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Reading: मैंने पीएचडी में दाख़िला क्यों नहीं लिया?
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BeyondHeadlines > Brainery > मैंने पीएचडी में दाख़िला क्यों नहीं लिया?
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मैंने पीएचडी में दाख़िला क्यों नहीं लिया?

Afroz Alam Sahil
Afroz Alam Sahil Published September 17, 2021 6 Views
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13 Min Read
Photo Click by Shahnawaz Ali (http://www.delhiphotostudiobth.com/)
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आज जामिया को याद कर रहा हूं. इसके पीछे एक बड़ी वजह है. ये वजह आपको हैरान कर सकती है. मुझे भी इस वजह ने काफ़ी वक़्त तक पसोपेश में रखा. मगर इस वजह पर आने से पहले जामिया से अपने रिश्ते की शुरूआत को याद करता चलूं.

मुझे याद है, जब जामिया में मेरा दाख़िला बीए में हुआ था तो अब्बा बहुत नाराज़ हुए थे. उनका मानना था कि बेतिया से ही आईटीआई कर लेता. दिल्ली जाने की क्या ज़रूरत है. लेकिन मैंने जामिया से बैचलर मुकम्मल किया. अब घर वालों की ख़्वाहिश थी कि बीए कर लिया, अब कुछ काम-धंधा करके कमाओ. लेकिन मैंने एमए में दाख़िला ले लिया. घर वाले नाराज़ हो रहे थे कि पता नहीं, अब कितना पढ़ेगा?

एमए फ़ाइनल इयर का छात्र था. तब अब्बा ने पूछा कि अब आगे क्या? मेरा जवाब था —एम.फिल. करूंगा. शायद उन्हें एम.फिल. समझ नहीं आया तो मैंने कहा, पीएचडी करूंगा. उन्होंने पूछा —पीएचडी करके क्या होता है? मेरे लिए उस वक़्त अब्बा को समझाना मुश्किल था. सो मैंने बस यूं ही कह डाला कि मेरे नाम के आगे डॉक्टर लग जाएगा. बोले —मतलब तुम लोगों का इलाज करोगे?

अब्बा का ये सवाल सुनकर मुझे हंसी आ गई. तब तक वो भी समझ चुके थे कि कुछ गड़बड़ सवाल पूछ लिया है. तभी वो अचानक बोले —अच्छा, समझ गया तुम मिश्रा जी की तरह डॉक्टर बनोगे?

अब मिश्रा जी की कहानी बड़ी दिलचस्प थी. बेचारे हिन्दी में पीएचडी करके गांव अपने घर लौटे. फोकसबाज़ी में घर के बाहर बोर्ड लगा दिया —डॉ. रमाशंकर मिश्रा. गांव में इनके नाम की ख़ूब धूम मची. हर जगह उनके नाम के चर्चे थे. तभी अगले दिन रात के दो बजे गांव में एक शख़्स सख़्त बीमार पड़ा. गांव के तमाम लोग इकट्ठा हो गए. डॉक्टर साहब घोड़ा बेचकर सो रहे थे. गांव के सारे लोगों ने उनके घर पर दस्तक दी. आंख मींचते हुए उनकी धर्म-पत्नी ने दरवाज़ा खोला. इतने सारे लोगों को देखकर घबरा गईं. सबने एक साथ पूछा —डॉक्टर साहब हैं?

उनका जवाब हां में था. अब डॉक्टर साहब बाहर आए. एक साथ इतनी भीड़ देखकर नींद उनकी आंखों से दो कोस दूर भाग चुकी थी. लोगों ने उस बीमार शख़्स की तकलीफ़ बताई. लेकिन डॉक्टर साहब का सीधा सा जवाब था —तो मैं क्या करूं? किसी डॉक्टर के पास ले जाओ. इतना सुनना था कि लोग भड़क गए. बहरहाल, बड़ी मुश्किल से इस भीड़ से इनकी जान बच पाई. अगले दिन घर के बाहर का नेम प्लेट भी ग़ायब था.

मिश्रा जी की इस कहानी के बावजूद मैंने एम.फिल. में दाख़िला लिया. मैंने अब तक पढ़ाई का मतलब यही समझा था कि आपकी पढ़ाई तभी कारगर है, जब आप किसी मज़लूम शख़्स के काम आ जाओ. बस मैंने अपने यूनिवर्सिटी प्रशासन से कुछ लिखित सवाल कर डाले. यूनिवर्सिटी को मेरा सवाल पसंद नहीं आया. मैंने इस सवाल को एक टीवी डिबेट में प्राइम टाइम में उठा दिया तो बस फिर क्या था, लीगल नोटिस पाने का सुख हासिल हो गया. ये दो कौड़ी का इंसान पचास लाख का बन चुका था.

