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जहां गरीबों की पहचान ही संदिग्ध हो…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 13, 2013
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4 Min Read
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Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

रोजगार गारंटी, शिक्षा का अधिकार और प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक, जन कल्याण के कार्यक्रमों की सबसे नई पीढ़ी है. ग्राम व भूमिहीन रोज़गार, काम के बदले अनाज, एकीकृत ग्राम विकास मिशन आदि इन स्कीमों के पूर्वज हैं जो साठ से नब्बे दशक के अंत तक आजमाए गए. खाद्य सुरक्षा के लिए राजनीतिक आपाधापी अनोखी है. सब्सिडी की लूट का नया रास्ता खोलने वाली यह स्कीम उस वक्त आ रही है जब सरकार नक़द भुगतानों के ज़रिये सब्सिडी के पूरे तंत्र को बदलना चाहती है.

खाद्य सुरक्षा की सूझ में मनरेगा व शिक्षा के अधिकार की गलतियों का संगठित रूप नज़र आता है. भारत की राशन प्रणाली अनाज चोरी व सब्सिडी की बर्बादी का दशकों पुराना संगठित कार्यक्रम है. यही तंत्र 75 फीसद ग्रामीण और 50 फीसद शहरी आबादी को सस्ता अनाज देगा अर्थात कृषि लागत व मूल्य आयोग के अनुसार छह लाख करोड़ रुपये का खर्च इस कुख्यात व्यवस्था के हवाले होगा. जहां गरीबों की पहचान ही संदिग्ध हो वहां इतना बड़ी प्रत्यक्ष बर्बादी… दरअसल देश के लिए वित्तीय असुरक्षा की गारंटी है. जहां गरीबों की पहचान ही संदिग्ध हो...

इन अधिकारों से न रोज़गार मिला. न शिक्षा और न खाद्य सुरक्षा ही मिलेगी. रोटी, कमाई और पढ़ाई का हक़ पाने के लिए मुक़दमा लड़ने भी कौन जा रहा है?  सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि संवैधानिक गारंटियों और कानूनी अधिकारों की साख मटियामेट हो गई है. मनरेगा विशाल नौकरशाही और शिक्षा का अधिकार बने-अधबने स्कूलों की विरासत छोड़ कर जा रहा है. खाद्य सुरक्षा बजट की बर्बादी करेगी. अगली सरकारों को इन्हें बदलना या बंद करना ही होगा.

कहते हैं कि इतिहास जब भी खुद को दोहराता है तो उसका तकाजा दोगुना हो जाता है. 70-80 के दशक की आर्थिक भूलों को मिटाने में नब्बे का एक पूरा दशक खर्च हो गया. सोनिया-मनमोहन की सरकार देश के वित्तीय तंत्र में इतना ज़हर छोड़ कर जा रही है जिसे साफ करने में अगली सरकारों को फिर एक दशक लग जाएगा.

मनरेगा व शिक्षा के अधिकार की विशाल असफलता बताती है कि यह अनदेखी भूल वश नहीं, बल्कि पूरे होश में हुई है. जिसमें स्वार्थ निहित थे. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कमेटी, क्वालिटी निर्धारण तंत्र, नेशनल मॉनीटर्स, प्रदेश कमेटियां, जिला कमेटियां, ग्राम स्तरीय कमेटी, प्रोग्राम ऑफीसर, ग्राम रोज़गार सहायकों से लदी-फदी मनरेगा के जरिये देश में समानांतर नौकरशाही तैयार की गई, जिसका काम गरीबों को साल भर में सौ दिन का रोज़गार देना और उसकी मॉनीटरिंग करना था. लेकिन बकौल सीएजी पिछले दो साल में प्रति व्यक्ति केवल 43 दिन का रोज़गार दिया गया.

चुस्त मॉनीटरिंग की गैर-मौजूदगी सरकारी कार्यक्रमों की वंशानुगत बीमारी है. लेकिन मनरेगा तो सबसे आगे निकली. इस स्कीम से केंद्रीय बजट या गांवों के श्रम बाजार को जो नुक़सान पहुंचा वह दोहरी मार है.

शिक्षा का अधिकार देने वाली स्कीम का डिजाइन ही खोटा था. इसने दुनिया में भारत की नीतिगत दूरदर्शिता की बड़ी फजीहत कराई है. निरा निरक्षर भी शिक्षा के ऐसे अधिकार पर माथा ठोंक लेगा जिसमें बच्चों को बगैर परीक्षा के आठवीं तक पास कर दिया जाता हो. बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने का मतलब शिक्षित करना नहीं है. शिक्षा का अधिकार पाठ्यक्रम, शिक्षकों व शिक्षा के स्तर के बजाय स्कूलों की इमारत बनाने पर जोर देता है. इसलिए शिक्षा का अधिकार इमारतें बनाने के अधिकार में बदल गया और यह सब उस समय हुआ जब शिक्षा की गुणवत्ता की बहस की सबसे मुखर थी.

भारत के पास इन कार्यक्रमों की डिजाइन व मॉनीटरिंग को लेकर नसीहतें थोक में मौजूद है. लेकिन उनकी रोशनी गारंटियों के गठन में खुले बाजार, निजी क्षेत्र और शहरों के विकास की भूमिका भी शामिल नहीं की गई है.

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