नासिरूद्दीन
इकट्ठी तीन तलाक़ पर क़ानून अंतत: बन ही गया. सन 2017 से क़ानून बनाने की चली कशमकश 31 जुलाई 2019 को राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद ख़त्म हो गयी है. यह क़ानून शुरू से ही विवादों में रहा. इसके साथ यह सवाल भी लगातार चलता रहा है कि क्या यह क़ानून वाक़ई मुसलमान महिलाओं को इंसाफ़ दिलायेगा.
इस क़ानून की अहम बातों को यों समझा जा सकता है—
- यह क़ानून मुस्लिम महिला (विवाह में अधिकारों की रक्षा) विधेयक 2019 के नाम से जाना जायेगा. मगर क्या यह ‘अधिकारों’ की रक्षा करता है या इसका ध्यान, सिर्फ़ एक मुद्दे पर है?
- इस क़ानून से तलाक़ के कई तरीक़ों में से सिर्फ़ एक ‘तलाक़-ए-बिद्दत’ यानी एक झटके की तलाक़ को ख़त्म माना गया है. अब ऐसी तलाक़ का कोई असर नहीं है. ऐसी तलाक़ देना गैर क़ानूनी है.
- ऐसी तलाक़ देने वाले शौहर को तीन साल तक की सज़ा होगी और जुर्माना भी देना होगा.
- जिस महिला को ऐसा तलाक़ दिया गया है, उसे शौहर से अपने और अपने पर निर्भर संतानों के लिए गुज़ार-बसर का भत्ता मिलेगा. यह भत्त मजिस्ट्रेट तय करेंगे/करेंगी.
- पत्नी नाबालिग़ संतानों की कस्टडी पाने की हक़दार होगी.
- यह अपराध संज्ञेय होगा. यानी शिकायत पर शौहर की गिरफ्तारी हो जाएगी. हालांकि, पत्नी या नज़दीकी रिश्तेदारों की शिकायत पर ही थाना इंचार्ज ऐसी कार्रवाई करेंगे/करेंगी.
- इस क़ानून के तहत समझौते का भी मौक़ा है. बशर्ते समझौते/ क़ानूनी लड़ाई ख़त्म करने की गुज़ारिश पत्नी ने मजिस्ट्रेट की इजाज़त से की हो. मजिस्ट्रेट द्वारा तय की शर्तों के मुताबिक़ ही समझौता/ मुक़दमा ख़त्म होगा.
- इस क़ानून के तहत मुलज़िम पति की ज़मानत तुरंत नहीं होगी. अगर आरोपित शौहर बेल के लिए दरख्वास्त देता है तो मजिस्ट्रेट को पहले पत्नी की बात सुननी पड़ेगी. मजिस्ट्रेट इस पर तब तक फ़ैसला नहीं लेंगे/लेंगी जब तक कि वह मुतमइन न हो जाएं कि बेल देने के लिए पर्याप्त वजह हैं.
इस क़ानून को हम मौजूदा केन्द्र सरकार की बड़ी कामयाबी मान सकते हैं. केन्द्र सरकार के लिए यह कितना बड़ा मुद्दा था, इस बात से भी समझा जा सकता है कि इसे पिछले डेढ़ साल में तीन बार लोकसभा में पेश किया गया. अध्यादेश लाने पड़े. तब कहीं जाकर यह क़ानून की शक्ल ले पाया है.
सरकार की ओर से बार-बार यह कहा गया कि यह जेंडर इंसाफ़ और बराबरी के लिए बनने वाला क़ानून है. मगर क़ानून बनाने का यह तरीक़ा, महिलाओं की जिंदगी से जुड़े हाल में जितने भी क़ानून बने हैं, उनमें सबसे अलग रहा. अगर हम इस नये क़ानून पर नज़र डालें तो ये बातें अहम तौर उभरती हैं-
- इस क़ानून के लिए व्यापक बातचीत / सलाह-मश्विरा की प्रक्रिया नहीं अपनायी गयी.
- विपक्ष और महिला संगठनों के बार-बार अपील के बाद भी इसे सलाह-मश्विरा के लिए संसद की समिति के पास नहीं भेजा गया. यही नहीं, विधेयक पेश करने से पहले राजनीतिक पार्टियों और महिला संगठनों से भी विचार-विमर्श नहीं किया गया.
- 22 अगस्त 2017 को शायरा बानो बनाम भारत सरकार व अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से तलाक़-ए-बिद्दत (यानी एक झटके की तलाक़) को खा़रिज कर दिया था. यानी उस दिन से यह तलाक़ बेमानी है.
- यही नहीं, सन 2002 में ही सुप्रीम कोर्ट ने शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य केस में ऐसे तलाक को गैर- क़ानूनी या ग़ैर असरदार माना था. ढेरों हाईकोर्ट के फैसले भी हैं.
- तो अब सबसे अहम सवाल है कि जब ऐसी तलाक़ अरसे से ही (तलाक़- ए-बिद्दत) बेमानी/ बेअसर/ ग़ैर-क़ानूनी है तो महज़ उसी पर फ़ोकस करते हुए क़ानून क्यों बनाया गया?
