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रंग की सियासत या सियासत का रंग?

Firdous Azmat Siddiqui
Firdous Azmat Siddiqui Published August 16, 2020 2 Views
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11 Min Read
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मेरे ज़ेहन में अक्सर एक सवाल आता है कि आख़िर हरे रंग की पहचान हमेशा मुसलमानों के साथ ही क्यों की जाती है? शायद इसलिए कि तमाम मुस्लिम मुल्कों के झंडे का रंग किसी न किसी रूप से हरे रंग के साथ जुड़ा है. या शायद इसलिए कि त्योहारों में मुस्लिम मुहल्लों की गलियां हरी-हरी झंडियों से पट जाती हैं. या इसलिए कि मुहर्रम के महीनों में एक ख़ास फ़िरके के मुस्लिम लड़के सिर्फ़ काला या हरा कुर्ता पहनते हैं. या फिर इसलिए कि ईद मिलादुन नबी और मुहर्रम के जुलूसों में हरे रंग का अलम (झंडा) आगे-आगे चलता है…

जहां तक मेरी समझ है, इस्लाम एक ऐसा मज़हब है जिसमें ना तो किसी ख़ास रंग की अहमियत है और न ही कोई ख़ास दिन. यहां तो हर दिन ख़ास है और हर रंग भी.

मुसलमानों की नज़र में जुमा का दिन पवित्र है. इस दिन हर मुसलमान नमाज़ अदा करता है. तो क्या बाक़ी के दिन की माफ़ी है. क्या बाक़ी दिन ख़ास नहीं हैं. नहीं, बिल्कुल नहीं. दरअसल, इस्लाम में सॉलिडैरिटी और भाईचारे का बहुत ज़्यादा है ज़ोर है. शायद इसलिए जुमे की दिन की अहमियत नज़र आती है. इसीलिए, चाहे लोग कितने ही व्यस्त हों, जुमे के दिन एक साथ एक पंक्ति में खड़े नज़र आते हैं. इसलिए ये ख़ुद बख़ुद एक ख़ास दिन बन जाता है. और फिर ईदुल फित्र और ईदुल-अदहा के दिन की अहमियत है.

अब दूसरे मुद्दे पर आते हैं. बता दूं कि इस्लाम में रंग का कोई सिद्धांत नहीं. फिर भी ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के हिसाब से सफ़ेद रंग सबसे पवित्र माना जाता है. यही वजह है कि एक मुस्लिम जब ख़ुदा की बारगाह में यानी मस्जिद में जाता है तो सफ़ेद लिबास का ख़ास ध्यान रखता है. यहां तक कि अपनी ज़िन्दगी की सबसे इबादत हज भी वो सफ़ेद लिबास में ही अदा करता है न कि हरे रंग में. फिर तमाम मुल्कों में शादियां भी सफ़ेद कपड़े में ही होती हैं.

यानी मज़हबी काम सफ़ेद में, ज़िंदगी का सबसे अहम दिन शादी सफ़ेद कपड़े में. और फिर जब उसकी मौत यानी ख़ुदा के घर के सफ़र पर निकलता है तो वहां भी सफ़ेद कफ़न होता है. किसी को हरे रंग के कफ़न में दफ़न होते मैंने नहीं देखा.

ग़ौर करने की ख़ास बात यह है कि जो सफ़ेद रंग मुसलमानों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा रहा है, उसे किस तरह भारतीय मुसलमानों ने अपने हिन्दू भाईयों की देखा-देखी अपशगुन के साथ जोड़ दिया. जैसे एक सुहागन कभी सफ़ेद कपड़ा नहीं पहनेगी, क्योंकि वह विधवा के लिए मुक़र्रर किया गया है. शादी लाल रंग के कपड़ों में होगी. जबकि इसका कहीं किसी इस्लामी किताबों में कोई ज़िक्र नहीं मिलता. तमाम मुस्लिम व इसाई देशों में औरतें शादी के दिन सफ़ेद कपड़ा ही पहनती हैं. लेकिन भारत में अगर ग़लती से भी किसी लड़की ने शादी के बाद भी सफ़ेद पहना तो हंगामा. लोग यही कहेंगे कि क्या बेवाओं की जैसी शक्ल बना रखी है.

