By Ajit Sahi
शशि थरूर को ला इलाहा इल्लल्लाह से तकलीफ़ है. कहते हैं कि ये कट्टरता का सूचक है. कोई उनको ये समझाए कि ये धार्मिकता का सूचक है कट्टरता का नहीं.
दरअसल भारत में बहुत सारे तथाकथित सेकुलर-लिबरल लगे हुए हैं कि किसी तरह सड़क पर उतरे मुसलमान को सेकूलर जामा पहना कर रखें कि वो इस्लामी फ़्रेमवर्क में बात न करें. सेकूलर लोगों को लगता है कि अगर मुसलमान ने ‘अल्लाहू अकबर’ बोल दिया या ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ बोल दिया तो फिर मामला सांप्रदायिक हो जाएगा और लोचा हो जाएगा. कुछ लोग बार-बार ये भी दिखाना चाहते हैं कि ये लड़ाई मुसलमान नहीं लड़ रहे हैं बल्कि देश के सभी नागरिक लड़ रहे हैं.
अरे भाई! भीड़ में चाहे कोई और क्यों न हो, ये लड़ाई मुसलमानों की ही है, क्योंकि CAA-NRC-NPR के टार्गेट में मुसलमान नहीं तो कौन है? और इस लड़ाई की अगुवाई मुसलमान नहीं कर रहा है तो कौन कर रहा है? जहां तक सांप्रदायिकता की बात है तो राजनीति को पूरी तरह सांप्रदायिक तो संघियों ने ही कर रखा है. CAA-NRC-NPR का शिगूफ़ा सांप्रदायिक नहीं तो क्या है?
दूसरी बात ये है कि पिछले 30-40 सालों में सेकूलर लिबरल होने का मतलब भारत में ये हो गया है कि धर्म ग़लत है और इसलिए राजनीति का निर्वाह ग़ैर-धार्मिक फ़्रेमवर्क में हो. ख़ासतौर से अंग्रेज़ी बोलने वाला वर्ग इस सोच का अड़ियल हिमायती है. लेकिन इस कंफ़्यूज़न से सेकूलरिज़्म को ख़ुद बहुत नुक़सान हुआ है.
दरअसल राज्य और राजनीति संबद्ध होते हुए भी दो अलग-अलग चीज़ें हैं. राज्य अधार्मिक होना चाहिए ये सही है, लेकिन राजनीति का भारत जैसे देश में अधार्मिक होना असंभव है. इसीलिए महात्मा गांधी विशुद्ध रूप से धार्मिक थे और स्वघोषित हिंदू थे. भारत के करोड़ों हिंदुओं को उन्होंने हिंदू धर्म और दर्शन की जो परिभाषा दी उसी वजह से करोड़ों भारतीय अंग्रेज़ों से सफलतापूर्वक लड़ सके. लेकिन जब तथाकथित गांधीवादियों ने ही गांधी के हिंदू दर्शन को त्याग दिया तो हिंदुओं में आरएसएस का प्रभाव बढ़ता चला गया. आज अगर भारत का सेकूलर लिबरल हिंदू अपने आप को हिंदू कहना शुरू करे और गांधी द्वारा दी गई हिंदू धर्म, दर्शन और समाज की अस्मिता को अपनाकर संघी दर्शन पर प्रहार करे तो हिंदुत्व एक पल नहीं टिक सकता है.
बहरहाल, सबसे अच्छी बात ये है कि न केवल भारत का मुसलमान आज जाग गया है, बल्कि वो अपनी आवाज़ मुसलमान होने के नाते ही बुलंद कर रहा है न कि एक आम भारतीय होने के नाते. ये कोई बिजली-पानी की लड़ाई नहीं है. ये नागरिकता की बुनियादी लड़ाई है. बहुत जल्द हम देखेंगे कि मुसलमानों का एक नया और ख़ालिस भारतीय मूवमेंट शुरू होगा जिसकी बुनियाद भारतीयता और इस्लाम दोनों में होगी. जो ये सोचते हैं कि इस मूवमेंट में इस्लाम की सीख नहीं होगी वो बेवक़ूफ़ हैं. उनको न मुसलमान के बारे में जानकारी है और न ही भारत के बारे में.