- यह क़ानून के जानकारों के लिए भी रिसर्च का मुद्दा है कि जिस चीज का असर ही नहीं है, क्या उस पर क़ानून बनाना चाहिए?
- यह सही है कि तलाक़-ए-बिद्दत, बर्बर मर्दानगी दिखाने का एक मज़हबी हथियार रहा है. इसे मुसलमानों के एक बड़े हिस्से में जगह हासिल है. वे भी इसे पसंदीदा नहीं मानते हैं. तलाक के इस रूप के खि़लाफ़ महिलाएं और महिला आंदोलन अरसे से मुहिम चलाते रहे हैं. मगर वे इसके साथ ही एक बेहतर जेंडर संवेदनशील पारिवारिक क़ानून या पर्सनल लॉ में सुधार की मांग भी करते रहे हैं. मौजूदा क़ानून ऐसी किसी भी माँग पर कोई तवज्जो नहीं देता है.
- शादी- ब्याह- तलाक़- विरासत वगैरह के मामले हमारे यहाँ दीवानी यानी सिविल कानून के तहत आते हैं. इसमें मजहब का फर्क नहीं है. सभी धर्मों के पारिवारिक कानून, सिविल यानी दीवानी दायरे में ही हैं. इसके बरअक्स यह नया क़ानून, तलाक़ के सिविल मामले को क्रिमिनल यानी फौजदारी यानी आपराधिक मामला बनाता है.
- दिलचस्प है कि यह उपाय क्रिमिनल और सिविल दोनों सुझाता है. जैसे- पति जेल जाएगा, उस अपराध के लिए जो असरदार ही नहीं है. वह जेल में रहेगा और पत्नी और संतानों के लिए गुजारा भी देगा. कैसे? वह जेल के अंदर से गुजारे का इंतजाम कैसे करेगा?
- अगर पति जेल गया तो आर्थिक रूप से बेसहारा महिला तो इसके बाद ससुरालियों की प्रताड़ना भी झेलेगी.
- यह कानून महज गुजारे की बात करता है. क़ानूनी जबान में गु़जर-बसर (सबसिस्टेंस) और भरण-पोषण (मेंटेनेंस) में फ़र्क है. भरण-पोषण यानी मेंटेनेंस में महिला और उसकी संतानों को वैसी ही जिंदगी जीने के इंतजाम करने की बात है, जैसा वे जीते आ रहे थे. इसमें छत की बात भी है. यह कानून ऐसी बात साफ तौर पर करता नहीं दिखता है. यानी पत्नी और संतानों की रिहाइश या जायदाद में हक़ की कोई बात नहीं करता है.
- यह भी सही है कि तलाक़ का यह रूप मर्दों के हाथ में महिलाओं को काबू में रखने या उनसे निजात पाने का मजबूत हथियार रहा है. मगर अब यह बेअसर है. फिर भी अगर कोई मर्द इसके आधार पर अड़ा रहता है तो कई क़ानून पहले से भी हैं. इनके जरिए महिलाएं, ऐसे पति से कानूनी लड़ाई लड़ सकती हैं. लड़ रही हैं. भारतीय दंड संहित की धारा 498 ए ऐसा ही एक क़ानून है. घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाने वाला भी एक कानून है.
- नया क़ानून, पहले के इन क़ानूनों से आगे बढ़ा हुआ नहीं दिखता है. (यह भी दिलचस्प है कि एक ओर मुसलमान महिलाओं के जेंडर इंसाफ की बात हो रही हो और दूसरी ओर पहले से मौजूद 498ए जैसे कानून को लगातार कमजोर करने की कोशिश भी चल रही है. यह कानून तो सभी महिलाओं के लिए है.)
- यही नहीं, महिला आंदोलन और मुसलमान महिलाओं के साथ काम करने वाला बड़ा समूह मानता है कि यह क़ानून दरअसल मुसलमान मर्दों को जेल में डालने के मक़सद से बनाया गया है. अगर ऐसा न होता तो जिस पति से गुजारे की उम्मीद की जा रही हो, उसे तुरंत जेल में डालने की बात न होती. यही नहीं, कई मुसलमान महिला कार्यकर्ता मानती हैं कि हम जेंडर बराबरी और इंसाफ की बात करते हैं. हम इसके लिए लड़ते हैं. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम मर्दों के खिलाफ हैं. उन्हें जेल में डालकर हम खुश होना चाहते हैं. वे तो सवाल करती हैं कि जेल में जाने के बाद शादी का क्या होगा? क्या वह बचेगी?
- हमारा अभी का जो समाजी और पारिवारिक निजाम है, उसमें ज्यादातर शादीशुदा स्त्रियाँ बेढब शादी को भी चलाए रखना चाहती है. इसीलिए वे अक्सर तकलीफ भी बर्दाश्त करती हैं. (यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि वे ऐसा क्यों करती हैं? वे क्यों नहीं ऐसी शादियों से निकल आती हैं?) मुसलमानों पर रिश्तेदारियों में भी शादियां होती हैं. यह कानून महिलाओं की इन हालात को नजरंदाज करता है. इसीलिए वह जो उपाय सुझाता है, वह महिला को इंसाफ दिला पाएगा या नहीं – इस पर शक है.