मेरी नज़र में जैसे सफ़ेद रंग पवित्रता व शांति का सूचक है, उसी तरह से हरा रंग सब्ज़बागी और ख़ुशहाली की निशानी है. न कि मुसलमानों के धार्मिक रंग का प्रतीक. हां, यह रंग ख़ास तौर पर सूफ़ियों के मज़ारों पर चादर चढ़ाने में इस्तेमाल होता रहा है. शायद यही वजह रही होगी कि यह रंग मुसलमानों के साथ जुड़ गया.

मैं अक्सर अपनी बातों को बचपन में मां की बताई हुई बातों से जोड़कर देखती हूं. क्योंकि हर रात मेरी मां हम सब भाई-बहनों को कोई न कोई कहानी ज़रूर सुनाती थीं. मुझे हरे रंग की इस बहस पर याद आता है कि किस तरह हमारी अम्मी अक्सर पूरे मुहर्रम के महीने करबला के शहीदों की कहानियां सुनातीं कि एक बार पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) फ़ातिमा को एक सेनी (थाल) में दो कुर्ते रखकर दिया कि हसन और हुसैन को इस लिबास में तैयार कर दो. फ़ातिमा ने वो पोशाकें देखीं और कहा अब्बा जान आप तो हमेशा दोनों को एक नज़र से देखते रहे हैं तो फिर यह दो रंग कैसे? हुज़ूर (सल्ल.) ने नम आंखों से जवाब दिया कि फ़ातिमा हमारे दोनों नवासे अल्लाह की राह में काम आएंगे. हसन के लिए हरा रंग जिन्हें ज़हर दे दिया जाएगा और हुसैन के लिए लाल रंग जो करबला में शहीद होंगे.

इसलिए अक्सर मुहर्रम के दस दिनों में किसी एक दिन शिया मुस्लिम हरा कुर्ता पहनते हैं. शिया समुदाय के हरे रंग से जुड़ाव की एक वजह फ़ातिमी ख़िलाफ़त के झंडे का हरा रंग रहा. जो कि अब्बासिद दौर में काले से बदल दिया गया. पर ज़्यादातर इस्लामी मुल्कों ने फ़ातिमी झंडे को ही अपनाया और चूंकि हिंदुस्तान में फ़ारसी संस्कृति की स्वीकृति शुरू से रही. और हरा रंग फ़ारसी संस्कृति का हिस्सा रहा है, इसलिए ये हर त्योहारों में नज़र आने लगा. यहां तक कि जब मुस्लिम बच्चे का ख़तना होता है, तो उसे सफ़ेद या हरे रंग का ही कुर्ता पहनाया जाता है.

हालांकि अगर हम इस्लामी झंडे के रंग आज के हरे झंडे से जोड़कर देखेंगे तो भी हमें निराशा ही मिलेगी. क्योंकि आरंभिक दिनों में, खुद पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के दौर में झंडे के दो रंगों का ज़िक्र है. या तो उन्होंने हर जंग में सफ़ेद झंडा इस्तेमाल किया या काला. इसलिए अरबी शब्द अलउबाक का ज़िक्र इस्लामी झंडे में बहुत मिलता है, जिसका मतलब है चील.

बाद में पैग़म्बर (सल्ल.) के सहाबी अबू बकर सिद्दीक़ और उमर फ़ारूक़ दोनों के वक़्त में सफ़ेद और काले झंडे का रंग रहा. बाद में उनके उत्तराधिकारी उमैय्यद ने सफ़ेद रंग रखा. अब्बासिद ने काला और फ़ातमिद ने सिर्फ़ हरा रखा. इसके पीछे तर्क है कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) का लबादा हरे रंग का था. फ़ातमिद दौर में जो पैग़म्बर के वंश से थे, हरे रंग को पहनते थे. शायद यही वजह थी कि शिया समुदाय ने हरे रंग को बहुत अहमियत दी.

