 लाख उपभोक्ताओं पर दिल्ली जल बोर्ड का 4000 करोड़ रुपया बकाया है, जिसे अलग-अलग श्रेणियों में अलग-अलग छूट देकर माफ़ किया जा रहा है और इन चार हज़ार करोड़ में से दिल्ली सरकार को उपभोक्ता सिर्फ़ 600 करोड़ का ही भुगतान करेंगे. इसलिए पेंच यहां फंसा हुआ है कि जब केन्द्र सरकार की जेब इतनी खाली है तो दिल्ली सरकार की जेब इतनी भरी हुई क्यों है?

मेरे आज के दैनिक जागरण अख़बार में जिसका ज़िक्र मैंने उपर किया है, उसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के दो-दो पन्ने के पूरे पेज के एड भी छपे हैं. इनका भुगतान भी दिल्ली सरकार की तरफ़ से किया ही गया होगा. बस इन विज्ञापनों में उनका चुनाव चिन्ह झाड़ू कहीं दिखाई नहीं दे रहा.

नेताओं के कुर्ते-पायजामे या जवाहर जैकेट वाले सामान्य या अपने प्रदेश के पारंपरिक लिबास में रहने के बजाए पैंट-शर्ट में नज़र आने वाले दिल्ली सरकार और उनके मंत्रियों-नेताओं की दिल्ली पर और हो रही मेहरबानियां भी अपरंपार हैं, जबकि केन्द्र सरकार को रिजर्व बैंक से पैसा लेना पड़ रहा है.

आज का एक विज्ञापन बताता है कि अब दिल्ली के सीसीटीवी कैमरों से लैस होने में ज़्यादा देरी नहीं रह गई है. मेरी धर्म पत्नी रोज़ दिल्ली से फ़रीदाबाद तक का सफ़र करती है. उसने एक दिन बताया था कि उसे इस सफ़र के लिए रोज़ 108 रुपये का भुगतान करना होता है.

एक दिन ख़बर आई कि दिल्ली की बसों और मेट्रो ट्रेन में अब पैंट-शर्ट पहनने वाले नेताओं की यह दिल्ली सरकार महिलाओं को मुफ़्त में सफ़र कराएगी. मैं यह ख़बर सुनकर बड़ा हैरान हुआ. मेट्रो मैन ई श्रीधरन ने इसका कड़ा विरोध किया और इसे मेट्रो ट्रेन के भविष्य के लिए ख़तरनाक बताया. मेरी धर्म-पत्नी ने भी इसे चुनावी स्टंट क़रार दिया. लेकिन जैसे मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने मेट्रो ट्रेन के आगे की दो बोगियां अचानक महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी थीं, वैसे ही मैंने आज के अख़बार में देखा कि दिल्ली सरकार के कर्ताधर्ता उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया नीली शर्ट और सफ़ेद सी पैंट में विधानसभा से महिलाओं के लिए दिल्ली की डीटीसी और कलस्टर बसों के लिए 140 करोड़ और मैट्रो ट्रेन में मुफ़्त सफ़र के लिए 150 करोड़ का आवंटन करके झूमते हुए बाहर निकल रहे हैं.

अब मेरे जैसे मामूली पत्रकार की मुश्किल यह है कि एक तरफ़ तो केन्द्र सरकार के पास पैसे की इतनी कमी है कि उसे रिजर्व बैंक के ख़ज़ाने से पैसा लेना पड़ रहा है और दूसरी तरफ़ दिल्ली सरकार महिलाओं को बसों और मेट्रो ट्रेन में मुफ़्त सफ़र कराने के लिए 290 करोड़ का अनुदान विधानसभा में पेश कर चुकी है. ऐसे समय में एक बड़ा सवाल यह है कि यह देश चल कैसे रहा है और इसे चला कौन रहा है?

मुश्किलें सिर्फ़ आर्थिक मोर्चे पर ही नहीं हैं. यदि ऐसा होता तो हमारे प्रधानमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति या चीनी राष्ट्रपति से अपनी औपचारिक या अनौपचारिक वार्ताओं में इसका कुछ न कुछ हल निकाल ही लेते, जैसे हमारे अख़बार बताते आ रहे हैं कि पाकिस्तान को आर्थिक मुश्किलों से उबारने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान कभी चीन के दौरे पर जाते हैं और कभी सऊदी अरब के.

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी और तालिबान से उनकी बातचीत करवाकर वे उसका लाभ भी उठा ही रहे हैं. हालांकि हमारे पास ऐसा कोई तुरुप नहीं है और न ही पाकिस्तान की तरह सेना और खुफिया एजेंसियों के हाथ में यहां की सत्ता है, जिन्हें इमरान खान अमेरिका के दौरे पर अपने साथ ले जाते हैं, भले ही उन्हें मेट्रो में सफ़र करके अपने दूतावास या व्हाईट हाउस क्यों न पहुंचना पड़े. इस समय मुझे लगता है कि इस देश के सामने सबसे बड़ी समस्या कश्मीर समस्या ही है.

मैं पिछले कई दिनों से अख़बारों की छानबीन करता फिर रहा हूं. तमाम ख़तरे उठाकर टेलीविज़न चैनलों से भी कुछ मिलने या समझने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा कि हो क्या रहा है.

