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“कभी मैं एक दिन भी अपने मां-अब्बू से बात किए बग़ैर नहीं रहती थी, लेकिन आज…”

Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines

ज़मीन की ‘जन्नत’ कहा जाना वाला कश्मीर इन दिनों ज़िन्दगी का ‘दोज़ख़’ बनता नज़र आ रहा है. वहां हुए लॉकडाउन को आज 50 दिन हो गए. लेकिन अभी भी हालात सामान्य नहीं हुए हैं. दिल्ली में पढ़ रहे कश्मीरी छात्रों की ज़िन्दगी भी कुछ ऐसी ही है.

गुजरात में पढ़ाई कर रहे अनंतनाग के वसीम की शुरू के क़रीब 25 दिन अपने घर वालों से कोई बात नहीं हुई. अपने ही घर वालों से बात न करने के ‘दर्द’ ने उन्हें इतना परेशान किया कि वो इन 25 दिनों में अपने एमफ़िल के थेसिस के लिए एक शब्द भी नहीं लिख पाए.

वो इस संवाददाता के साथ बातचीत में कहते हैं कि ज़रा सोचिए, आप ज़ेहनी तौर पर परेशान हों और आपकी इसी परेशानी पर कोई जश्न मनाए और आपको मिठाईयां खाने को दे, तब आपके दिल पर क्या गुज़रेगी?

वसीम की सितंबर के पहले हफ़्ते में घर वालों से बात हुई, तब उनके दिल को थोड़ी तसल्ली मिली. फिर उनके गाईड ने भी बुलाकर थोड़ा समझाया, तब जाकर वापस अपनी पढ़ाई की तरफ़ लौट पाए हैं. वो बताते हैं कि उन्हें यहां रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कुछ पैसों की ज़रूरत थी, लेकिन वो यहां किसी से मांग नहीं सकते. फिर उन्होंने जामिया के अपने एक पुराने दोस्त को कॉल किया. उससे क़र्ज़ मांगा, तब जाकर यहां फ़ीस भर पाए.

जब इस संवाददाता ने उनसे गुजरात में उनके यूनिवर्सिटी का नाम पूछा तो वो तुरंत घबराकर कहने लगे कि भाई प्लीज़ मेरे कॉलेज का नाम मत देना, वरना मुझे यहां परेशानी होगी.

नॉर्थ कश्मीर से आकर दिल्ली में पढ़ने वाली एक छात्रा नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर गुस्से में कहती हैं कि, घर वालों से बात करके मैं क्या करूंगी? क्या सिर्फ़ मेरे बात कर लेने का मतलब ये होगा कि वहां हालात सुधर गए हैं. मैं इस वक़्त ये नहीं सोच रही हूं कि मैं किसी की बेटी हूं, मैं अभी बस कश्मीरी हूं. हमसे हमारी पहचान छीन ली गई और आप मुझसे मेरी परेशानियों के बारे में पूछ रहे हैं?

वो आगे कहती हैं कि मुझे इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मेरी घर पर बात हो रही है या नहीं? लेकिन मुझे इस बात से फ़र्क़ ज़रूर पड़ता है कि मेरे कश्मीर के लोगों को मारा-पीटा जा रहा है. मेरी आख़िरी बार बात हुई थी तो पता चला कि मेरे आस-पास के लोगों व रिश्तेदारों को आर्मी के लोगों ने मारा-पीटा है. अगर भारत के लोग वाक़ई ये सोचते हैं कि कश्मीर हमारे मुल्क का हिस्सा है तो उन्हें कश्मीरियों की असल परेशानियों को भी देखना होगा, जो वो सालों-साल से झेलते आ रहे हैं.

दिल्ली के जामिया में जर्नलिज़्म की पढ़ाई कर रही इफ़रीन रविन का पूरा परिवार श्रीनगर में रहता है. वो बताती हैं कि कश्मीर में जब ये सबकुछ शुरू हुआ तो मैं वहीं थी. 15 अगस्त को दिल्ली आई. मेरा दाख़िला मेरे अब्बू ने करा दिया था. लेकिन यहां आने के बाद मुझे हॉस्टल की फ़ीस जमा करनी थी. ऐसे में एक दोस्त से क़र्ज़ लेकर फ़ीस अदा की.

