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Reading: पाताल लोक: चरमराई सुरक्षा व्यवस्था और पीड़ित समाज की कहानी
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पाताल लोक: चरमराई सुरक्षा व्यवस्था और पीड़ित समाज की कहानी

Istikhar Ali
Istikhar Ali Published June 5, 2020 1 View
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7 Min Read
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हाल ही में रिलीज़ हुई वेब सिरीज़ पाताल लोक समाज को देखने का तरीक़ा बदल देती है. क्योंकि ये सिर्फ़ एक ईमानदार पुलिस हाथीराम चौधरी के संघर्ष और पारिवारिक समस्या की कहानी नहीं है, बल्कि समाज की वास्तविक सच्चाई की झलक दिखाती है.

हाथीराम ने अपने अनुभवों के आधार पर समाज को तीन वर्गो मे विभाजित किया था. पहला —स्वर्ग लोक, जहां उच्च वर्ग के लोग रहते हैं. दूसरा —धरती लोक, जहां मध्यम वर्ग, हाथीराम जैसे लोग रहते हैं. तीसरा —पाताल लोक, जहां निम्न वर्ग, मुख्यत: दलित, अछूत आदि जिनकी ज़िन्दगी कीड़े-मकोड़े जैसे होती है. इसी लोक (जमुनापार पुलिस थाना) में हाथीराम की ड्यूटि लगी होती है. 

पाताल लोक ने समाज की विभिन्न समस्याओं को उठाया है. जिसमें मुख्यतः चरमराई सुरक्षा व्यवस्था, अवसरवादी मीडिया संस्थान, और इस्लामोफ़ोबिया से पीड़ित समाज है. इसके अलावा, अनकही जाति व्यवस्था, दलित विरोधी राजनीति और ब्राह्मण की तुच्छ मानसिकता की समस्या को भी उजागर करता है.

पाताल लोक वेब सिरीज़ ध्वस्त हो रही सुरक्षा व्यवस्था की कहानी को चित्रित करती है. जिसमें एक ईमानदार पुलिस की पूरी राज्य सरकार के आगे हार जाने की कहानी है. हाथीराम चाहकर भी समाज के सामने सच्चाई नहीं ला पाता है.

दूसरी तरफ़ उनका सबसे भरोसेमंद साथी इम्तियाज़ अंसारी धार्मिक प्रताड़ना के बाद भी हिम्मत और ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है और हाथीराम का चरमराई व्यवस्था का पर्दाफ़ाश करने में पूरा साथ देता है. ईमानदार पुलिस के ईमानदार बने रहने की हक़ीक़त ज़मीन पर बिखरी होती है. जब हाथीराम को मालूम चलता है कि उसे सुरक्षा-तंत्र को बनाए रखने के लिए उच्चाधिकारियों द्वारा बलि का बकरा बनाया गया था. उसकी असफलता के पीछे वो अकेला ही नहीं, पूरी सुरक्षा व्यवस्था वजह होती है.

इसी बीच इस्लामोफ़ोबिक मीडिया और सुरक्षा तंत्र के चोंचले और देश को बेवकूफ़ बनाने की पोल खुल जाती है. जब इस्लामी किताबों और उर्दू भाषा को इस्तेमाल किया जाता है और पूरे मामले को बिना किसी गवाह या सबूत ही इस्लामिक आतंकवाद से जोड़ा जाता है. वो भी सिर्फ़ मामले को ठंडा करने के लिए या ध्यान भटकने के लिए समाज को गुमराह किया जाता है. जैसे आम तौर पर कई मामलों में पुलिस द्वारा किया जाता है.

सबको सब मालूम है, लेकिन अंजान बने रहने का ढोंग पूरे समाज को ख़तरे में डाल देता है. लेकिन किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. सब अवसरवादी बने रहते हैं और अपनी ज़िन्दगी को सम्पन्न बनाने में लगे रहते हैं. यहां तक किसी ने किसी से माफ़ी मांगने तक की हिम्मत नहीं की.

सिर्फ़ संजीव कुमार मीडिया वाला अपनी पत्नी से माफ़ी की जगह शुक्रिया कह कर काम चला लेता है. वो भी इसलिए क्योंकि पत्नी के कुत्तों से मोहब्बत करने की वजह से उसकी जान बच जाती है. बाक़ी उनकी जानों और इज्ज़त का क्या जिसका फ़ायदा सुरक्षातंत्र और मीडिया उठा रही है?

