Edit/Op-Ed

योगी राज में लोकतंत्र पर बरसती लाठियां…

By Abhay Kumar

क्या प्रदर्शन करना और सरकार की किसी नीति और क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करना देश-विरोधी गतिविधि है? क्या शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर लाठी बरसाना लोकतंत्र पर लाठी मारना नहीं है?

देश की राजनीति में सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश का हाल देखिए. किस तरह सरेआम राज्य की पुलिस प्रदर्शनकारियों को दौड़ा दौड़ा कर मार रही है. प्रदर्शनकरियों में भी एक ख़ास घर्मिक समाज के लोगों को कुछ ज़्यादा ही टारगेट किया जा रहा है.

‘इंडिया टुडे’ की एक एक ताज़ा रिपोर्ट में गृह विभाग के एक प्रवक्ता के हवाले से कहा गया है कि अब तक हिंसा में 19 लोगों के मारे जाने की ख़बर है. 1,113 लोगों को प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से गिरफ्तार किया गया है. पांच हज़ार से ज़्यादा लोग को ‘प्रिवेंटिव डिटेंशन’ में रखा गया है. यही नहीं पुलिस ने तीन सौ से अधिक प्राथमिकी दर्ज की हैं. इसके अलावा सैकड़ों लोगों को नोटिस दिया जा रहा है कि वे अपनी जेब से हिंसा के दौरान हुए नुक़सान के लिए मुआवज़ा दें.

दोहरी नीति का आलम यह है कि नागरिक संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शन में तथा-कथित सरकारी सम्पत्ति के नुक़सान के लिए तो प्रदर्शनकारियों से मुआवज़ा लिया जा रहा है, मगर क्या कभी उसी उत्तर प्रदेश की सरकार ने उनसे भी कभी हरजाना तलब की जिन्होंने दिन के उजाले में एक धार्मिक स्थल को तोड़ डाला था और देश को दंगों की आग में झोंक दिया था?

सबसे अफ़सोसजनक बात तो यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों पर हुए पुलिसिया बल-प्रयोग की जांच कराने के बजाए, उल्टा 1200 लोगों (जिन में अलीगढ़ के विद्यार्थी भी शामिल हैं) के ख़िलाफ़ केस दर्ज कर दिया गया है.

उनका जुर्म सिर्फ़ इतना है कि उन्होंने मोमबत्तियां जला कर प्रदर्शन किया और धारा-144 का उल्लंघन किया. क्या मोमबत्ती जला कर प्रदर्शन करना भी अशांति और हिंसा फैलाना हो गया है? क्या इसे राजनीतिक बदला नहीं तो और क्या कहेंगे?

मगर इस सबसे लोकतंत्र और उस के ढांचे को कमज़ोर किया जा रहा है. अगर ऐसी बात नहीं होती तो क्या मेरठ का एक पुलिस कप्तान मुसलमानों को “पाकिस्तान जाने के लिए” धमकी देता और यह भी कहता कि “खाओगे यहां का, गाओगे कहीं और का?”

क्या यह पुलिस अफ़सर की खुद की ज़बान थी या फिर कोई कट्टर और सांप्रदायिक भूत उस की जिहवा पर बैठ गया था? जिन मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ देश की आज़ादी की जंग लड़ी, फौज में भर्ती होकर देश की रक्षा की, सिनेमा और संगीत में रस-बस कर लोगों का दिल बहलाया, साहित्य और लेखन में डूबकर हिन्दी, उर्दू और अन्य भाषाओं को आगे बढ़ाया, राजनीति और नौकरशाही में अवसर पा कर देश की सेवा की, मेहनत और मज़दूरी से निकले हुए पसीने से मिट्टी को सींच कर उपजाऊ बनाया और फैक्ट्री का ईंधन बन कर उत्पादन बढ़ाया, उनको अब पाकिस्तान जाने को कहा जा रहा है!

अगर पाकिस्तान जाने की बात कोई नागपुरिया ख़ाकी पहने हुए शख़्स कहता तो बात समझ में भी आती. यह ज़हर तो उनकी ज़बान से निकला था जो संविधान और क़ानून की ख़ाकी पहने हुए था. क्या यह बाबा साहेब आंबेडकर के संविधान का अपमान नहीं है?

यह भी तो दोहरी नीति का ही उदाहरण है. धर्म को आधार बना कर और सेक्यूलर संविधान की रूह के ख़िलाफ़ जब नागरिकता क़ानून पास होता है, जिसके विरोध में न सिर्फ़ जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी खड़ी होती है, बल्कि असम, मणिपुर, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरल समेत अन्य राज्य भी खड़े होते हैं.

यही नहीं, देश-विदेश की मीडिया, मानवाधिकार संगठन, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और खुद सत्ताधारी फ्रंट से जुड़े बहुत सारे साथी दल इस क़ानून के विरोध में खड़े हो जाते हैं. विरोध में उठने वाले स्वरों को सुनने के बजाए, पुलिस और सरकार उन पर लाठियां बरसा रही हैं.

वहीं दूसरी तरफ़  मुट्ठी भर लोग सरकार और इस क़ानून के समर्थन में रैलियां बग़ैर किसी रोक टोक के निकाल रहे हैं. बहुत सारे वायरल हुए वीडियो में यह देखा गया है कि वे भगवा झंडा लिए उत्पात भी मचा रहे हैं. फिर भी उन्हें क़ानून और व्वस्था के लिए ख़तरा महसूस नहीं किया जा रहा है और सरकार समर्थक मीडिया उन पर फूल बरसा रही है.

इसी सबको लेकर जब देश के एक बड़े पत्रकार ने अपनी राय ज़ाहिर की कि नागरिकता संशोधन क़ानून विरोधी प्रदर्शन में हर तरफ़ तिरंगा होता है, वहीं इस क़ानून और सरकार के पक्ष में निकाले गए जुलूस में भगवा झंडा होता है, तो इसे एक पत्रकार की राय तक ही नहीं मानी गई, बल्कि इसको आतंकी संगठन आईएसआईएस के लिए काम करने के लिए उपयुक्त होने की बात कह दी गई और उनका सोशल मीडिया ट्रायल किया गया.

ये सारी बातें मुझे प्रदर्शनकारियों पर हुए दमन से भी ज़्यादा दर्द देती हैं. क्योंकि, ये लाठियां इंसान की हड्डियों को ही नहीं तोड़ रही हैं जिसे किसी डॉक्टर की मदद से जोड़ी जा सके. बल्कि ये लाठियां उत्तर प्रदेश की योगी सरकार लोकतंत्र पर बरसा रही है, जो शायद इतनी आसानी से जुड़ नहीं सकता है.

(लेखक जेएनयू के रिसर्च स्कॉलर हैं.)

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