इधर बेज़बान छात्रों को आवाज़ देने की कोशिश में मैं अदालत चला गया तो अदालत में कहा गया कि मैं तो पढ़ने वाला छात्र हूं ही नहीं. अटेंडेंस मात्र 47 फ़ीसद है. इत्तेफ़ाक से नोटिस बोर्ड पर चिपका कागज़ अटेंडेंस 74 फ़ीसद बता रहा था. बस मैंने वो पेपर ही नोटिस बोर्ड से ग़ायब कर दिया. फिर मैंने आरटीआई डालकर इसकी मांग कर दी कि मुझे मेरे अटेंडेंस के साथ-साथ सेन्टर पर मौजूद तमाम टीचरों के भी अटेंडेंस दिए जाएं. बस फिर क्या था मानव अधिकार की बड़ी-बड़ी बातें करने वालों की भी हेकड़ी निकल गई. कहने लगे कि ये तुमने क्या कर दिया? हमारी अटेंडेंस मांगने की क्या ज़रूरत थी?

ख़ैर, ये कहानी काफ़ी लंबी है और मैं यूनिवर्सिटी का पहला छात्र बना, जिसने लिखित रूप में इस यूनिवर्सिटी का त्याग किया कि ये यूनिवर्सिटी मेरे लायक़ नहीं है या फिर मैं इस यूनिवर्सिटी के लायक़ नहीं हूं. हालांकि बाद में इसी यूनिवर्सिटी से नौकरी का ऑफ़र मिला और कहा गया कि अपनी पढ़ाई मुकम्मल करो. लेकिन मुझे ये गवारा नहीं था. मुझे लगा कि ये मेरे उसूलों के ख़िलाफ़ है.

इस कहानी को बीते कई साल हो चुके हैं. यूनिवर्सिटी का सारा निज़ाम बदल चुका है. मैं भी छोटी-पतली सात किताबें लिख चुका हूं. कुछ दोस्तों ने मशवरा दिया कि क्यों न तुम पीएचडी कर ही लो. मैंने भी सोचा कि दोस्तों का मशवरा नेक है. क्यों न जो सपना एमए में देखा था, उसे पूरा कर लिया जाए. बस बग़ैर नेट-जेआरएफ़ के पीएचडी का फ़ॉर्म भर दिया. थोड़ी सी मेहनत में टेस्ट क्वालिफ़ाई कर लिया.

मैंने अब तक सुन रखा था कि पीएचडी करने में कोई समस्या नहीं है, अगर आपके रिश्तेदार यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर, रीडर या लेक्चरर हैं. लेकिन मुझे इस बात पर यक़ीन नहीं था. और वैसे भी मेरे ख़ानदान में तो किसी ने आज तक पीएचडी किया ही नहीं. लेकिन मैंने सोचा कि यूनिवर्सिटी के टीचर्स क्या मेरे रिश्तेदार से कम हैं. आख़िर कितना मानते हैं मुझे. इसलिए मैंने सोच रखा था कि टेस्ट क्वालिफ़ाई करके किसी को भी नहीं कहूंगा. सीधे इंटरव्यू के लिए जाऊंगा. अगर मेरे अंदर क़ाबलियत होगी तो यक़ीनन कोई न कोई टीचर मुझे ज़रूर लेगा. लेकिन दोस्तों ने साफ़ तौर पर बता दिया था कि ऐसी मिस्टेक ग़लती से भी न करना. इंटरव्यू में जाने से पहले किसी न किसी टीचर से बात ज़रूर कर लेना…   

क्वालिफ़ाई करने के बाद ये बात समझ में आ गई कि पीएचडी करने के लिए ये बात कोई मायने नहीं रखती कि आप कितने क़ाबिल हैं. आपने कितने रिसर्च पेपर या किताबें लिखी हैं. मायने ये बात रखती है कि टीचर के पीछे आप कितने दिनों से चक्कर काट रहे हैं. आप उनके रिश्तेदार हैं या नहीं. आप उनकी हर बात में कितना हां में हां मिला सकते हैं…

इन तमाम बातों के बावजूद मैं ख़ुशक़िस्मत रहा कि मुझे एक बेहद शानदार टीचर मिले, जिनका मैं रिश्तेदार नहीं था. कभी उनके पीछे नहीं घूमा. कभी उनकी जी-हज़ूरी नहीं की. लेकिन फिर भी उन्होंने मुझे इस क़ाबिल समझा कि मैं उनकी गाइडेंस में पीएचडी कर सकता हूं.

मैं उनका शुक्रगुज़ार हूं कि अब मैं पीएचडी के लिए सेलेक्ट हो चुका हूं. लेकिन एक सवाल बार-बार मेरे ज़ेहन में घूम रहा है कि आख़िर ऐसा कब तक चलेगा? आख़िर पढ़े-लिखे नौजवान इस बात पर सवाल क्यों नहीं उठाते कि भाई, पीएचडी के लिए मेरी क़ाबलियत देखो. अगर मैं इस क़ाबिल नहीं हूं तो मुझे पीएचडी करने का कोई हक़ नहीं है. आख़िर हमारे देश के हायर स्टडीज़ में कब तक भाई-भतीजावाद चलता रहेगा. क्या क़ाबलियत कोई मायने नहीं रखती? या फिर मेरे अंदर एक ही क़ाबलियत होनी चाहिए कि मैं टीचर के आगे-पीछे कितना घूम सकता हूं. उनके घर का कितना काम कर सकता हूं.

