अब मेरे पैरों तले
रास्ता चुभता नहीं है.
और ना ही तपती हुई ज़मीन
मेरे छिले हुए, छालों भरे पाओं को
तकलीफ़ देती है.
अब मेरे आंखों से
आंसू नहीं बहते.
और ना ही मेरे गले में
सूखेपन का कोई
एहसास होता है.
अब मेरे पेट में
भूख की आग नहीं जलती.
और ना ही मेरे जिस्म में
गर्म, जोशीला लहू सा
कुछ बहता है.
यक़ीन मानो,
मेरे बच्चों के चहरें पर भी
कभी ख़ुशी का आशियाना था.
ग़रीब हुए तो क्या हुआ,
हमने भी उन्हें प्यार ही से पाला था.
आज चहरे ख़ाली हैं उनके
आंखों में रोशनी कम ही है.
और पेट की और देख सकूं
इतनी मुझ में हिम्मत नहीं है.
पीठ पर अपना घर उठाए,
हाथों से पेट में एक और गांठ बांधे,
अपनी नज़र को नीचे झुकाए,
मैं चल रहा हूं.
डरता हूं, कि गर नज़र ग़लती से ऊपर उठ जाए
तो तुम्हारी नज़रों के तानों से
कहीं मेरे हौसले ना टूट जाए.
मेरी इस ज़िद्द को
मेरी कमज़ोरी ना समझना.
और समझ लो गर
तो बस इतना याद रखना,
जिन घरों पर नाज़ कर रहे हो इतना
उन्हें बनाया तो मैंने ही है!
ये तो वक़्त वक़्त की बात है
कि आज मैं धूप की छत सर पर लिए,
चल रहा हूं…
हां, मैं मज़दूर ज़रूर हूं,
मजबूर, क़तई नहीं!