India

प्रवासियों की भीड़ —आंखों देखी

By Dilnawaz Pasha

नोएडा के औद्योगिक क्षेत्र फ़ेज़ टू इलाक़े में जगह-जगह प्रवासी मज़दूर परेशान खड़े थे. अपने घर लौटने के लिए बेचैन.

पुलिस की जीप ऐलान लगा रही थी -सूरजपुर ले चले जाइये बस मिलेगी, आनंदविहार चले जाइये बस मिलेगी. कौशांबी चले जाइये बस मिलेगी-

कहीं-कहीं पुलिस लट्ठ भी मार रही थी.

ये मज़दूर लौट रहे थे क्योंकि—

-फैक्ट्री में काम बंद तो पैसा मिलना बंद

-किराना की दुकान से उधार मिलना बंद

-मकान मालिक किराए के लिए ज़ोर दे रहे थे

-भुखमरी की नौबत आ गई थी

जगह-जगह कुछ स्वयं सहायता समूह खाने के पैकेट बांट रहे थे. कहीं केले बंट रहे थे.

बच्चों को कंधे से चिपकाए, सामान टांगे ये मज़दूर पैदल ही चले जा रहे थे.

बस अड्डों पर भीड़ जुट रही थी. लालकुआं बस अड्डे पर भी दसियों हज़ार लोग पहुंच गए थे.

इन सबका कहना था कि- ‘घर जाने के लिए फ्री बस मिलेगी इसलिए वो आए हैं.’

लेकिन बस फ्री क्या-दोगुने किराए पर भी मिलनी मुश्किल थीं.

सरकारी बस में टिकट कट रहा था. मज़दूर ठगा सा महसूस कर रहे थे. जिनके पास पैसे थे वो बैठ जा रहे थे. जिनके पास नहीं थे वो तड़प रहे थे.

लखनऊ तक जाने के लिए प्राइवेट बसें भरी जा रहीं थीं. नीचे बैठने के 1200 से 1500 रुपए तक, छत पर बैठने के सात सौ.

बसें ठूंस-ठूंस कर भरी जा रहीं थीं.

मैंने तीन बसों के कंडक्टरों से बात की. किराया 1200 से 900 या हज़ार करवाया. (मोबाइल के कमरे का असर कहा जा सकता है.)

वहीं कुछ पुलिसकर्मी खड़े थे. उनसे गुहार लगाई कि कम से कम निजी बसों का एक किराया तो तय कर दें. उन्होंने एसआई के पास भेज दिया. एसआई से गुहार लगाई तो शायद वहीं सीओ खड़े थे, उन्होंने सीओ के पास भेज दिया.

सीओ ने माइक से एलान किया, बस वाले किराया ज़्यादा न लें और फिर मुझे सिटी मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया.

सिटी मजिस्ट्रेट से जब मैंने कहा कि ये प्रवासी इतने परेशान हैं, किराए के लिए कुछ कीजिए, उन्होंने कहा कि ये आरटीओ का काम है. आगे आरटीओ खड़े हैं, उनके पास जाइये.

वहीं यूपी के मेरठ ज़ोन के एडीजी- प्रशांत कुमार अपनी सफ़ेद पर्दे लगी इनोवा में बैठे थे. मैं उनके पास गया. डेढ़ मीटर के फ़ासले से उनसे बात की. वही सवाल किया- मज़दूरों से ज़्यादा किराया लिया जा रहा है. इनके पास पैसे नहीं है. कुछ कीजिए.

उन्होंने कहा कि बहुत सी बसें फ्री भी तो ले जा रही हैं. उस पर ध्यान दीजिए. मैंने पूछा वो फ्री वाली बसें कहां हैं- उनके पास कोई जवाब नहीं था.

चलते-चलते उन्होंने कहा- आप ज़्यादा किराया लेने वाली बसों की शिकायत कीजिए… पुलिस देखेगी.

एक टेक्स्ट मैंने यूपी के गृह-सचिव अवनीश अवस्थी को भेज दिया था. देर रात उनका फ़ोन आया. उन्होंने कहा- ‘हम इस पर ज़रूर कुछ करेंगे.’

मेरी अपनी राय ये बनीं कि भीड़ जुटने की सबसे बड़ी वजह घर जाने के लिए फ्री बसें मिलने की अफ़वाह थीं.

ये शायद यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस ट्वीट से फैली जिसमें उन्होंने कहा था कि एक हज़ार बसों का इंतेज़ाम किया जा रहा है.

जो हालात कल बनें, वो बेहद चुनौतीपूर्ण थे. पुलिस के लिए भी, प्रशासन के लिए भी. और इस दौरान सबसे मुश्किल था सोशल डिस्टेंस मेंटेंन करना, कुछ ही मिनटों में ये अहसास हो गया था.

मन में ये ख़्याल भी आया कि जब ऐसे अभूतपूर्व हालात बन जाएं तो पुलिस या प्रशासन भी अचानक क्या ही कर सकता है? जो अधिकारी ग्राउंड पर थे, वो भी तो ख़तरा उठा ही रहे थे. स्थिति पूरी तरह उनके नियंत्रण के बाहर थी.

लॉकडाउन के इस कंपलीट ब्रेकडाउन का सबक ये है कि जानकारी का एक प्रोपर चैनल होना चाहिए.

समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को सही और सटीक जानकारी मिलनी चाहिए.

ये सही जानकारियां हीं लोगों में भरोसा पैदा करेंगी कि सरकार उनके लिए काम कर रही है, उनका ख़्याल रख रही है.

या तो एक हज़ार बसों का ट्वीट होना ही नहीं चाहिए था और जब देश के सबसे बड़ी आबादी वाले प्रदेश के सीएम ने ये ट्वीट कर ही दिया था तो इंतेज़ाम होना चाहिए था.

और एक पूर्व नियोजित व्यवस्था के तहत प्रवासियों को निकाला जाता और घर भेजा जाता. शायद प्रशासन के पास ऐसा करने का पर्याप्त समय नहीं था. हालांकि सबसे ज़्यादा ज़रूरत तो लॉकडाउन को सख़्ती से लागू करने की थी. प्रवासियों में ये भरोसा पैदा करने की थी कि भले ही 21 दिन उन्हें कोई काम न मिले, उन्हें ज़रूरत का सामान और खाने-पीने की चीज़ें मिलती रहेंगी. ऐसा नहीं हो सका. सरकारें प्रवासियों में भरोसा पैदा नहीं कर सकीं और फिर ऐसे हालात बनें.

(ये पोस्ट दिलनवाज़ पाशा के फेसबुक टाइमलाईन से ली गई है.)

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