क्रिकेट खिलाड़ियों का नहीं, नेताओं और कंपनियों का खेल है

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Puja Singh for BeyondHeadlines

भारत की विशाल आबादी में मनोरंजन एक बड़ा बाजार है. मुश्किल यह है कि आइपीएल साफ सुथरा कारोबार भी नहीं है. वित्तीय नियमों के उल्लंघन का हर शॉट आइपीएल में मारा गया है. इसलिए वित्त मंत्रालय, आयकर विभाग से लेकर प्रवर्तन निदेशालय तक शुरुआत से आइपीएल की अंपायरिंग कर रहे हैं.

प्रवर्तन निदेशालय मनी लॉड्रिंग की जांच कर रहा है. तो पिछले साल ठीक इसी महीने आयकर विभाग कोलकाता नाइटराइडर्स, सहारा पुणे वारियर्स और रायल चैलेंजर्स बेंगलूर का हिसाब खंगाल रहा था. आयोजन की टीवी प्रसारण कंपनियां भी इन्कम टैक्स के शिकंजे में हैं. कोच्चि टीम के विवाद के बाद देश को यह पता चला कि फ्रेंचाइजी में बेनामी हिस्सेदारियों का तगड़ा मकड़जाल है.

पूर्व खेलमंत्री अजय माकन संसद में मान चुके हैं कि आइपीएल में तरह-तरह की कालिख हो सकती है. वित्त मंत्रालय टीमों के स्वामित्व व निवेश की जांच करा रहा है. एक प्रमुख वित्तीय प्रबंधन संस्थान ने माना था कि टीमों के मूल्यांकन, खिलाड़ियों की कीमत, हिस्सेदारी, निवेश, कागजी कंपनियां, विदेशी पैसा, प्रायोजन के ठेके, ऑडिट सहित करीब 25 ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें लेकर आइपीएल सवालों में है. और इनके दायरे में आयोजन का पूरा वित्तीय संसार सिमट आता है.
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सुप्रीम कोर्ट ने ठीक पूछा है कि बीसीसीआइ की कोई जिम्मेसदारी है या नहीं? लेकिन यह सवाल जिससे किया जा रहा है, उस संस्था की कानूनी हैसियत को लेकर सरकार में गज़ब की गुगली फेंकी जाती हैं. बीसीसीआइ खुद को एक चैरिटी संस्था मानती है और कर रियायतों का दावा करती है. जबकि आयकर विभाग उससे यह दर्जा छीन चुका है. बोर्ड को इसी साल 2300 करोड़ रुपये टैक्स का नोटिस भेजा गया.

आयकर विभाग मानता है कि आइपीएल को सरकार की मंजूरी तक नहीं मिली और इसके छह आयोजन हो गए हैं. इतने कीचड़ में लिथड़ा आइपीएल फिर भी इसलिए चमकता है. क्योंकि भारत में क्रिकेट खिलाड़ियों का नहीं, नेताओं और कंपनियों का खेल है. जिसमें फिक्सर और अंडरवर्ड नए हिस्सेदार हैं.

खेलों का एक राष्ट्रीय चरित्र है और दूसरा कारोबारी, क्रिकेट के मुरीद, जो आइपीएल में फिक्सिंग से ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं उन्हें तब और गहरा सदमा पहुंचेगा जब वे यह जान पाएंगे कि फिक्सिंग तो इसका बाहरी दाग है. दरअसल इस कारोबारी क्रिकेट की पूरी दाल ही काली है. जो पंटरों-बुकीज की सुर्खियों में छिप जाती है. और अंतत: फिक्सिंग की जांच भी अंधेरे में गुम हो जाती है. 2007 में ललित मोदी इंटरनेशनल स्पो‌र्ट्स मैनेजमेंट ग्रुप के साथ जब इस आयोजन का खाका खींच रहे थे तब क्रिकेट के भले का कोई इरादा नहीं था.

आइपीएल के बिजनेस मॉडल में टीमों से लेकर खिलाड़ियों तक सबकी कमाई फिक्स है. टूर्नामेंट कोई भी जीते, मगर टीमों यानी फ्रेंचाइजी की 70 फीसद कमाई क्रिकेट बोर्ड कराता है. जो प्रसारण अधिकारों व प्रायोजकों से मिली राशि का अधिकांश हिस्सा फ्रेंचाइजी के बीच बांटता है. टीम प्रायोजन की पूरी राशि, मैचों के टिकट की बिक्री में बड़ा हिस्सा और स्थानीय विज्ञापनों के अलावा खिलाड़ी की ड्रेस पर चिपके ब्रांडों की कमाई फ्रेंचाइजी को जाती है. इस बार सौ से अधिक ब्रांडों ने 1500 करोड़ रुपये का दांव लगाया था.

खिलाड़ियों से अनुबंध, स्टेडियम फीस, स्थानीय विज्ञापन और बोर्ड को दी जाने वाली सालाना फीस ही फ्रेंचाइजी के गिने-चुने खर्च हैं. आइपीएल के उद्घाटन मैच का सिक्का उछलने से सबकी कमाई तय हो चुकी होती है. इसलिए खेल सिर्फ शो रह जाता है.

आइपीएल के जन्म के बाद से क्रिकेट बोर्ड की कमाई 2007-08 में 1714 करोड़ रुपये से बढ़कर बीते साल 3308 करोड़ रुपये पर पहुंच गई. आइपीएल ने इतना तो कर ही दिया है कि इतिहास अब हमें सिर्फ शानदार क्रिकेटरों के लिए ही याद नहीं करेगा. बल्कि यह भी लिखेगा कि भारत ने दुनिया के क्रिकेट को गंदा करने में भी योगदान दिया है.

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