मंहगी दवा, मंहगी डॉक्टरी जांच और डॉक्टर की मंहगी फीस…

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Anita Gautam for BeyondHeadlines

महंगाई की मार से त्रस्त जनता खुश है. यह किसी सपने से कम नहीं. आर्थिक मंदी के नाम पर कभी घरेलू गैस तो कभी अनाजों के दाम बढ़ाने वाली सरकार झूठे वायदो के अलावा जनता को शायद कुछ नहीं दे सकती. पिछले दिनों ही बयार की तरह एक बात जोर से उड़ी और लोग भी लगे खुश होने पर कौन जानता था कि यह चार दिन की चांदनी है और फिर काली रात… शरद पवार की अध्यक्षता में बने मंत्रियों के समूह ने राष्ट्रीय दवा नीति-2012 को मंजूरी देते हुए कैबिनेट के पास भेज दिया था और सरकार ने वायदा भी किया था कि ज़रूरी दवाइयाँ सस्ती मिलेंगी. जिसमें अभी तक 74 दवाइयों को ही मूल्य नियंत्रण के दायरे में रखा गया है. आगामी समय में इस फैसले के अंतर्गत 348 दवाइयाँ मूल्य नियंत्रण के कतार में लगी हुई हैं जिसका फैसला आना अभी तक बाकी है.

ख़बर आते ही सरकार का यह फैसला स्वागत योग्य लगा, लेकिन जब इसकी बारीकियों को समझने का प्रयास किया गया तब यह ऊंट के मुंह में जीरे सी ही साबित हुई. कारण साफ था. देश की करीब 40000 दवाईयों में से क्या सिर्फ 348 का ही मूल्य नियंत्रण करना उचित है?

देश में प्रत्येक साल लगभग 3 प्रतिशत तक लोग जो गरीबी रेखा के नीचे हैं, दवा के अभाव में मर जाते हैं विपरित इसके की भारत मेडिकल टूरिज्म के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है. जहां एक ओर चमकदार, सभी सुविधाओं से लेस निजी अस्पताल हैं, वहीं शहरों की चकाचौंध से दूर, गांवों में बिजली तो क्या किसी सरकारी अस्पताल के इमारत का होना मुश्किल है.

अगर गंभीरता से देखा जाए तो सरकारी अस्पताल के नाम पर इमारतें खंडर हो चुकी हैं, जहां इंसान तो नहीं पर कुत्ते-बिल्ली जरूर राउंड लगाते नज़र आ जाते हैं. गांवों में डाक्टरों का निजी अस्पताल एक-दो कमरे में भी आसानी से मिल जाता है और उन्हें किसी एमबीबीएस, बीडीएस, बीएएमएस, सर्जन, बालचिकित्सक, महिला विशेषज्ञ, आंख-कान-गले का स्पेशलिस्ट होने की भी ज़रूरत नहीं होती. गांवों की ऐसी जरजर हालात है कि जो कम्पाउंडर शहरों में कुछ समय किसी कैमिस्ट के पास दवा देने का काम कर आए हैं वे भी बिना किसी पढ़ाई या डिग्री के स्वयं अपना अस्पताल चला रहे होते हैं और गांव वाले भी कोई अस्पताल न होने के कारण उनके पास ही जाना उचित समझते हैं.

जय जवान, जय किसान का नारा लगाने वाली सरकार न जाने क्यों भगवान भरोसे गांव देहातों के लोगों को उनके हाल पर छोड़ अपने व्यवसाय में लगी हुई है. फिर सरकार क्यों भूल जाती है कि पूरे देश का भरण-पोषण करने वाले यह किसान आज कुपोषण से क्यों मर रहे हैं?

अगर स्वास्थ्य विभाग के दिवसों की सूची पर नज़र डालें तो देश में कभी डायबिटिज डे, एड्स डे, हेपिटाईटस डे, मेंटल हेल्थ डे, विकलांग डे, हार्ड डिसिज डे और न जाने ऐसे कितने तमाम दिवस हैं जो सिर्फ कलैंडरों की ही शोभा बढ़ाते हैं. अधिक से अधिक मेट्रो सिटीज के बडे़ अस्पतालों में पोस्टर भी लगे नज़र आ जाते हैं. पर शायद ही इन दवा के दाम कम करने वाली सरकार उन गरीब लोगों के बारे में सोंचती हो, जिसे डायबिटिज, मेंटल हेल्थ, हेपिटाईटस नामक बीमारियों के लक्षण तो दूर नाम तक के बारे में भी पता हो.

