आम तौर पर माना जाता है कि मौलाना मुहम्मद अली की दिलचस्पी जामिया में ख़त्म हो गई थी. वे इसे बंद कर देना चाहते थे. पर हक़ीक़त कुछ और थी.
दरअसल, 24-25 जून, 1924 को दिल्ली में सेन्ट्रल ख़िलाफ़त कमेटी की बैठक आयोजित की गई. पहले ही दिन इस बैठक में डॉ. किचलू ने साफ़ तौर पर कहा कि जामिया मिल्लिया, अलीगढ़ को बंद करके उसे दिल्ली में श्रमिकों और प्रचारकों के लिए प्रशिक्षण संस्थान में तब्दील कर देना चाहिए.
मौलाना मुहम्मद अली ने किचलू के इस प्रस्ताव का विरोध किया. इस पर किचलू ने कहा कि इस वक़्त जामिया में सिर्फ़ 143 छात्र हैं और लगभग एक महीने में इसका खर्च 10 हज़ार रुपये है. वर्तमान में ज़रूरत स्नातकों की नहीं, बल्कि सैनिकों और फुल टाईम श्रमिकों की है, जो देश के लिए अपने जीवन का बलिदान देने को हमेशा तैयार रहें.
इस पर मौलाना मुहम्मद अली ने कहा कि किचलू को जामिया के काम के बारे में कुछ भी पता नहीं है. ये एक भी बैठक में शामिल नहीं हुए और अब कोई काम न करने के लिए उन्हें बदनाम कर रहे हैं.
ये बहस थोड़ी लम्बी चली और इस बहस में मुहम्मद अली बहुत नाराज़ हुए. किचलू को हार माननी पड़ी. मुहम्मद अली ने उन्हें यहां तक कह दिया कि किचलू एक ऐसे आदमी की तरह हैं, जो अपने साथी के कपड़े लेकर भाग गया, जब वो स्नान करने के लिए गया था. बैठक के आख़िर में ये तय किया गया कि सेन्ट्रल ख़िलाफ़त कमेटी का दृढ़-संकल्प है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया न सिर्फ़ एक स्थायी यूनिवर्सिटी बनी रहे, बल्कि इसे बेहतर बनाने के साथ-साथ इसका विस्तार भी हो.
सेन्ट्रल ख़िलाफ़त कमेटी की इस बैठक में एक रिज़ोलूशन भी पारित किया गया, जिसमें जामिया के बारे में स्पष्ट तौर पर कहा गया —‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ के संबंध में ऐलान किया जाए कि वह बदस्तूर अलीगढ़ में क़ायम रहेगी और इसकी मज़बूती के सामान बहम पहुंचाए जाएं. सदर को अख़्तियार दिया जाए कि इसका ऐलान अख़बारों में प्रकाशित करें.’
बावजूद इसके हालात कुछ ऐसे बने कि इसे बंद करने के बारे में चर्चा आम होने लगी. ऐसी नाज़ुक हालत में कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके दिल अल्लाह की रहमतों से मायूस न थे. वे अपने ख़ून से सींची हुई खेती को इस तरह बर्बाद होते देख नहीं सकते थे. ये जामिया के छात्रों और कार्यकर्ताओं की वह जमात थी जिसने जामिया के काम को अपना काम बना लिया था. इसको चलाने के लिए हर प्रकार की मुसीबतें झेलने को तैयार थे. उनका एक साथी ज़ाकिर हुसैन उस वक़्त यूरोप गया था. उनका ख़्याल ये था कि वापसी पर वह जामिया को चलाने में उनका हाथ बंटा सकेगा. इन लोगों ने उसे तार भेजा कि फ़ाउंडेशन कमेटी जामिया को बंद करने की तैयारियां कर रही है, आपका क्या मश्विरा है? ज़ाकिर साहब का जवाब आया —“मैं और मेरे कुछ साथी जामिया की ख़िदमत के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ़ करने के लिए तैयार हैं. हमारे आने तक जामिया को बंद न होने दिया जाए.”
मौलाना मुहम्मद अली का आरोप है कि जामिया के क़ायम होने के दिन से ही ये कोशिश बराबर होती रही कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया का दरवाज़ा बंद हो जाए. आख़िरकार आमिर मुस्तफ़ा खान साहब की पत्नी की कोठी से इसे 1925 में निकलवाकर ही छोड़ा. जामिया के छात्रों व शिक्षकों को रिश्वत अलग से दी गईं. मसीहुल मुल्क हकीम अजमल खान और डॉ. अंसारी साहब को मजबूर किया गया कि जामिया को दिल्ली ले आएं.
यहां ये स्पष्ट रहे कि जामिया के संस्थापकों व उस्तादों को ये पसंद नहीं था कि जामिया ख़िलाफ़त कमिटी के अधीन व मातहत रहे. इसलिए उन्होंने ख़िलाफ़त कमेटी से नवम्बर 1920 में ही ये प्रस्ताव पास करा लिया कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया एक आज़ाद इदारा है और वो किसी दूसरी जमात के सामने जवाबदेह नहीं है. बता दें कि ख़िलाफ़त कमेटी ही जामिया के तमाम खर्चों का भार उठाती थी. वो जामिया मिल्लिया इस्लामिया के लिए हर महीने दस हज़ार रुपये की मदद देती थी.
(लेखक जामिया के इतिहास पर शोध कर रहे हैं. पिछले दिनों इनकी ‘जामिया और गांधी’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है.)