नक्सलवाद : पता नहीं इस बार क्या होगा?

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Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

शनिवार 25 मई को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जो कुछ किया, वह दिल दहलाने वाला है. उसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले की संज्ञा देने में शायद ही किसी को आपत्ति हो. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेतृत्व को खत्म करने की नक्सलियों की हरकत वैसी ही है जैसे लिट्टे ने 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या करके की थी.

यह नक्सलियों की पहली ऐसी हरकत नहीं है, जिसे लोकतंत्र पर हमले के रूप में परिभाषित किया जाए. वे पहले भी ऐसा कर चुके हैं. ठीक दो वर्ष पहले अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ में ही नक्सलियों ने जब राज्य पुलिस और मुख्यत: केंद्रीय रिजर्व पुलिस के 75 जवानों की हत्या कर दी थी तब अगर हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने यह अहसास कर लिया होता कि यह भी लोकतंत्र पर हमला है तो शायद आज यह दिन नहीं देखना पड़ता.

विडंबना यह रही कि इन 75 जवानों की हत्या के आरोप में पकड़े गए नक्सली सबूतों के अभाव में छूट गए और किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखी. इसमें दो राय नहीं हो सकती कि नक्सलियों ने पहली बार राजनेताओं पर इतना बड़ा हमला किया है. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि वे पहले भी विधायकों, सांसदों को निशाना बना चुके हैं. ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में नक्सली कई नेताओं को निशाना बना चुके हैं. ज़्यादातर नेता वही थे जो उनके खिलाफ लड़ रहे थे. पता नहीं तब किसी ने यह क्यों नहीं महसूस किया कि नक्सली लोकतंत्र पर हमला कर रहे हैं?

नक्सलवाद : पता नहीं इस बार क्या होगा?

मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनने के बाद से कम से कम एक दर्जन बार यह कह चुके हैं कि नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है. लेकिन वह इस खतरे से लड़ने के लिए तैयार नहीं… नक्सलवाद पर लगाम लगा पाने में नाकाम रहने पर लालकृष्ण आडवाणी का मजाक उड़ाने वाले मनमोहन सिंह अब भले यह कह रहे हों कि नक्सलियों के आगे झुकेंगे नहीं. लेकिन कुछ समय पहले वह तब अपने गृहमंत्री चिदंबरम का बचाव नहीं कर सके थे. पार्टी और सरकार से समर्थन मिलता न देख कर चिदंबरम को न केवल अपने पैर पीछे खींचने पड़े थे, बल्कि यह सफाई भी देनी पड़ी थी कि ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ तो राज्यों का अभियान है.

आज किसी के लिए भी यह जानना कठिन है कि यह ऑपरेशन किस हाल में है और अस्तित्व में है भी या नहीं? किसी को भी इस उम्मीद में नहीं रहना चाहिए कि नक्सलियों की ताजा करतूत के बाद केंद्र और राज्य सरकारें उनसे निपटने के लिए कोई ठोस कदम उठाने वाली हैं. वे मिलकर लड़ने, नक्सलियों से न डरने और नक्सलवाद को केवल कानून-व्यवस्था का मामला मानने की बातें करेंगी. ऐसी भी आवाजें सुनाई दे सकती हैं कि हम गोलियों का जवाब विकास से देंगे. आश्चर्य नहीं अगर अरुंधती राय सरीखे लोग नक्सलियों की तरफदारी करते भी सुनाई दें.

इस सबके बीच किसी को पता नहीं चलेगा कि नक्सलियों से लड़ने के लिए क्या किया जा रहा है? यह भी तय मानिए कि नक्सलियों से निपटने के मामले में न तो नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों में कोई सहमति बनेगी और न ही इन राज्यों और केंद्र में इसके चलते पुलिस और केंद्रीय बल के जवानों में भी तालमेल कायम नहीं हो पाएगा. ठीक वैसे ही जैसे पिछले तीन-चार सालों में नक्सलवाद ग्रस्त राज्यों की बार-बार बैठक बुलाने के बाद भी कायम नहीं हो पाया है.