वो कहती हैं, “मुझे हर वक़्त घर की टेंशन लगी रहती है. हम यहां से कॉल नहीं कर सकते. उन्हें भी हमसे सेकेंड भर बात करने के लिए घंटों मेहनत करनी पड़ती है. उनकी परेशानयों को देखकर अब तो बात करने की चाहत भी हम दफ़न कर चुके हैं. आगे पता नहीं, क्या होने वाला है.”

सोफ़ियान की बाबराह नाईकू कहती हैं कि मीडिया यहां ये भ्रम फैला रही है कि कश्मीर में कम्यूनिकेशन सर्विस बहाल कर दी गई है. लेकिन सच है कि ऐसा नहीं है. वहां सिर्फ़ लैंड लाईन सेवा बहाल की गई है. आज के ज़माने में तो सबके पास मोबाईल है, लैंड लाईन रखता कौन है. और मोबाईल सर्विसेज़ तो आज भी बंद हैं.

वो कहती हैं कि पिछले 40 दिनों में मुझे सिर्फ़ इस बात से ही तसल्ली कर लेनी पड़ी क्योंकि मेरे कज़न ने बताया कि घर के सबलोग फिलहाल ठीक हैं. फिर वो आगे कहती हैं, “मेरी तो छोड़िए! मैं तो दिल्ली में हूं. वहां तो मेरे नाना को मेरी अम्मी से बात करने के लिए एक ऑफ़िस में जाना पड़ा. चंद मिनटों की बात के लिए अपने घंटों ख़राब किए, जबकि नाना का घर मेरे घर से सिर्फ़ 10 मिनट की दूरी पर है. वहां इतनी पाबंदियां हैं कि लोग एक दूसरे से मिल भी नहीं पा रहे हैं.”

आख़िर में वो कहती हैं, “कभी मैं एक दिन भी अपनी मां-अब्बू से बात किए बग़ैर नहीं रहती थी, लेकिन आज…” इतना कहकर वो रूक जाती हैं. बता दें कि बाबराह भी जामिया में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं.

बारामुला के आमिर मुज़फ़्फ़र बट्ट का कहना है कि मैंने यहां अपना एमए पूरा कर लिया है. अब मैं अपने अब्बू से ये तक पूछ नहीं पाया कि बीएड में दाख़िला लूं या एमफ़िल में? यहां दाख़िला लेना है लेकिन पैसे नहीं हैं. और सोच रहा हूं कि घर वालों से पैसे किस मुंह से मांगू? आख़िर वो कहां से लाकर देंगे? मेरे कई दोस्त कालेज की फ़ीस नहीं भर पाए हैं. पता नहीं उनका आगे क्या होगा. और घर जाने के बारे में सोच ही नहीं सकते. अगर चले भी गए तो वहां घरों में क़ैद हो जाएंगे.

दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे एक असिस्टेंट प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि “हमें तो सैलरी मिलती है. लेकिन उन बच्चों के बारे में सोचिए, जिनका अभी एडमिशन हुआ है. एक छात्र ने रात को तीन बजे अपना स्टेटस अपडेट किया कि वो लाल क़िला के पास खड़ा है और उसके पास पैसे नहीं हैं. दरअसल उसे मुंबई जाना था, मैंने उसी वक़्त वहां पहुचंकर उसकी मदद की. एक लड़की ने कॉल करके बताया कि उसका जामिया में दाख़िला होना है, लेकिन फ़ीस नहीं है. तब हम कुछ लोगों ने जामिया के वाइस चांसलर को एक पत्र लिखकर कहा कि कश्मीरी छात्रों के लिए फ़ीस जमा करने की तारीख़ थोड़ी बढ़ा दी जाए, लेकिन यूनिवर्सिटी भी कहां तक करेगी? और मेरी भी मदद करने की कुछ सीमाएं हैं.”    

(नोट: इसका संक्षिप्त संस्करण नवजीवन हिन्दी में 20 सितंबर, 2019 को प्रकाशित किया जा चुका है.)

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