जो मुसलमान तक़सीम के वक़्त पाकिस्तान नहीं गए थे वो सेकूलर-लिबरल-वाद की वजह से नहीं रुके थे बल्कि इस्लाम की सीख की वजह से रुके थे. मौलाना आज़ाद नफ़ीस इस्लामी स्कॉलर थे और उन्होंने इस्लाम और क़ुरआन का हवाला देकर मुसलमानों को कहा था कि उन्हें पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए. करोड़ों मुसलमान ये मान कर भारत में रुके थे कि इस्लाम की सीख उनको बतलाती है कि उनको अपना वतन छोड़ कर नहीं जाना चाहिए.
1947 में विभाजन के बाद भारत के मुसलमान एक स्टीरियोटाइपिंग का शिकार होते चले गए कि उनका मज़हबी होना भारत में उनका बराबर के हक़दार होने के आड़े आता है. अफ़सोस की बात ये है कि सेकूलर लिबरल हिंदुओं ने इस पूर्वाग्रह को आगे बढ़ाया ही, बहुत से पढ़े-लिखे मुसलमान भी इसे मानने लगे थे. इसीलिए मुसलमानों में मोटी राय हो गई थी कि, अरे, हम लोग तो दीनी लोग हैं, हम क्या कर पाएंगे राजनीति, चलो हमारे रहनुमा ये हिंदू ही रहेंगे, इनको चुपचाप वोट दे देते हैं. और इसके चलते हिंदू रहनुमाओं ने भी ख़ूब मौज की 40-50 साल मुसलमानों का वोट पाकर. इसमें कांग्रेसी भी थे, कम्युनिस्ट भी थे, सपाई भी थे, बसपाई भी थे. सबको मुसलमानों का वोट चाहिए था लेकिन इस्लाम नहीं चाहिए था.
लेकिन क्या मस्त आयरनी है कि संघ और मोदी और बीजेपी ने न केवल भारत के मुसलमानों को जगा दिया है बल्कि उनको अपने मुसलमान होने पर दोबारा गर्व करवा दिया है. आज भारत के मुसलमानों से संघ का डर निकल गया है. कोई सोच सकता था एक महीने पहले तक कि मुसलमान महिलाएं निडर होकर रात सड़क पर गुज़ारेंगी तब जबकि संघी निज़ाम पुलिस से उनपर गोलियां चलवा रहा है? कोई सोच सकता था कि वो मुसलमान जो सोनिया और ममता और मुलायम और लालू से मिली राजनैतिक भीख पर आश्रित था आज बग़ैर उनका इंतज़ार किए बहैसियत मुसलमान एकजुट होकर अकेले दम हिंदुत्व से मुक़ाबला कर रहा है? यही जंग-ए-बद्र है.
हम अपने सामने आज़ाद भारत में पहली बार राजनैतिक इस्लाम की इमारत खड़ी होते देख रहे हैं. आपको आज नहीं दिखेगा लेकिन साल दो साल में दिखेगा. और ऐसा होना देश के लिए बहुत अच्छा होगा. बग़ैर अस्मिता के स्वाभिमान नहीं होता. दलित हो या आदिवासी या मुसलमान या उत्तर पूर्व में असम, मणिपुर, मिज़ोरम, नागालैंड, सिक्किम का नागरिक. कश्मीर की लड़ाई भी अस्मिता की ही है.
आज भी भारत का हर मुसलमान उतना ही सच्चा देशभक्त है जितना वो सच्चा मुसलमान है. बग़ैर इस्लाम के देशभक्ति हो ही नहीं सकती. अब भारत में मुसलमान मुसलमान बन कर रहेगा. और जैसे अमेरिका के अल्पसंख्यक अश्वेत लोग अपने दम पर, अपनी अस्मिता को डंके की चोट पर आगे बढ़ाते हुए देश में अपना हक़ मांग कर आगे बढ़ रहे हैं, वैसा ही भारत का मुसलमान करेगा.
तारीख़ गवाह होगी एक दिन कि भारत से हिंदुत्व की टुकड़े-टुकड़े वाली विचारधारा का ख़ात्मा यहां के मुसलमान ने किया था.
(ये लेखक के अपने विचार हैं.)