देश इतनी उन्नति और वैज्ञानिक प्रगति के बाद भी आज तक अंध-विश्वास की धारणाओं में कैद है, जिसके कारण कई ऐसी मानसिक बीमारियां हैं जिसमें रोगी को रोगी न समझ उस पर भूत-प्रेत का साइड इफैक्ट मान लिया जाता है और काला धागा, नींबू मिर्च व झाड़फूक पद्वति से इलाज किया जाता है. परिणामस्वरूप रोगी मृत्यु को प्राप्त होता है. किन्तु इसका मूलभूत कारण लोगों में अज्ञानता, मंहगी दवा, मंहगी डाक्टरी जांच और डाक्टर की मंहगी फीस है.

डाक्टर चाहे तो रोगी को मंहगी दवा न लिख सस्ती दवा भी लिख सकता है, क्योंकि हमारे देश में जुगाड़ नामक एक ऐसा हथियार है, जो आड़े वक्त बहुत ही कारगर सिद्ध होता है अर्थात् आपको बाजार में एक ही नाम की अलग-अलग कंपनियों सहित अलग-अलग दाम की अनेक दवांए मिल जाएंगी ताकि आप अपने जेब के अनुसार दवा खरीद सकें. किन्तु डाक्टर और कैमिस्ट हमेशा मंहगी दवा ही रोगी को सुझाते हैं.

अगर आपको इन दवाओं के खेल के बारे में जरा सा भी मालूम हो तो भी दुकानदार आपका ब्रेनवाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ते और महंगी दवा को इफैक्टिव बताते हुए मजबूरन मंहगी दवा ही टिका देते हैं. दूसरी ओर डाक्टरों की घसीटा छाप राइटिंग के फलस्वरूप रोगी को दवा विक्रेता अपने सिक्ससैंस के जोर पर जो भी समझ आए मिलते जुलते नाम की दवा पकड़ा देता.

उदाहरण के तौर पर  डूलकोलेक्स (Dulcolex), पेट साफ करने के लिए दी जाती है किन्तु इसके नाम से मेल खाती  डायनामोक्स (Dianamox), एंडीबायटिक के तौर पर दी जाती है. ठीक इसी प्रकार D-Cold साधारणतयाः सर्दी और जुखाम के लिए दी जाती है किन्तु  डीकोलिक (Dicolic), जो कि पेट दर्द की शिकायत होने पर ही दी जाती है. ऐसी ही तमाम दवाईयां है जो घसीटाछाप अक्षरों में डाक्टर मरीज को लिख, तुरंत ही निपटाने का काम करते हैं.

 देश में स्वास्थ्य विभाग की ओर दृष्टि की जाए तो कमियों का पिटारा बंद होने का नाम ही नहीं लेता. एक ओर सरकार स्वास्थ्य के नाम पर गांवों-पिछडे़ क्षेत्रों में जागरूकता अभियान चलाने का दावा करती है तो दूसरी ओर दवाओं के दाम बढ़ा कर लोगों को दवा के अभाव में मरने के लिए मजबूर करती है. आज भी भारत में ऐसे लाखों लोग हैं जो ईलाज के नाम पर कर्ज के नीचे दबे हुए हैं.

आप स्वयं सोचिए कि जब देश की चमचमाती राजधानी के सरकारी अस्पतालों में मरीज दवा और डाक्टर के अभाव में प्रत्येक क्षण दम तोड़ते हैं तो हम देश के पिछड़े क्षेत्रों या दूर-दराज के गांवों से क्या अनुमान लगा सकते हैं? जहां तक मेरी समझ का सवाल है, सरकार सिर्फ 74 दवाओं के दाम करने से ही स्वस्थ भारत का निर्माण नहीं कर सकती. स्वस्थ भारत का निर्माण करने के लिए दैनिक प्रयोग में आने वाली दवा अथवा जघन्य बीमारियों जैसे कैंसर, अस्थमा, दिल का दौरा, अथवा वेक्सिनेशन की बात की जाए तो महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसररोधी इंजेक्शन जैसी तमाम दवाओं के दाम भी घटाने चाहिए.

साथ ही साथ मेडिकल जांच के नाम पर देश में चल रहे तमाम डायग्नोसिस सेंटरों में सरकार द्वारा प्रत्येक जांच का एक जैसा मूल्य निर्धारित किया जाना चाहिए और ऐसी दुकानों पर सरकार को अपना शिकंजा कसना चाहिए. साथ ही साथ स्वस्थ भारत का निर्माण करने में स्वास्थ्य विभाग को और अधिक मज़बूत व कड़े नियम बना उनका पालन करना चाहिए और देश में दवाओं की कालाबजारी को रोकने का उचित प्रयास भी करना चाहिए तभी हमारा देश स्वस्थ और विकसित भारत के रूप में और अधिक विकास की ओर बढ़ेगा.

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