बार-बार ये कहा जाता है कि गांधी राम भक्त थे, क्योंकि गांधी अपनी प्रार्थना सभाओं में राम का नाम ज़रूर लेते थे. लेकिन गांधी जी ने 4 अप्रैल, 1946 को नई दिल्ली में अपनी एक प्रार्थना सभा में भाषण देते हुए साफ़ शब्दों में कहा था— “राम का जो नाम मैं अपनी प्रार्थना में लेता हूं, उस राम का अर्थ ऐतिहासिक दशरथ नन्दन, अयोध्या के राजा राम नहीं है.”
इसी प्रार्थना सभा में गांधी जी अपने राम की व्याख्या करते हुए बताते हैं, “मेरा राम शाश्वत, अनादि, अजन्मा और अद्वितीय है. मैं केवल उसी राम की पूजा करता हूं और उसी की मदद चाहता हूं और यही आपको भी करना चाहिए, ईश्वर एक बराबर सबका है. इसलिए मुसलमान या अन्य कोई ईश्वर का नाम लेने में आपत्ति करे, यह बात मुझे असंगत जान पड़ती है. लेकिन उसके लिए ज़रूरी नहीं है कि वह ईश्वर को राम नाम से ही माने. वह अपने मन ही मन अल्लाह या ख़ुदा की रट लगा सकता है ताकि प्रार्थना में स्वर-संगति न बिगड़ने पाए.” गांधी जी की ये बात 5 अप्रैल, 1946 को हिन्दुस्तान टाईम्स में भी प्रकाशित हुई थी.
आज भूमि पूजन पर ग़लत तरीक़े से याद किए जा रहे हैं गांधी
जिस गांधी ने अपनी ज़िन्दगी के अंतिम दिनों में ये स्पष्ट कर दिया था कि “राम का जो नाम मैं अपनी प्रार्थना में लेता हूं, उस राम का अर्थ ऐतिहासिक दशरथ नन्दन, अयोध्या के राजा राम नहीं है.” बावजूद इसके आज ज़्यादातर मीडिया संस्थान अयोध्या में भूमि पूजन के अवसर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अयोध्या के राम उनसे जोड़ते हुए याद करते हुए नज़र आ रहे हैं. एक वेबसाइट ने तो अपने लेख की हेडिंग ही रखी है —‘अंतिम सांस में राम को पुकारने वाले महात्मा गांधी के बिना राम मंदिर कैसे?’
इस लेख में लेखक अपनी मांग सवालिया अंदाज़ में इस तरह से रखते हैं —‘मरते दम भी ‘हे राम’ पुकारने के बावजूद कोई उन्हें हिंदू कट्टरपंथी अथवा सांप्रदायिक नहीं ठहरा पाया. तो बताइए, राम के ऐसे सच्चे राममय भक्त को राम की विशाल एवं भव्य अट्टालिका में एक गज की कोठरी तो नसीब होनी चाहिए ना?’