History

कभी ये लाइब्रेरी देश के बड़ी और बेहतरीन लाइब्रेरियों में शुमार थी, लेकिन आज है ये हालत…

Khurram Malick for BeyondHeadlines

अब्दुल क़वी देसनवी को आप जानते हैं? जी! वही देसनवी जिन्हें आज से ठीक दो साल पहले 1 नवम्बर 2017 को गूगल ने अपना डूडल बनाया था. लेकिन क्या आप उनके गांव की उस मशहूर लाइब्रेरी को भी जानते हैं, जिसे देखने कभी देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस गांव में पहुंचे थे.

ये कहानी बिहार के बिहारशरीफ़ ज़िला मुख्यालय से लगभग 14 किलोमीटर दूर अस्थावां प्रखंड के देसना गांव में स्थित ‘अल-इस्लाह उर्दू लाइब्रेरी’ की है. तब ये लाइब्रेरी देश के कुछ बड़ी और बेहतरीन लाइब्रेरियों में शुमार थी. लेकिन आज ये बदहाल है. इसकी इमारत और यहां मौजूद किताबें अपनी अंतिम सांसे ले रही हैं. खंडहर में तब्दील हो रहे इस महान लाइब्रेरी को कोई पूछने वाला नहीं है.

इस गांव के मास्टर नय्यर इमाम बताते हैं कि जब डॉ. ज़ाकिर हुसैन जब बिहार में राज्यपाल थे, तब उनकी नज़र इस नायाब धरोहर पर पड़ी. उन्होंने ही यहां रखी दुर्लभ किताबों के तहफ़्फ़ुज़ के लिए पटना के ख़ुदाबख्श लाइब्रेरी भेजने का फ़ैसला लिया. 1957-58 में लगभग 9 बैलगाड़ी से हज़ारों किताबें ख़ुदाबख्श लाइब्रेरी ले जाई गयी थीं. अब ख़ुदाबख्श लाइब्रेरी में अलग से देसना सेक्शन मौजूद है और यहां की किताबों की फ़हरिस्त अलग से बनी हुई है.

वो आगे बताते हैं कि हज़ारों किताबों के चले जाने के बावजूद देसना की इस लाइब्रेरी में अभी भी ऐसी दुर्लभ किताबें मौजूद हैं, जो शायद ही कहीं और मिल सके. ये नायाब व दुर्लभ किताबें बहुत ही ख़राब हालत में हैं और कई किताबों की बाइंडिंग कराना बहुत ज़रूरी है. लेकिन पैसे की तंगी की वजह से ये काम नहीं हो पा रहा है.

उनके मुताबिक़ हर साल गर्मी के मौसम में इन किताबों को धुप दिखा देते हैं, जिससे इनकी लरज़ती सांसों में थोड़ी सी जान आ जाती है और यह फिर से जीने के लायक़ हो जाती हैं.

बता दें कि इस लाइब्रेरी की शुरुआत 1892 में देसना गांव के पढ़ने वाले नौजवानों ने की थी. बताया जाता है कि कभी यहां एक लाख किताबें हुआ करती थीं. कभी इस लाइब्रेरी में हयात-ए-सुलेमान, यारे अज़ीज़ हाथों से लिखी क़ुरान शरीफ़ का नुस्खा, इस्लामिक साहित्य पर लिखी पुस्तकें, पैगंबर साहब की जीवनी आदि से संबंधित हज़ारों नायाब किताबें रखी थीं.

देसना की इस लाइब्रेरी में आज भी अनेक दुर्लभ किताबें मौजूद हैं. ये अलग बात है कि इसे पढ़ने वाला इस गांव में कोई नहीं है. इस गांव की युवा पीढ़ी को अपने आंगन में रखे ज्ञान के इस भंडार को सहेजने की फुर्सत नहीं है. ये वही नौजवान हैं जो चार हज़ार का जूते तो ख़रीद सकते हैं, लेकिन इस लाइब्रेरी के किताबों को बचाने या इसे फिर से ज़िन्दा करने के लिए चार रुपये खर्च क़तई नहीं कर सकते. सारी उम्मीदें सरकार से हैं. उस सरकार से जो अब उर्दू ज़बान को एक बाहरी और सिर्फ़ मुसलमानों की ज़बान मानने लगी है…

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