एक तरफ़ विश्व की पूरी मानवता कोरोना संकट से जूझ रही है. इसका कोई निदान नहीं मिल पा रहा है. लोग इस फ़िक्र में हैं कि कैसे एकजुट होकर कोरोना से मुक़ाबला करें, इस बीमारी का निदान पाएं. वहीं दूसरी तरफ़, भारत में इस नाज़ुक मौक़े पर भारतीय न्यायपालिका वंचित समुदायों के हितो के ख़िलाफ़ फ़ैसले सुना रही है.
ये विवाद देश और न्यायपालिका के सामने कोई नए नहीं हैं. शायद ऐसे निर्णय इस नाज़ुक मौक़े पर इसलिए भी दिए जा रहे हैं ताकि उन पर कोई चर्चा न हो, कोई विरोध न हो. क्योंकि पूरे देश में लॉकडाउन है. और फिर यही निर्णय स्थायी बन जाएंगे.
अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रिज़र्वेशन के ख़िलाफ़ दो निर्णय दिए गए हैं. एक निर्णय में आदिवासी इलाक़ों में स्थापित शैक्षिक संस्थानों में उनके 100% रिज़र्वेशन को समाप्त कर दिया गया है. एक दूसरे फ़ैसले में कोर्ट ने कहा है कि अनुसूचित जाति–जनजाति (एससी-एसटी) के महानुभावों के कारण गरीबों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है.
रिज़र्वेशन पर आए इन दोनों निर्णयों को देश के अनेक बुद्धिजीवी विवादास्पद मान रहे हैं.
जहां तक अनुसूचित जाति–जनजाति के महानुभावों का सवाल है. सर्वोच्च न्यायालय ने एससी-एसटी के उन लोगों को महानुभाव बोला है, जो रिज़र्वेशन से ‘लाभ‘ प्राप्त कर चुके हैं.
संविधान का अनुच्छेद —335 यह बताता है कि रिज़र्वेशन का कार्यकुशलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए.
यहां दो पहलू विचारणीय हैं. एक पहलू यह है कि ‘महानुभावों‘ को रिज़र्वेशन से बाहर कर दिया जाये, तो क्या उनके साथ जातिगत भेदभाव नहीं होगा? दूसरा पहलू यह है कि जिन एससी-एसटी के ग़रीबो के साथ हमदर्दी दिखाई गई है, उनको नौकरी में इसलिए नहीं लिया जाएगा क्योंकि न्यायालय के अनुसार, वे इसके योग्य नहीं हैं. उनको नौकरी में लेने पर प्रशासन की कार्य-क्षमता घट जाएगी. अच्छा यह होता कि सुप्रीम कोर्ट रिज़र्वेशन का कोटा पूरा करने का निर्देश देता, तो एससी-एसटी के गरीब लोगों को भी मौक़ा मिलता.
ज़रूरतमंद को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है, से क्या मतलब है? क्या रिज़र्व कोटे की सभी सीट भरी जा चुकी हैं, जो एससी-एसटी के तथाकथित महानुभाव वर्ग को मिल चुकी हो, और गरीब वर्ग रह गया हो?
रिज़र्व सीट पर बार–बार नॉन फाउंड सूटेबल (NFS) किया जाता है. उसका ज़रूरतबंद से क्या लेना देना है. उस सीट पर वे ग़रीब को भी मौक़ा नहीं देते. वैसे भी ओबीसी में पहले से क्रीमी लेयर लगी हुई है, और एससी-एसटी में सीटें खाली रह जाती हैं, क्योंकि वहां योग्यता का बहाना मिल जाता है.
फ़रवरी 2020 में रिज़र्वेशन के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि रिज़र्वेशन कोई मौलिक अधिकार नहीं है. राज्य सरकार चाहे तो प्रमोशन में रिज़र्वेशन दे सकती है, यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है.
यहां यह तथ्य बताना ज़रूरी है कि मौलिक अधिकार वाला भाग—3 संविधान का सबसे महत्वपूर्ण भाग है. रिज़र्वेशन भी मौलिक अधिकरों में है फिर भी सर्वोच्च न्यायालय उसके मौलिक अधिकार नहीं मान रहा है.
रिज़र्वेशन के मामले पर अनेक बार सर्वोच्च न्यायालय संविधान निर्माताओं की सामाजिक सुधार की भावना के प्रतिकूल निर्णय देता है. शायद इसका कारण यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के ज़्यादातर न्यायाधीश प्रभुत्व समाज से आते हैं और रिज़र्वेशन वंचित समाज के लिए है.
अनेक बार सर्वोच्च न्यायालय ने रिज़र्वेशन के मसले पर अपनी सीमा का अतिक्रमण भी किया है. याद रहे कि विधि निर्माण संसद का काम है. जब जब न्यायालय ने रिज़र्वेशन विरोधी फ़ैसले दिए हैं, तब संसद को संशोधन करना पड़ा है. न्यायालय को यह भी पता होता है, संसद इस बारे में क्या सोचती है. किन्तु फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की भावना के विरुद्ध फ़ैसले दिए हैं.
सामाजिक सुधार के मसले पर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में कहा था, “संसद की प्रभुत्व-संपन्न इच्छा के ऊपर कोई न्यायपालिका अपना निर्णय नहीं लाद सकती, क्योंकि संसद की इच्छा समस्त जनता की इच्छा है. वह इस प्रभूत्व-संपन इच्छा को रोक सकती है, यदि वह ग़लत राह पर है. किन्तु अंतिम विश्लेषण में जब समाज में भविष्य का प्रश्न है, तब न्यायपालिका मार्ग में बाधा नहीं पंहुचा सकती. अन्तोगत्वा विध्न मंडल ही सर्वोच्च है, और सामाजिक सुधार के बारे में न्यायालयों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.”
