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Reading: मुज़फ़्फ़रनगर में मासूमों की मौतें और सरकार की अनदेखी
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BeyondHeadlines > Lead > मुज़फ़्फ़रनगर में मासूमों की मौतें और सरकार की अनदेखी
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मुज़फ़्फ़रनगर में मासूमों की मौतें और सरकार की अनदेखी

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published December 10, 2013
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5 Min Read
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Rajiv Yadav for BeyondHeadlines

मुज़फ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के दौरान पीडि़त हुए मुस्लिम समुदाय के लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा है और वे खुले आसमान के नीचे बने राहत कैंपों में रहने को मजबूर हैं. जिसके चलते पिछले एक महीने में ही अब तक 40 से ज्यादा, जिनमें ज्यादातर बच्चे हैं, ठंड की वजह से मर चुके हैं. वहीं जिन पीडि़तों ने साहस करके दबंग सांप्रदायिक तत्वों पर मुक़दमा किया था, पुलिस के दबाव में वे मुक़दमे हटाने को मजबूर हो रहे हैं. जाहिर है यह स्थिति निष्पक्ष विवेचना और इंसाफ के मार्ग में व्यवधान है.

इस पूरे मामले में डीजीपी देवराज नागर की भूमिका भी संदिग्ध रही है. यह मानने के तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी इस ओर संकेत करते हैं कि न्याय मिलने की प्रक्रिया में उत्पन्न की जा रही बाधा और दंगे के आरोपी जिसमें कई भाजपा नेता भी शामिल हैं, को बचाने में डीजीपी नागर और भाजपा नेता हुकुम सिंह के बीच करीबी रिश्तेदारी बड़ी अहम वजह है, इसीलिए वे भाजपा नेताओं को बचाने के लिए अपने पुलिसतंत्र और रसूख का गैर वाजिब इस्तेमाल कर रहे हैं. जिसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि धारा-144 लगे होने के बावजूद 5 सितंबर 2013 को ग्राम लिसाढ़ और 7 सितंबर को नंगला-मंदौड़ में हजारों लोगों की महापंचायतें होने दी गयीं. जिसमें शामिल लोगों ने अपने सांप्रदायिक ज़हरीले भाषणों से वहां इकट्ठा हुए हथियार बंद लोगों को मुस्लिम विरोधी हिंसा के लिए उकसाया.

सबसे अहम कि यह जानते हुए कि सात सितंबर की महापंचायत जो धारा-144 लगे होने के चलते गैर कानूनी थी, से एक दिन पहले छह सितंबर को मुज़फ्फरनगर में होने के बावजूद डीजीपी देवराज नागर ने न उसे रोका, और न ही कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए शांति और अमन बनाये रखने के लिए महापंचायत के आयोजकों को गिरफ्तार किया और न ही लिसाढ़ और नंगला मंदौड़ के महपंचायतों की वीडियो रिकार्डिंग को ही विवेचना के दौरान पुलिस प्रशासन ने एसआईसी के विवेचनाधिकारी मनोज झां की टीम को सौंपा और इस तरह भाजपा से जुड़े नेताओं व अन्य आरोपियों के खिलाफ केस को कमजोर करने की कोशिश की.

फेसबुक के ज़रिये पाकिस्तान के सियालकोट शहर के हत्या की वीडियो को मुज़फ्फरनगर का बताकर हिंसा भड़काने के आरोप में रासुका में निरुद्ध किये गये भाजपा विधायक ठाकुर संगीत सिंह सोम के मामले में भी प्रशासन की तरफ से रासुका एडवाइजरी बोर्ड के समक्ष लचर पैरवी करने के मामले में भी डीजीपी और भाजपा नेता हुकुम सिंह के निजी संबंधों व निजी हितों के प्रभाव को देखा जा सकता है. जिसके चलते उत्तर प्रदेश के इतिहास के सबसे जघन्य जनसंहार के पीडि़त इंसाफ पाने से वंचित हो रहे हैं.

डीजीपी देवराज नागर के दबाव में रहने वाली मुज़फ्फरनगर, शामली और बागपत के पुलिस प्रशासन ने सांप्रदायिक हिंसा के दौरान 50 से अधिक कत्लों को सांप्रदायिक हिंसा का न मानते हुए अभियुक्तों के खिलाफ केस को कमजोर करने की कोशिश की. इसी तरह रासुका में निरुद्ध भाजपा विधायकों संगीत सिंह सोम व सुरेश राणा द्वारा जेल के अन्दर से फेस बुक अपडेट किए जाने को लेकर लखनऊ की अमीनाबाद कोतवाली में दी गई तहरीर पर करीब 20 दिन हो जाने के बावजूद आज तक मुक़दमा न दर्ज होना भी डीजीपी द्वारा अपने रिश्तेदार की पार्टी के विधायकों को बचाने के लिए अपने रसूख के गलत इस्तेमाल का उदाहरण है.

ऐसे में सरकार से हमारी मांग है कि डीजीपी नागर और हुकुम सिंह जो खुद भी दंगे में नामजद हैं, के संबंधों के करीबी रिश्तेदारी को देखते हुए डीजीपी को तत्काल कार्यमुक्त कर दंगे में और दंगे के बाद की उनकी भूमिका की जांच करवाई जाए और चूंकि निष्पक्ष विवेचना की प्रक्रिया को पहले ही पर्याप्त नुकसान पहुंचाया जा चुका है इसलिए पूरे मामले की जांच स्वतंत्र जांच एजेंसी सीबीआई को सौंपी जाए.

(लेखक रिहाई मंच के प्रवक्ता हैं.)

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