मुझे पता है कि मेरे गाइड मुझसे अपने घर के काम नहीं कराएंगे. मुझे शायद उनके आगे-पीछे घूमने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी. लेकिन फिर भी मैंने फ़ैसला लिया है कि पीएचडी नहीं करूंगा. मुझे अपने नाम के आगे फर्ज़ी डॉक्टर नहीं लगाना है जो समाज की बीमारियों का इलाज भी न कर सके.

सवाल यह भी है कि आपने आज के हालात में कितने प्रोफ़ेसरों को सरकार के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बोलते-लिखते देखा है. जब हम इतना पढ़-लिखकर भी इस लायक़ नहीं बन पाए हैं कि समाज के हक़ में बोल या लिख पाएं, तो फिर ऐसी डिग्री का क्या फ़ायदा? जेएनयू में ‘काउंटर टेररिज़्म’ के नाम पर जो नया कोर्स शुरू हुआ है, उसके ख़िलाफ़ आपने कितने प्रोफ़ेसरों को बोलते या लिखते हुए देखा है?

ऐसी डिग्री का क्या फ़ायदा जहां एक टीचर के सामने एक अदना सा छात्र ये बात कहे कि सर, मैंने कई रिसर्च पेपर लिखे हैं. मेरे एक पेपर का रिफ्रेंस मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा जी ने अपनी नई किताब में भी दिया है. और वो टीचर भड़क जाए. ये मेरे साथ हुआ है. सो ऐसे सिस्टम में डिग्री लेकर भी क्या फ़ायदा, जहां पहले से लोगों के ज़ेहन में यह बात भरी हो कि मैं किसी को काट कर किसी को स्थापित करने की कोशिश कर रहा हूं.

यहां तो टीचर का इगो इस बात पर हर्ट हो जाता है कि मेरा शिष्य मुझसे बड़ा कैसे? उसका काम मुझसे ज़्यादा अहम कैसे हो सकता है? वो टीचर पहले ही आपको बता देगा कि आप मेरे बारे में मालूम कर लेना. अपना ईगो घर रख कर आना. लेकिन दरअसल ईगो उसी का हर्ट हो रहा था. टीचर आपको बताएगा कि मैंने अपने गुरू को कभी बैग नहीं उठाने दिया. दरअसल वो भी यही चाहता है कि आप भी उसका बैग उठाकर उसके पीछे घूमिए. और ये सबकुछ गुरू-शिष्य परंपरा के नाम पर होता है. आख़िर गुरू-शिष्य परंपरा के नाम पर कब तक शोषण सहते रहेंगे?

लड़के तो सह भी लेते हैं, लेकिन मैंने सुना है कि लड़कियों को कहीं-कहीं पर शारीरिक शोषण का शिकार भी होना पड़ता है. और वो कुछ बोल नहीं पाती. कुछ कर नहीं पाती. आख़िर ऐसा कब तक चलता रहेगा.

ऐसे सिस्टम में मुझे डिग्री नहीं लेनी. ये डिग्री मेरे किसी काम की नहीं है. इसलिए मैंने फ़ैसला किया है कि मुझे पीएचडी में दाख़िला नहीं लेना है. लेकिन पीएचडी में दाख़िला लेने वालों से मेरी अपील है कि मेरे सवालों पर ग़ौर कीजिएगा. अगर कोई टीचर आपसे अपने काम करवाए तो पलट कर जवाब दीजिएगा कि ये मेरा काम नहीं है. मेरा काम रिसर्च है. अगर कोई शोषण करे तो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाइएगा. मुमकिन हो तो एफ़आईआर दर्ज करवाइए. वो गुरू नहीं, बल्कि गुरू की शक्ल में भेड़िया है. और ये ज़रूर सोचिएगा कि आपकी पीएचडी इस देश के आम लोगों के किस काम आने वाली है.

जामिया का इतिहास इस देश के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास है. जामिया ने इस देश और समाज को एक नई दिशा दी है. इसलिए ज़रूरी है कि आज जब कुछ तत्व इस महान इतिहास के साथ खिलवाड़ करने पर आमादा हो जाएं, तो एक मुकम्मल आवाज़ उठाई जाए. मुझे पता नहीं कि ये आवाज़ कितनी दूर तक जाएगी पर ये एक आग है. आज मेरे सीने में जल रही है, कल आपके सीने में जलेगी. इसे जलना ही चाहिए. दुष्यंत कुमार के लफ़्ज़ों में —

“मेरे सीने में न सही

तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग

लेकिन आग जलनी चाहिए…”

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