गैंगरेपः घड़ियाली आंसू बहाना नेताओं का काम है, आपका नहीं

Beyond Headlines
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Dilnawaz Pasha for BeyondHeadlines

क्या सड़कों पर हैवानियत अचानक दौड़ी? क्या जो हुआ वो सिर्फ कुछ सिरफिरे दरिंदों की करतूत थी? पीड़िता का दर्द बयां करने में टीवी एंकरों का गला रूंध गया. अखबारों के पहले पन्ने काले हो गए. दरिंदगी और हैवानियत की कहानी लिखने के लिए पत्रकारों को शब्द नाकाफी लगे. सड़कें चिल्लाईं… संसद रोई… नेताओं के आंसू बहे तो महिला अधिकारों की बात करने वालों ने सीना पीटा.

2 घंटे के घटनाक्रम ने सदियों की मानवता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए. अचानक हर चेहरा संदिग्ध नज़र आने लगा. हर लड़की बेबस तो हर मां खौफज़दा. हर बाप चिंतित… राह चलती लड़की पर सीटियां मारने वाले लड़के भी बहनों के भाई हो गए.

लेकिन क्या यह सबकुछ अचानक हुआ? क्या 23 साल की मेडिकल छात्रा के साथ हुई घटना के बाद की हमारी प्रतिक्रियाएं भावुकता की अतिश्योंक्ति नहीं है? क्या हम संवेदनशील होने का दिखावा मात्र नहीं कर रहे हैं?

रविवार रात दिल्ली में हुए घटनाक्रम को किसी लड़की का दुर्भाग्य या कुछ सिरफिरों की दरिंदगी कहकर नहीं टाला जा सकता. सफ़दरजंग अस्पताल में मौत से जूझ रही छात्रा के साथ गैंगरेप दरिंदों ने नहीं बल्कि हमारे सिस्टम ने किया है. और जो सिस्टम आज है उसके लिए जितने पुलिस वाले और नेता जिम्मेदार हैं उससे कहीं ज्यादा हम.

नोएडा से दिल्ली जाने वाली चारटर्ड बसों में सफ़र करने वाली कौन सी लड़की ड्राइवर और कंडक्टर के व्यवहार से परिचित नहीं है? कौन सी चौकी ऐसी है जहां इन बसों से हफ्ता नहीं पहुंचता? क्या हमारी नंगी आंखें इस सच को नहीं देखती?

नोएडा से ही दिल्ली जाने वाली 392 नंबर बस में सफ़र करने वाला कौन सा यात्री ऐसा है जो प्राइवेट बसों की मनमानी और डीटीसी बसों की बेबसी (कभी-कभी मजबूर किया जाता है तो अक्सर खरीद लिया जाता है) से परिचित नहीं है? क्या ये सब अचानक हुआ है. ये तो  होता आ रहा है सालों से और शायद होता रहेगा. सड़कों के चिल्लाने और संसद के रोने के बाद भी. क्योंकि दिखावे मात्र से बदलाव नहीं आता.

बेशर्मी देखिए! सिस्टम को रोज़ बिकता देखकर, रोज बद से बदतर होता देखकर, और कभी-कभी इसे दूषति करने वाले ही हाथों में कैंडल लेकर मार्च निकाल रहे हैं. क्यों हमारी संवेदनशीलता इंतजार करती है किसी लड़की की जिंदगी के तबाह होने का?

क्यों हम एक ट्रैफिक हवलदार को रिश्वत देते हुए यह नहीं सोचते कि हम महिलाओं की, बच्चों की, बुजुर्गों की सुरक्षा देने वाले सिस्टम को प्रदूषित कर रहे हैं. क्यों एक बेबस रेहड़ी वाले, छोले कूलचे बेचकर अपने परिवार का पेट पालने वाले, सड़क किनारे सब्जी बेचने वाले से पुलिसवालों को रिश्वत लेते देखकर हमारे मन में यह ख्याल नहीं आता कि इन पुलिसवालों का काम रिश्वत लेना नहीं, समाज को सुरक्षित रखना है?

