Edit/Op-Ed

बकरीद : टोटल सबमिशन का त्योहार

कहते हैं इंसान मौत के बाद अपनी संतान में जीवित रहना चाहता है. संतान न हो तो जीवन को निरुद्देश्य व अर्थहीन समझा जाता है. ज़िन्दगी बंजर ज़मीन की तरह हो जाती है. संतान के रहने पर इंसान उसके लिए त्याग करता है. उसकी प्रतिष्ठा संतान की प्रतिष्ठा और गरिमा के साथ संयुक्त हो जाती है. उसकी ख्वाहिशें और अरमान भी संतान के रूप में ढल जाते हैं. यह भी कहा जाता है कि संतान प्रेम दरअसल स्वप्रेम ही है.

संतान प्रेम एक प्रकार से हासिल-ए-ज़िन्दगी होता है. और जब बात उसी संतान को फ़र्ज़ की क़ुर्बानगाह तक ले जाने की हो तो इसका अर्थ यह हुआ कि संतान प्रेम से ऊपर कोई ऐसा प्रेम और फ़र्ज़ है, जो टोटल सबमिशन का मुतालबा करता है और वह प्रेम व फर्ज है ‘ख़ुदा से प्रेम’…

ख़ुदा से इसी प्रेम और फ़र्ज़ की याद में हम हर वर्ष ‘बकरीद’ त्योहार मनाते हैं. जिसे हम ईदें क़ुर्बां या ‘ईदुल अज्हा’ भी कहते हैं. इस दिन विश्व के तमाम मुसलमान अल्लाह की राह में क़ुर्बानी देते हैं.

दरअसल, क़ुर्बानी दो बुज़ुर्ग पैग़म्बरों की याद में की जाती है. ये दो पैग़म्बर हजरत इब्राहीम व इस्माईल हैं, जो आपस में बाप-बेटे थे. इब्राहीम ने सपना देखा कि वह अपने इकलौते बेटे ‘इस्माईल’ को खुदा को ख़ुश करने के लिए ज़बह कर रहे हैं. इब्राहीम ने इसे ख़ुदा का आदेश समझा, फिर बेटे की अनुमति चाही. बेटे ने मन की गहराई से इजाज़त दे दी.

दोनों घर से बाहर निकले. क़रीब था कि इब्राहीम बेटे के गले पर छुरी चला देते, लेकिन बाप बेटे की इस फ़िदाकारी को देखकर ख़ुदा की रहमत जोश में आई, उस ने बेटे के बजाए मेंढा ज़बह करने का आदेश दिया. ईद क़ुर्बा की यह क़ुर्बानी इसी की याद में की जाती है. यह क़ुर्बानी इस भावना का प्रतीक है कि आज हम जानवर की क़ुर्बानी कर रहे हैं, कल यदि ज़रूरत पड़ी तो ख़ुदा की ख़ुशी के लिए अपने प्राणों की आहुति भी दे देंगे.

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]