लेकिन बावजूद इसके आप देखेंगे कि इस्लाम में शांति का सूचक सफ़ेद रंग की महत्ता ज़्यादा रही है. क्योंकि पैग़म्बर (सल्ल.) के वक़्त में अधिकांशतः जंग आत्मरक्षा के लिए लड़ी गई और कोई शक नहीं कि झंडे के ज़रिए शांति का पैग़ाम देना मक़सद था.

भारतीय मुसलमानों में एक रंग और है जो बुरा समझा जाता है. ख़ासतौर पर नई नवेली दुल्हन के लिए, वह है —काला रंग. पर हक़ीकत यह है कि काले रंग का तो काबा का पर्दा है. और काला रंग की काफ़ी अहमियत है, जो पैग़म्बर (सल्ल.) के झंडे के रंग के साथ भी जुड़ती है.

उसी तरह केसरिया हमें त्याग और बलिदान सिखाता है. हमें कहीं से नहीं लगता कि केसरिया किसी मुस्लिम के लिए मना है या वह इसे नापसंद किया जाता है. आशा है कि यह रंग हमें निजी ज़िंदगी में भी उसी भावना से ओत प्रोत करे. हम एक दूसरे की भावनाओं को समझें तो ज़्यादा बेहतर है.

इस तरह रंग को लेकर बहुत से अंधविश्वास हैं या सियासत हैं. जिसका मुसलमानों के साथ कोई धार्मिक लेना-देना नहीं. यानी जिसे मज़हब में मानने के लिए फ़र्ज़ क़रार किया गया हो. इसलिए आज जब हम हरे रंग पर बहस करते हैं तो ज़रूरी है कि रंगों की सियासत को भी समझें.

मेरा मानना है कि रंगो पर ग़ौर न करें. उसके मायने को समझा जाए. उम्मीद करते हैं कि हरे रंग को तमाम हिन्दुस्तान की ख़ुशहाली के साथ देखा जाएगा. जैसा कि हमारे तिंरगा झंडे को डिज़ाइन करने वाली सुरैया तैय्यबजी के ज़ेहन में रहा होगा.

सच तो यह है कि मुसलमानों से ज़्यादा हरे रंग की अहमियत हिन्दू समुदाय में है. सावन के महीने का एक लंबा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है. जिसमें हरी चूड़ियां, हरी चुनरी और हरे लिबास का चलन हिन्दुस्तानी औरतों में परम्परागत रूप से सदियों से चला आ रहा है. जहां तक मुझे लगता है कि हरे रंग की महत्ता मुस्लिम समाज में भी मिली जुली संस्कृति का परिणाम है, न कि अरब या इस्लामी मुल्क की लाई हुई कोई परम्परा.

हरी चूड़ियों और चुनरी पर सदियों से चले आ रहे लोकगीत, सावन की कजरी की परम्परा ख़ालिस हिन्दुस्तानी है जो न हिन्दू है न मुस्लिम. वर्ना अगर हरा रंग मुस्लिम की धार्मिक पहचान होती तो सावन की चूड़ियां सिर्फ़ मुस्लिम औरतें पहनतीं. तो साफ़ है हमारे झंडे का सफ़ेद रंग पवित्रता और सादगी का सूचक है, केसरिया लाखों शहीदों के बलिदान और शहादत बताता है तो हरा रंग हरियाली का सूचक है. हिन्दुस्तान रूपी ये बाग हमेशा हरा भरा रहे, फले फूले और आगे बढ़ता रहे…

लेखिका जामिया मिलिया इस्लामिया के सरोजनी नायडू सेंटर फॉर विमेन स्टडीज़ से जुड़ी हुई हैं.

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