यह ठीक नहीं है कि जब केंद्र सरकार को नक्सलवाद के खिलाफ कोई ठोस-निर्णायक क़दम उठाते हुए नज़र आना चाहिए तब वह कामचलाऊ उपायों का ही सहारा लेती दिख रही है. इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सौंप दी गई है. यह संभव है कि एनआइए सुरक्षा में खामी के पहलू की सही तरह से पड़ताल कर ले. क्योंकि यह साफ नज़र आ रहा है कि सुरक्षा व्यवस्था को लेकर कई स्तरों पर लापरवाही का परिचय दिया गया. बावजूद इसके यह कहना कठिन है कि सुरक्षा में लापरवाही के कारण ही नक्सलियों का दुस्साहस इतना अधिक बढ़ा.

वैसे सुरक्षा में लापरवाही के पहलू की जांच केवल छत्तीसगढ़ तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए. क्योंकि यह स्पष्ट है कि खुद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नक्सलियों के निशाने पर चल रहे महेंद्र कर्मा की सुरक्षा की परवाह नहीं की. जब सलवा जुडूम के संस्थापक होने के नाते नक्सली उनसे खार खाए बैठे थे और उन पर कई बार हमला भी कर चुके थे तब केंद्र सरकार को उनकी सुरक्षा का खास ख्याल रखना ही चाहिए था. यह दुखद है कि छत्तीसगढ़ सरकार की तरह उसने भी उनकी सुरक्षा की अनदेखी कर दी. ऐसा तब हुआ जब उन्होंने केंद्र सरकार से अपनी सुरक्षा की गुहार लगाई थी. बेहतर हो कि छत्तीसगढ़ सरकार पर निशाना साध रही कांग्रेस अपने नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता से भी यह पूछे कि महेंद्र कर्मा को पर्याप्त सुरक्षा देने में कोताही क्यों बरती गई?

यह सवाल इसलिए और भी पूछा जाना चाहिए क्योंकि अनेक ऐसे नेताओं को सघन सुरक्षा मिली हुई है. जिन पर कहीं कोई गंभीर खतरा नज़र नहीं आता.

इस सवाल का जवाब शायद ही सामने आए कि नेताओं की सुरक्षा में लगे पुलिस के जवानों के पास आधुनिक हथियार और पर्याप्त गोलियां क्यों नहीं थीं? इस सवाल पर छाए मौन के बारे में भी सोचें कि आखिर नक्सलियों को एक से बढ़कर एक आधुनिक और घातक हथियार कहां से मिल रहे हैं? वे कहीं अधिक घातक क्षमता वाले विस्फोटक हासिल करने में भी समर्थ हैं. लेकिन कोई यह बताने वाला नहीं कि नक्सली यह सब इतनी आसानी से कैसे जुटा ले रहे हैं? कांग्रेसी नेताओं की सुरक्षा में लगे कुछ जवान अंतिम सांस तक लड़े. क्या कोई यह भरोसा दिलाने को तैयार है कि ऐसे साहसी जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा?

2010 में जब 75 सीआरपीएफ जवानों की हत्या पर देश भर में आक्रोश था तब हमारा राजनीतिक नेतृत्व संवेदना के चंद आंसू ढरकाकर शांत हो गया था. पता नहीं इस बार क्या होगा? लेकिन शायद आम जनता से ज़्यादा नक्सली यह अच्छी तरह जानते हैं कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व ढुलमुल है. अगर नक्सलियों ने इस नेतृत्व को धीरे-धीरे ढुलमुल मान रखा है तो उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता. पतीली में पड़ा मेढ़क ताप बढ़ने से थोड़ा हिलेगा-डुलेगा ज़रूर, लेकिन उछल कर बाहर नहीं आएगा. इस पर गौर करें कि नक्सलियों की ताजा ‘आंच’ के बाद हमारे राजनीतिक नेतृत्व की प्रतिक्रिया बस थोड़ा हिलने-डुलने वाली ही है.

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