- अगर इस तलाक़ से शादी ख़त्म नहीं है तो जाहिर है, जेल जाने से क्या शादी बची रहेगी?
- इस्लाम में शादी दो लोगों के बीच का करार है. साथ ही, वह सड़ाँध से भरी शादी को चलाने के हक में भी नहीं है. इसलिए इस करार से बाहर निकलने का रास्ता भी है. इसे ही तलाक़ माना गया है. यह रास्ता स्त्री-पुरुष दोनों के पास है. सबसे बड़ा डर है कि अब कहीं स्त्रियों को बिना तलाक़ छोड़ दिए जाने की घटनाएं न बढ़ जाएं. वे पत्नी रहेंगी भी और नहीं भी. उनके हकों की हिफाजत फिर कैसे होगी? मर्द तो फिर बच जाएगा. मुमकिन है, वह दूसरी शादी भी कर ले.
- वैसे, तीन तलाक क़ानून से कौन लोग बेहद ख़ुश हैं? अगर सोशल मीडिया, समाज का अक्स है, तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है. ऐसे संकेत मिलते हैं कि इसे जेंडर इंसाफ से कम मुसलमानों पर नियंत्रण करने के तरीके के तौर पर ज्यादा देखा जा रहा है.
- कुछ लोग इसकी तुलना दहेज उत्पीड़न/ दहेज हत्या या 498 ए में सजा प्रावधानों से कर रहे हैं. इनका तर्क है कि जब इन कानूनों में सजा है तो इस कानून में सजा पर ऐतराज क्यों? ऐसे तर्क देने वालों को लगता है कि ये सब कानून सिर्फ एक धर्म के मानने वालों पर लागू है.
- ये सभी लगातार हो रहे उत्पीड़न/ हिंसा/ हत्या जैसे आपराधिक मामलों से जुड़े कानून हैं. सिविल नहीं हैं. ऐसे सभी क़ानून सभी धर्मों के लोगों पर एक समान तरीके से लागू है. ऐसा नहीं है कि दहेज उत्पीड़न या दहेज हत्या के कानून से मुसलमान बरी हैं. इसलिए अगर समाज के किसी हिस्से में ऐसी सोच बस गयी है, तो यह बड़ी गलतफहमी जितनी जल्दी दूर हो जाए अच्छा है.
- इस बहस में कई बार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) भी शामिल हो जा रही है. इसे घालमेल करने की कोशिश ठीक नहीं है. यूसीसी की बहस सिर्फ मुसलमानों की बहस नहीं है. यह सभी धर्मों के लोगों पर असर डालेगा. सवाल तो यह है कि क्या किसी के पास इसका कोई खाका है?
मगर इस पूरे विमर्श का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि इन लाइनों को लिखने वाला या महिला संगठनों का बड़ा तबका कहीं से भी इक्ट्ठी तीन तलाक देने वालों की हिमायत कर रहा है. अगर कोई मर्द मानता नहीं है और महिला की गरिमा के खिलाफ कोई कदम उठाता है तो उससे किसी तरह के लगाव का कोई सवाल नहीं है. उसे बचाने की बात तो दूर. हम हमेशा ऐसी महिलाओं के साथ थे, हैं और रहेंगे जो ऐसे मर्दों के मजालिम की शिकार हैं.
हाँ, इतना तय है कि सरकार ने एक ऐतिहासिक मौका गँवाया है. अगर सरकार वाकई मुसलमान महिलाओं को संविधान के तहत जेंडर इंसाफ और बराबरी का हक दिलाना चाहती थी तो वह इसे महिलाओं/ महिला संगठनों/ कानूनविदों की सलाह-मश्विरा और संसद की समिति के जरिए व्यापक बहस से और बेहतर बना सकती थी.
अंत में, हम माने न माने लेकिन मुसलमानों के बड़े तबके पर इस वक्त खौफ का साया है. मुसमलानों के साथ लगातार इधर-उधर हिंसा की घटनाएं हो रही हैं. लोग मारे भी जा रहे हैं. कहीं एक कोने में हुई ऐसी घटनाओं से दूर-दराज तक की ज्यादातर मुसलमान महिलाएँ बेचैन हैं. वे मां, बहन, बेटी, पत्नी, दोस्त, पड़ोसी के रूप में हमारे आसपास हैं. डर के साये के सबसे गहरे असर में यही महिलाएं हैं. अगर बतौर देश और समाज हम वाकई में मुसलमान महिलाओं के लिए फिक्रमंद हैं तो सबसे पहले उन्हें इस ख़ौफ से आजाद करना होगा. खौफ से आजाद इंसान ही अपने हक़ों का बेखौफ़ इस्तेमाल कर पायेगा. तब ही वह ‘अपने अधिकारों के लिए लड़ पायेगी और उसकी हिफाजत कर पायेगी. (साभार- यूथ की आवाज़)