अब इन लोगों की ज़रूरत ही नहीं है

Beyond Headlines
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Himanshu Kumar for BeyondHeadlines

कल दिल्ली की कुछ मानवाधिकार एवं दलित अधिकारों की सस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ मैं भी हरियाणा के कैथल जिले के पबनावा गाँव में गया था . इस गाँव में रहने वाले दलित परिवारों के तीन सौ घरों में तोड़ फोड और लूट पाट की गई थी . बस्ती की युवा महिलायें और बच्चे अभी भी बस्ती में वापिस नहीं लौटे हैं .

यह एक भयानक दृश्य था . घरों के टूटे हुए दरवाज़े , बिखरा हुआ सामान , बिलखती हुई बूढ़ी औरतें देख कर मन में जिस तरह के ख्याल आ सकते हैं मैं उन्ही भावों से भरा हुआ था .

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एक दलित लड़के और एक बड़ी जाति की लड़की ने प्रेम विवाह कर लिया . इस बात पर इन छोटी जाति के लोगों की पूरी बस्ती पर बड़ी जाति के लोगों ने इकट्ठा होकर हमला किया और पुरी बस्ती को नुक्सान पहुँचाया .

इसे पढते हुए आपके दिमाग में अगर यह चित्र उभर रहे हैं कि यह सब किसी पिछड़े हुए इलाके के सामंती समाज में हो रहा है तो आप गलती पर हैं .

जिन्होंने हमला किया वो सब पढ़े लिखे लोग हैं , शिक्षक हैं , इंजीनियर हैं , सरकारी अफसर हैं , उनके पास कार हैं , मोटरसाइकिल हैं , वो टीवी देखते हैं , फेसबुक पर हैं .

जिन पर हमला हुआ उन दलितों के पास भी अब कम्यूटर आ रहा था . मैंने टूटा हुआ कम्प्युटर देखा . टीवी भी आ गये थे , टूटे हुए टीवी भी देखे , मोटर साइकिल भी थी , तोड़ डाली गई मोटर साइकिल भी देखी .


मुझे यह स्वीकार करने में मुश्किल हो रही है कि दलितों की बस्ती इसलिये जला दी गई कि छोटी जाति के एक लड़के ने बड़ी जाति की लड़की से शादी कर ली .

ऐसा सम्भव ही नहीं है कि दोनों जातियां वर्षों से प्रेम से रहती हों और अचानक एक घटना से पूरा समुदाय जाकर मित्र समुदाय की एक बस्ती को जला दे .

ये नफरत वर्षों की इकट्ठा हो रही होगी ,

इस नफरत का क्या कारण रहा होगा ?

असल में दलितों के पास ज़मीन नहीं है . क्यों नहीं है वो मुझे तो पता है, पर आप भी सोचिये कि देश भर में दलित ही क्यों बेज़मीन हैं ?

ये दलित लोग वर्षों से बड़ी जाति के लोगों के खेतों में मज़दूरी करते थे . मजदूरी बहुत कम मिलती थी . लेकिन अब हालत बदलने लगी थी . अब दलित भी पढ़ने लिखने लगे , अब दलित भी दूसरे काम धंधे करने लगे , अब दलित भी बड़ी जाति के लोगों की तरह कम्यूटर चलाने लगे , अब दलित भी मोटर साइकिलों पर घूमने लगे . और अब दलितों ने कम मजदूरी पर बड़ी जाति के लोगों के खेतों में काम करना बंद कर दिया .

बस यही गडबड हो गई .

इन छोटी जाति वालों की ये मजाल ? कि वो खेत में काम करने के लिये बड़ी जाति वालों के बुलाने पर आने से मना कर दें. दलितों की ये मजाल कि वो मजदूरी के रेट पर ज़बान लड़ाएं .
नहीं ये बर्दाश्त नहीं किया जा सक्ता था . इन्हें सबक सिखाना ही था . गुस्सा अंदर अंदर था .

जैसे ही इस गुस्से को चिंगारी मिली . पूरे समुदाय ने तय किया कि इन चमारों को इनकी औकात बतानी ही पड़ेगी . बड़ी जाति के पांच सौ से ज़्यादा लोगों ने पिस्तौल , तलवार , गंडासे लेकर दलितों को सबक सिखाना शुरू कर दिया . दुकाने लूट ली गयीं , घर लूट लिये गये . अनाज बिखेर दिया गया . पानी की टंकियां फोड दी गयीं . मारपीट करी गई .

कल इस उजड़ी हुई बस्ती में घुमते हुए मैं तलाश कर रहा था कि यहाँ एक देश के सामान नागरिक होने के भाव का एक कतरा भी कहीं मौजूद हो तो कुछ राहत मिले . पर पूरे माहौल में बस नफरत और डर ही फैला महसूस हो रहा था .

देश की एक बस्ती के लोग अपने पास की दूसरी बस्ती के लोगों को इंसान मानने के लिये तैयार नहीं हैं . वो उन्हें मिटा देने पर आमादा हैं . हमारी बात कुछ सवर्ण पुरुषों से भी हुई . उन्होंने कहा कि हमें तो इन लोगों की ज़रूरत ही नहीं है . ये लोग हमारे खेतों में काम करते ही नहीं हैं .

वह कह रहा था कि अब इन लोगों की ज़रूरत ही नहीं है तो हम इन्हें यहाँ क्यों रहने दें ? जैसे कि इन दलितों का होना सिर्फ तभी तक बर्दाश्त किया जा सक्ता है जब तक वो बड़ी जातियों के किसी काम के हों . वर्ना हम उन्हें यहाँ रहने ही नहीं देंगे .

भयानक सोच है . आप एक पूरी दलित बस्ती को मिटा देने का इरादा रखते हैं ? क्योंकि अब ये लोग आपके काम के नहीं रहे ? और आप ये बात सन दो हज़ार तेरह में कह रहे हैं ?

मुझे कल्पना हो रही है कि सदियों से क्या क्या बर्दाश्त करना पड़ा होगा इन तथाकथित छोटी जाति वालों को ? क्या क्या शर्तें माननी पड़ी होंगी सिर्फ इसलिये कि बड़ी जाति के लोग उन्हें बस जिंदा रहने दें .

कल रात को इस बस्ती से दिल्ली वापिस लौटते समय मुझे भारतीय संस्कृति ,धर्म संविधान जैसे शब्द मूंह चिढा रहे थे . और मेरी आँखों के सामने अस्स्सी साल की बुज़ुर्ग महिला की तस्वीर थी जो अपनी कमीज़ उघाड़ कर अपने सीने पर मारी गई लात की चोट दिखा रही थी .

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