दूसरी तरफ़ इस्लामोफोबिया से पीड़ित समाज और व्यवस्था का व्यवहार समाज की हक़ीक़त दिखाता है कि किस तरह एक मुस्लिम पुलिस काम करते वक़्त प्रताड़ित होता है या किया जाता है. वहीं समाज में एक मुस्लिम व्यक्ति को किस तरह अपनी पहचान छिपाने के लिए झूठे प्रमाण-पत्र बनवाना और बच्चों का नाम बदलना पड़ता है.

सीरीज़ दिखाती है कि पुलिस व्यवस्था किस तरह से मानसिक रूप से पीड़ित हो चुकी है. जिसका मीडिया हाउस भी अपने फ़ायदों के लिए इस्तेमाल कर रहा है. अपने टीआरपी बढ़ाने के लिए आधी-अधूरी कहानी को समाज में फैलाने में मीडिया संस्थान की अहम भूमिका प्रदर्शित करती है. किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. फ़र्क़ पड़ता है तो सिर्फ़ मुस्लिमों को, क्योंकि वो दिन-रात उनके ख़िलाफ़ फैलाए गए नफ़रत जो उन्हें ट्रेन से निकाल कर उनके परिवार के सामने ही पीट-पीट कर मार दिया जाता है. मुस्लिम इस प्रताड़ना को दिन-रात सहते हैं. कुछ लोगों की ग़लती की सज़ा पूरे मुस्लिम समाज को दी जाती है. और उन्हें निशाना बनाना वर्तमान समाज में आम बात हो गई है.

इसके अलावा, सिरीज़ हिन्दू नेशनलिस्ट और ब्राह्मणवाद की बेवकूफ़ी को भी दिखाती है कि किस तरह समाज का एक समुदाय मुस्लिम और दलितों से नफ़रत करता है और उन्हें प्रताड़ित करता है. उनका शोषण राजनीतिक फ़ायदे के लिए किया जा रहा है. वहीं देश के प्रति उनके झूठी मुहब्बत के आगे इंसानियत के शर्मसार कर देने वाले गालियां, प्रताड़ना, हत्या का ज़ोर-शोर से प्रोत्साहन किया जाता है.

इसके साथ ही एक ईमानदार पुलिस के पारिवारिक जीवन-संघर्ष और उससे संबंधित अड़चनों को अच्छी तरह से प्रदर्शित किया गया है. किस तरह एक ईमानदार पुलिस को अपने परिवार और बच्चे के पालन-पोषण के लिए संघर्ष करना पड़ता है. दूसरी ओर सामाजिक और आर्थिक वर्ग को स्कूल स्तर पर भेदभाव होना समाज की मानसिक बीमारी से पीड़ित होना साबित करता है.

वर्ग के साथ दलित समाज को राजनीतिक फ़ायदा के लिए धोका देने का चलन भी समाज की हक़ीक़त को ब्यान करता है, और पूरी सीरीज़ में उच्च वर्ग के लोगों का किरदार और दलित समाज की अवहेलना करना भी भेदभावपूर्ण समाज की हक़ीक़त को दिखाता है.

दलित विरोधी शब्दाम्बरों और गाली-गलोच का भरपूर और ज़बरदस्ती प्रयोग करना सिर्फ़ और सिर्फ़ मनोरंजन की बात नहीं थी बल्कि ब्राह्मणवादी उक्ति के रूप में प्रयोग किया गया है. ब्राह्मणों को दलितों का पालनहार दिखाने की भरसक कोशिश की है.

ये सीरीज़ चार अपराधियों के पकड़ने के बीच राज्य और समाज की विभिन्न समस्याओं को उजागर करती है. इसके साथ ही एक ईमानदार पुलिस की रोज़मर्रा जिंदगी के संघर्षो की कहानी है. दूसरी तरफ़ ये सीरीज़ ब्राह्मणवादी मानसिकता का इस्तेमाल इस्लाम और दलित विरोधी समाज को अच्छी तरह से प्रदर्शित करती है.

लेखक इस्तिखार अली जेएनयू के सेंटर ऑफ़ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में पीएचडी स्कॉलर हैं. इनसे ISTIKHARALI88@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.

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