जो सरकार हमारे जान की रक्षा न कर सकी वो हमारे शिक्षा के अधिकारों की रक्षा क्या करेगी?

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Zakir Riyaz for BeyondHeadlines

अमानवीय हालात… लगभग शुन्य के नज़दीक तापमान… और खुले मैदान में तम्बुओं में रह रहे दंगा पीड़ित… ये दृश्य है कैराना के नज़दीक मलकपुर कैंप का, जहाँ लगभग 500 से ज्यादा पीड़ित परिवार रह रहे हैं. हर तरफ बेबसी और मायूसी का आलम है. हर कोई अपने आने वाले कल के लिए परेशान और नाउम्मीद है. सरकारी तंत्र बजाये इसके की इन पीड़ितों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे. इनको यहां से हटाने पर आमादा है. इसका एक प्रमाण सरकार लोई कैंप में बुलडोज़र चला कर दे चुकी है.

विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ता और संगठन यहां पीड़ितों की हर संभव मदद में लगे हुए हैं, परन्तु एक अधिकार ऐसा भी है जिस पर बहुत कम लोग ध्यान दे रहे हैं. यह है शिक्षा का अधिकार… इन दंगा प्रभावित परिवारों के बच्चे की शिक्षा लगभग पूर्ण रूप से रुक चुकी है.

कैंप में रह रहे एक बुज़ुर्ग के मुताबिक इस कैंप में लगभग 300 स्कूल जाने वाले बच्चे हैं, जो अब शिक्षा से वंचित हैं. इन बच्चों में लगभग दस प्रतिशत बच्चे दसवीं व बारहवीं के छात्र हैं. इन बुज़ुर्ग के मुताबिक एक महीना पहले प्रशासन ने दो शिक्षा मित्रों को यहां के बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजा था, परन्तु वे केवल दो दिन आये और उसके बाद उन शिक्षा मित्रों को यहां नहीं देखा गया.

शिक्षा स्वतंत्रता के सुनहरे दरवाज़े की चाभी है. शायद उत्तर प्रदेश सरकार इसी बात से चिंतित है. तभी वो इन बच्चों के शिक्षा के अधिकारों की रक्षा न करके इन कैम्पस को खाली कराने पर ज्यादा जोर दे रही है. सरकारी बेशर्मी की इन्तहा यह है कि बारिश और कड़ाके की ठण्ड के बावजूद पीड़ितों को कैम्पस से बाहर निकालने पर आमादा है.

दयनीय स्थिति में रह रहे ये बच्चे अभी भी शिक्षा के लिए इच्छुक हैं, परंतु व्यवस्था के अभाव में ये इस अधिकार  से वंचित हैं. पीड़ित परिवारों से बात करते हुए एक महिला रुख़साना जो मूल रूप से लाख गांव की रहने वाली है, ने बताया कि दंगे के बाद उसने अपने नवीं कक्षा में पढ़ने वाले बेटे को स्कूल भेजा जो दंगा प्रभावित क्षेत्र के नज़दीक ही है. स्कूल पहुंचने पर उसके बेटे को वहां उसी की कक्षा में पढ़ने वाले जाटों के बच्चों ने घेर लिया और जान से मार डालने की धमकी दी. उस दिन के बाद उसने फिर कभी अपने बेटे को स्कूल नहीं भेजा.

कुछ ऐसा ही कहना एक दुसरे लड़के का है, जो फुगाना का रहने वाला है. वह बारहवीं कक्षा का छात्र है, उसे अपनी बारहवीं की बोर्ड परीक्षा की चिंता है. परन्तु वो परीक्षा इसलिए नहीं दे पायेगा, क्योंकि उसका परीक्षा केंद्र उसी विद्यालय में पड़ेगा, जो फुगाना में स्थित है. उसका कहना है कि उसका फुगाना जाना संभव नहीं है, क्योंकि उसके परिवार ने दंगाइयों के खिलाफ़ रिपोर्ट दर्ज कराई हुई है. इसलिए फुगाना जाना उसके लिए खतरे से खाली नहीं.

यह हाल हर उस दंगा पीड़ित परिवार के बच्चों का है, जो यहां इन कैंप में रह रहे हैं, या कहीं और अपने रिश्तेदारों के यहाँ रह रहे हैं. सरकारी तंत्र की बेरुखी इन लोगों को दयनीय हालत में रहने पर मजबूर किये हुए है. इन लोगों का कहना है कि जो सरकार हमारी जान की रक्षा न कर सकी वो हमारे शिक्षा के अधिकारों की रक्षा क्या करेगी?

सरकारी बेरुखी और बेशर्मी की इन्तहा यह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक बार भी मुज़फ्फरनगर जाने की ज़हमत नहीं उठाई. बजाए इसके कि वो दंगा पीड़ितों की व्यथा सुनते, वो सैफई महोत्सव में कॉमेडी शो देखना ज्यादा ज़रूरी समझते हैं. एक युवा मुख्यमंत्री की नाकामी का ये सबसे बड़ा प्रमाण है.

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र और जामिया में छात्रों द्वारा चलाए जा रहे एबीसी कैंपेन के सह संयोजक हैं.) 

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