अचानक एक दिन राजनाथ सिंह का यह बयान आया कि अब कश्मीर समस्या हम खुद ही सुलझा लेंगे, इसमें पाकिस्तान से तो कुछ सहयोग मिलेगा नहीं. और फिर उसी तरह अचानक न जाने किस संसद में हमारे गृहमंत्री अमित अनिल चंद्र शाह दो कागज़ के पन्ने लेकर खड़े हो गए और उन्होंने धारा 370 और 35ए की समाप्ति या उन्हें हटाए जाने का ऐलान कर दिया.

मैं उसी दिन से इस पसोपेश में हूं कि जो काम पिछले 70 सालों में नहीं हो सका, वह इतनी आसानी से और इतनी आराम से कैसे हो गया? इसके लिए सिर्फ़ महबूबा और उमर को पहले नज़रबंद और फिर गिरफ़्तार किया गया. वहां आतंकियों की लगाम थामने वाले अलगाववादी कहां हैं, उनके बारे में कहीं कुछ पढ़ने को मिला ही नहीं.

आज तक के एप पर वहां के राज्यपाल मलिक का एक बयान यह भी आया है कि इन फ़ैसलों के बाद वहां एक भी आदमी किसी तरह की हिंसा में नहीं मरा है. जब यह ख़बर मैंने पहली बार टीवी पर देखी-सुनी तो मैंने देखा कि एक आदमी ढोल पीट रहा है और वैसे ही चार-छह उलटे-सीधे लोग या बच्चे उस पर डांस कर रहे हैं. तभी से यह ख़बर मेरे लिए भरोसे से बाहर की ख़बर हो गई.

जिस तरह से यह धाराएं हटाईं गईं हैं उसके बाद से मुझे वे दृष्य याद आ रहे हैं जो कश्मीर के नाम पर मैं टीवी पर देखता आ रहा हूं. हर दोपहर की नमाज़ के बाद वहां पत्थरबाज़ी होती थी और हज़ारों पत्थरबाज़ों को जेल में डाला गया जिनमें से बहुतों को महबूबा मुफ़्ती ने छुड़वाया. वहां न सिर्फ़ पाकिस्तान के हरे झंडे लहराए जाते थे, बल्कि मैंने इसी टेलीविज़न पर वहां लहराए जाते पाकिस्तानी, तालिबानी और आईएस के काले झंडे भी देखे हैं. बीएसएफ़ की गाड़ियों को पत्थरबाज़ों की भीड़ से घिरे हुए भी देखा है. जवानों को थप्पड़ खाते और उनके हैलमेटों को पैरों से प्रदर्शनकारियों को ठोकरें मारते देखा है.

यह ख़बरें कोई पुरानी नहीं हैं जब नमाज़ के बाद वहां भीड़ ने तैनात पुलिस अफ़सर की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी. आतंकी अशरफ़ वानी को मौत के घाट उतारे जाने के बाद वहां क्या बवाल मचा था. रमज़ान में जब महबूबा मुफ़्ती की मर्ज़ी से आर्मी आॅपरेशन रोके गए थे तो कितने लोगों ने अपनी जानें गंवाई थीं.

महबूबा मुफ़्ती लगातार केन्द्र को चेतावनी देती आ रही हैं कि यहां बाहुबल की राजनीति नहीं चलेगी. धारा 370 तो बाद की बात थी, उन्हें तो 35ए का हटना भी मंज़ूर नहीं था. महबूबा और उमर तो जेल में हैं तो फ़ारूख अब्दुल्ला कहां हैं? जो काम 70 सालों में नहीं हो सका वह अमित शाह के दो पन्नों ने जैसे मेरे पिता कुछ लोगों को शाबाशी देते हैं उनकी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से शाबाशी पाने के लिए किसी नक़ली या असली संसद में चंद मिनटों में ही कर दिखाया.

असली-नक़ली का संदेह इसलिए क्योंकि यहां माता की भक्ति का दरबार भी ‘जी केबल नेटवर्क’ की मर्ज़ी से टेलीविज़न पर नक़ली ही सजता है. मैं अब भी इस परेशानी और ग़म से घिरा हुआ हूं कि आख़िर यह हो क्या रहा है? जो पत्थरबाज थे, हथियारों से लैस आतंकवादी थे, उनके पाकिस्तानी सपोर्टर थे, जो अलगाववादी थे, उन्होंने धारा 370 और 35ए का हटना इतनी आसानी से मंज़ूर कैसे कर लिया?

या यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई वैसा ही मायाजाल था कि काला धन और आतंकियों को फंडिंग रोकने के लिए बड़े नोट बंद करना ज़रूरी था और वे इसके ठीक उलट एक हज़ार का नोट बंद करके दो हज़ार का नोट चलन में ले आए. यदि यह ऐसा ही है तो प्रधानमंत्री मुझ पर एक कृपा और करें कि मेरा टीवी या टेलीविज़न चालू होते हुए भी बंद है क्योंकि उस पर जो टेक्नाॅलाजी इस्तेमाल हो रही है, वह बहुत डरावनी है. ज़्यादातर लोग काले लिबासों में हैं और मैं टोपी लगाकर भी उसके सामने खुद को सुरक्षित नहीं पाता. तो मैं टेलीविज़न कैसे देखूं? और घर से बाहर जैसे लोगों से मैं वाबास्ता हूं उनके सामने भी मुझे टोपी पहननी पड़ती है. क्या इस समय दिल्ली को चला रही सरकार इसी गिरोह की बनवाई हुई है? यदि यह सच है तो फिर केन्द्र सरकार के सामने जो दिक्कतें हैं उन्हें कौन दूर करेगा?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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