सड़क पर चलते हैं और पुलिसवालों को वसूली करते नहीं देखा? दोबारा सोचिए जनाब, या तो आप झूठ बोल रहे हैं या फिर भारत नहीं किसी और मुल्क की सड़कों पर चलते हैं. कितनी बार आपने वसूली रोकने की कोशिश की. अंतिम बार कब था जब आपके मन में ख्याल आया कि सिस्टम प्रदूषित हो रहा है. और क्या कभी ऐसा हुआ कि आपने अपने इस विचार पर दोबारा सोचा हो और कुछ किया हो?

अच्छा सड़कछाप बातें छोड़िए. आप तो हाई क्लास सिटिजन हैं. आपसे आपके स्तर की बात करते हैं. कभी कनॉट प्लेस या फिर प्रगति मैदान ट्रेड फेयर गए हैं? तो आईसक्रीम तो खाई होगी. कभी रेट पर गौर किया है?

20 रुपये की आईसक्रीम 25 में मिलती है और 25 वाली 30 में. कभी पूछिएगा. आइस्क्रीम बेचने वाला बताएगा कि हर आइस्क्रीम का रेट 5 रुपये महंगा क्यों हैं? वो बताएगा कि गश्त करके महिलाओं को सुरक्षित महसूस करवाने वाली पीसीआर वैन की असल ड्यूटी क्या है. वो आपको बताएगा कि संसद में जब गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे पीसीआर की गश्त बढ़ाने की बात कर रहे थे तो उनका असल मतलब महिलाओं को सुरक्षित महसूस कराना नहीं बल्कि अधिक वसूली करने की मंजूरी देना था.

और देखिए अपने पत्रकार साथियों को, कैसे इनका गला रूंध गया है. छात्रा के रेप के बाद आधी रात को सड़कों पर उतर आए हैं हकीकत जानने के लिए. जैसे कभी इन्होंने अपने दफ्तर के नीचे गोलगप्पे बेचने वाले बच्चे से हफ्ता वसूलते पुलिसवालों को कभी देखा ही नहीं. कितनी मासूमियत से ये सिस्टम की वो हकीकत खोजने की कोशिश कर रहे हैं जिसे इनकी आंखें हर दिन अनदेखा करती हैं.

चलिए छोड़िए ये बेकार की बातें. सिस्टम पर अपना फ्रस्ट्रेशन निकालते हैं. एक दो कैंडल हाथ में थामते हैं. मार्च निकालते हैं. और अब तो नारेबाजी की भी दो साल की प्रेक्टिस हो गई है. हल्लाबोल करते हैं. सड़क संसद को हिलाते हैं. अगर पांच रुपये महंगी आइस्क्रीम खा सकते हैं, 100 रुपये ट्रैफिक हवलदार को थमा सकते हैं तो फिर 2 रुपये की कैंडिल तो खरीद ही सकते हैं. और अगर यह भी नहीं कर सके तो फिर फेसबुक-ट्विटर तो है ही, संवेदनशीलता के फूहड़ प्रदर्शन के लिए…

वैसे अगर दिखावे से परे आप कुछ करना चाहते हैं तो प्रतिरोध कीजिए लेकिन सिर्फ शब्दों से नहीं. रिश्वत लेते सिपाही को टोकिए. वसूली करते अफसर पर सवाल उठाइये. पूछिए कि अवैध बसें कैसे चल रही हैं. ऑटो वाला अधिक किराया मांगे तो 100 नंबर पर कॉल कीजिए क्योंकि कैंडल मार्च निकालकर आप किसी की जिम्मेदारी तय नहीं कर सकते. शिकायत करके, टोक कर, सबूत जुटा कर सकते हैं. और यकीन जानिए. जिस दिन पुलिस अपना काम करने लगी उस दिन किसी की हिम्मत नहीं होगी जो किसी बहन, बेटी या बहू पर नज़र टेढ़ी कर सके. लेकिन क्या हम यह लांग टर्म उपाय अपनाने के लिए तैयार हैं? जब प्रदर्शन के शॉर्टकट से काम चल रहा है तो क्या हम शिकायत करने, गलत को गलत कहने, वसूली रोकने का जोखिम उठा पाएंगे?

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