अतः यह स्पष्ट है कि जनता की इच्छा संसद में अभिव्यक्त होती है, और सामाजिक सुधार के लिए कौन सी नीतियां बनाई जाएंगी, यह भी संसद तय करेगी, न्यायालय नहीं…
बात ऐसी है कि न्यायालय में ज़्यादातर अपर कास्ट इलीट बैठे हुए हैं. ये समाज में ऐसी धारणा बना रहे हैं कि रिज़र्वेशन ग़लत है. इसी का परिणाम है कि जो एससी-एसटी के लोग सरकारी नौकरी में पहुंच भी जाते हैं, उन्हें उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है, और कभी–कभी गुंडागर्दी का भी.
अभी हाल में उत्तर प्रदेश में दलित तहसीलदार अरविन्द कुमार पासी को एक भाजपा सांसद सुब्रत पाठक ने उसके घर पर जाकर हमला किया. सांसद राशन का वितरण अपने तरीक़े से, अपने लोगों के लिए चाहता था. किन्तु तहसीलदार ने ऐसा नहीं किया, इसलिए तहसीलदार पर हमला किया गया.
एक दूसरे मामले में महिला आईएएस अधिकारी रीना नागर ने उत्पीड़न से परेशान होकर इस्तीफ़े की बात कही है.
समझा जा सकता है कि दलित अफ़सरों की ऐसी हालत है तो ग़रीब, मज़दूर की क्या हालत होगी?
रूढ़िवादी समाज के रवैये में न्यायालय के अनेक फ़ैसले भी पूरा सहयोग कर रहे हैं, जिससे यह धारणा बन गई है कि रिज़र्वेशन से नौकरी में आया दलित–पिछड़े ही शोषणकर्ता है.
रूढ़िवादी समाज का रवैया जो संविधान विरोधी है, समाज में ऐसा सन्देश जा रहा है कि न्यायालय उस रूढ़िवादी रवैये को पुष्ट कर रहा है. न्यायालय को ज़रूरत है, एक प्रगतिशील और सामाजिक न्याय का पक्षधर क़दम उठाने की, किन्तु न्यायालय ऐसा नहीं कर रहा है.
केंद्र की भाजपा सरकार का भी रिज़र्वेशन पर ढुलमुल रवैया रहा है. भाजपा के सहयोगी हिन्दू संगठन बार–बार रिज़र्वेशन की समीक्षा की बात करते हैं. समीक्षा के बहाने वह या तो रिज़र्वेशन को हटाना चाहते हैं, या सीधे हटा नहीं पाए तो उसको लागू नहीं करने देना चाहते हैं.
यहां तक कि भाजपा के दलित–पिछड़े समुदाय के नेता भी इस बात को समझ रहे हैं कि भाजपा ऐसा माहौल बनाना चाहती है, जिसमें रिज़र्वेशन की बात ही नहीं हो, उसको चुपके से ख़त्म कर दिया जाए. वैसे भी भाजपा का मुख्य वोटर अपर कास्ट है. भाजपा का मुख्य उद्देश्य उसको खुश करना है. किन्तु वह सीधे तौर पर दलित–पिछड़ों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहती, वह पिछलग्गू की तरह उन्हें अपने साथ बनाए रखना चाहती हैं.
विचार इस बात पर होना चाहिए कि आज़ादी के 70 सालो के बाद भी रिज़र्वेशन को पूरा क्यों नहीं किया गया. कौन ज़िम्मेदार है इसके लिए? भारत का रूढ़िवादी समाज हर हालत में रिज़र्वेशन के ख़िलाफ़ है. न्यायपालिका के फ़ैसले उस रूढ़िवादी समाज का तुष्टिकरण कर रहे है कि रिज़र्वेशन गलत है.
मोदी सरकार समय और नज़ाकत को भांप रही है कि समाज में कितना विरोध होता है. एससी-एसटी एट्रोसिटीज़ एक्ट और 13 पॉइंट रोस्टर मामले में भी सरकार ने यही किया था. जब भारी विरोध हुआ तो उनको फिर वापस ले लिया गया.
एक तरफ़ मोदी सरकार है, जो आरएसएस के इशारे पर काम करती है, जो रिज़र्वेशन विरोधी है. ज़्यादातर हिन्दू संगठन रिज़र्वेशन के मुद्दे पर या तो चुप रहते हैं या वे दबी जुबान से इसका विरोध करते हैं.
मोदी सरकार इन हिन्दू संगठनों के विरुद्ध नहीं जा सकती है. हिंदू संगठन–मोदी सरकार, न्यायपालिका और मीडिया का त्रिकोण का रवैया मूलतः रिज़र्वेशन विरोधी है. ये बार–बार रिज़र्वेशन को लेकर भ्रम उत्पन्न करते हैं, जिससे रूढ़िवादी समाज में रिज़र्वेशन के ख़िलाफ़ भावना और मज़बूत होती है.
(लेखक जेएनयू से पढ़े हैं. इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे हैं. धार्मिक व राजनीतिक मामलों पर लगातार लिखते रहते हैं. इनसे singh.mukhtyar2009@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है. ये उनके अपने विचार हैं.)